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मंगलवार, नवंबर 12, 2013

मंगलवारीय चर्चा---१४२७ मगर हम कुछ नहीं कहते....

आज की मंगलवारीय  चर्चा में आप सब का स्वागत है राजेश कुमारी की आप सब को नमस्ते , आप सब का दिन मंगल मय हो ,अब चलते हैं आपके प्यारे ब्लॉग्स पर .....

महिला खेलों के आयोजक-लघु कथा

shikha kaushik at भारतीय नारी

अब तोते में नहीं बसती जान.....

रश्मि शर्मा at रूप-अरूप

सकारात्मक सोच की रौशनी

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मिथिलांचल का भाई-बहन के प्रेम से जुड़ा लोकपर्व सामा-चकेवा

अभिषेक मिश्र at DHAROHAR 

परिकल्पना और स्मृतिनामा

रश्मि प्रभा... at परिकल्पना 

चन्द्रगुप्त की बात, करारा उत्तर पाया -


junbishen100

Munkir at Junbishen
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हम इसी नौकरी में अच्छे , जी करता नहीं बगावत को -सतीश सक्सेना

सतीश सक्सेना at मेरे गीत !

हृदय से बहता निर्झर!

अनुपमा पाठक at अनुशील 
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लहरें ......


कोई

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Let,s go to Dharamshala आओ धर्मशाला चले


ज़िंदगी

Pallavi saxena at Pasand

मगर हम कुछ नहीं कहते....


कितनी बयार


चुनावी हथकंडा -एक लघु कथा .

Shalini Kaushik at ! कौशल !

ये कैसा प्रयोग किया ?

प्रतुल वशिष्ठ at ॥ दर्शन-प्राशन ॥ 
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जख्म का क्या है कभी तो ये भर जाएगा...........

Amit Chandra at ehsas 

थे अपने ही हिसार में - नवीन

Navin C. Chaturvedi at ठाले बैठे
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दर्द


देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं

Rajesh Kumari at HINDI KAVITAYEN ,AAPKE VICHAAR 
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आज की चर्चा यहीं समाप्त करती हूँ  फिर चर्चामंच पर हाजिर होऊँगी  कुछ नए सूत्रों के साथ तब तक के लिए शुभ विदा बाय बाय ||


 गुरुवर का आदेश 



मिला पाक से फैक्स, सफल भाजप की रैली -

 रैली पटना की सफल, सी एम् रहे बताय |
आतंकी धंधा नया, रैली सफल कराय |

रैली सफल कराय, नए अब कारोबारी |
आये नए चुनाव , नई ले रहे सुपारी |

देते सर्विस टैक्स, मिली पटना को थैली |
मिला पाक से फैक्स, सफल भाजप की रैली   || 
  


ख्वाब

रचना दीक्षित 
ख्वाब
 
झलती रही पंखा साँझ सारी शाम,रात बोझिल हुई चुप चाप सो गई.

मुंह ढांप के कुहासे की चादर से,हवा गुमनाम जाने किसकी हो गई.
 
चाँद ने ली करवट बांहों में थी चांदनी, 
रूठी छूटी छिटकी ठिठकी वो गई.
 
बदली के आंचल की उलझने की हठ,
आकाश की कलँगी भिगो गई.

बादल के बाहुपाश में आ कर दामिनी, मन के सारे गिले शिकवे भी धो गई.
  राग ने रागिनी को धीमे से जो छुआ, वो बही बह के कानों में खो गई.

आँखों में ख्वाब के अंकुर ही थे फूटे, सुबह नमक की खेती के बीज बो गई.
  सज संवर के पंखुरियों पे बैठी थीं जो,आज वो ओस की बूंदें भी रो गईं.

मन की गठरी है आज भी बहुत भारी, 
पर हाय मेरी किस्मत उसको भी ढो गई.



कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में ...


Digamber Naswa 



बाजुओं में दम अगर भरपूर है

Digamber Naswa 

सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाजुओं में दम अगर भरपूर है

चाँद सूरज से था मिलना चाहता
रात के पहरे में पर मजबूर है

छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
पर हवा बैठी जो थक के चूर है

बर्फ की वादी ने पूछा रात से
धूप की पदचाप कितनी दूर है

हो सके तो दिल को पत्थर मान लो
कांच की हर चीज़ चकनाचूर है

वो पसीने से उगाता है फसल
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है

बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है 

13 टिप्‍पणियां:

  1. चर्चा मंच का शुरू से ही आभारी हूँ ... क्योकि मुझे पाठक वर्ग चर्चा मंच से मिला है

    जवाब देंहटाएं
  2. आपका आभारी हु मेरी रचना को शामिल करने के लिये.

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढिया प्रस्तुति व अच्छे सूत्र चर्चा मंच को धन्यवाद
    " जै श्री हरि: "

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्छे सूत्र ... आभार मेरी गज़लों को जगह देने का ...

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहद उम्दा लिंक हमारी गजल को तवज्जो देने हेतु धन्यवाद....
    अपनी नज़र बनाए रखे....

    -खामोशियाँ

    जवाब देंहटाएं
  6. bahut shandar charcha prastut ki hai aapne .thanks a lot to take my post here rajesh ji

    जवाब देंहटाएं
  7. सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    बहन राजेश कुमारी जी और भाई रविकर जी का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. धन्यवाद इस सुंदर चर्चा में 'धरोहर' की मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए भी...

    जवाब देंहटाएं

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