माता के दरबार हित, आया आज विचार।
दर्शन खातिर चल पड़ा, माँ तेरा उपकार ।
माँ तेरा उपकार, धन्य हैं भाग्य हमारे।
मत्था बारम्बार, टेकता तेरे द्वारे ।
रहा बाट था जोह, आज रविकर इतराता ।
जय माता दी बोल, हृदय नहिं हर्ष समाता ।
अब स्वस्थ हूँ -माँ के दर्शन के लिए जम्मू जा रहा हूँ-
माँ की कृपा से ५ मई से ब्लॉग पर सक्रिय हो जाऊंगा
--सादर
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"अद्यतन लिंक"
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श्याम स्मृति- ...
पुराण कथाएं व मिथक ......
डा श्याम गुप्त....
धर्म के तीन स्तर होते हैं----१- तात्विक ज्ञान---(मेटाफिजिक्स )...२-नैतिक ज्ञान--(एथिक्स )...३-कर्मकांड (राइचुअल्स)....मूलतः कर्मकांडों का जो जन-व्यवहार के लिए होते हैं, जन सामान्य के लिए...... उन्ही में अज्ञान ( तात्विक व नैतिक भाव लोप होने से ) से अतिरेकता आजाने से वे आलोचना के आधार बन जाते हैं | भारतीय पुराण कथाएं मूलतः कर्मकांड विभाग में आती हैं ताकि जन-जन, जनसामान्य को ईश्वर, दर्शन, धर्म, ज्ञान व संसार-व्यवहार की बातें सामान्य जनभाषा में बताई जा सकें ...
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जशोदा बेन का मर्म ना जाने कोए...
(*पोस्ट से पहले आपसे कुछ दिल की बात*- कहते हैं इंसान दो परिस्थितियों में निशब्द हो जाता है। बहुत दुख में और बहुत खुशी में। और जब बहुत दुख में निशब्द हो जाता है तो बहुत समय लगता है उससे बाहर आने में। सितंबर 2011 के बाद मैनें कुछ नहीं लिखा। 2011 और 2012 में मेरी बीजी की लंबी बीमारी। अस्पतालों में दिन रात रहना और फिर 2012 में उनका हमसे सदा के लिए बिछुड़ जाना...
रसबतिया पर -सर्जना शर्मा-
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ऐ-री-सखी
(अकेले मन का द्वंद्ध)
कब!
मेरे मन की चौखट पे
धूप सी इस जिंदगी में
कोई आएगा
जिस संग मैं
साजन गीत गाऊँगी ...
अपनों का साथ पर
Anju (Anu) Chaudhary
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यही वो दो पल हैं जिनके लिए , बच्चा , युवा , वयस्क या वृद्ध कोई भी तमाम उम्र बड़े जतन के साथ लगे रहते है , ये जानते हुए भी की ये कुछ पल सिर्फ कुछ पल का ही मज़ा देते हैं , लेकिन ये पल क्या हैं...
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गुड़गुड़ वहीँ के हुक्के की कायम है रह सकी .
दहलीज़ वही दुनियावी फितरत से बच सकी ,
तरबियत तहज़ीब की जिस दर पे मिल सकी .
...................................
होता तहेदिल से जहाँ लिहाज़ बड़ों का ,
गुड़गुड़ वहीँ के हुक्के की कायम है रह सकी...
! कौशल ! पर Shalini Kaushik
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आज की राजनीति
आ गया मौसम चुनाव का सब तरफ छाया है नशा चुनाव का देश के लिये लड़ने मरने को तैयार हर कोई अपने को साबित करने को तैयार उससे बड़ा देश भक्त कोई नहीं सब देश की कर रहे है चिंता पर चुनाव खत्म सब चिंता खत्म...
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दुनिया में अकेला भारत ऐसा राष्ट्र है जहाँ टोपी की राजनीति होती है. चुनाव भर तो इसकी धूम मची रहती है.आम आदमी की टोपी, ख़ास आदमी की टोपी और न जाने किस -किस आदमी की टोपी. जैसी हवा बही नेताओं ने वैसी टोपी पहन ली...
प्रस्तुतकर्ता abhishek shukla
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रूपदर्प होता नतमस्तक
सुवर्ण धरा भी व्यर्थ
अन्न अगर उपजा न सके।
व्यर्थ शब्द अनुशासन व्यर्थ
अन्तस् पर जो छा न सके...
अभिनव रचना पर ममता त्रिपाठी
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बहुत बढ़िया लिए चर्चा .....
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच कुछ नया सा |
उम्दा लिंक्स |
मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार रविकर जी |
शास्त्री जी नमस्कार अच्छा लगा कि आपने टूटे तार फिर से जोड़ दिए . बहुत बहुत धन्यवाद मेरी रचना को चर्चा मंच पर लाने के लिए . आशा है अब आप सबसे लगातार संपर्क बना रहेगा ।
जवाब देंहटाएंआज की सुंदर प्रस्तुति रविकर जी के स्वस्थ होने के सुंदर समाचार के साथ । 'उलूक' का सूत्र 'अपने दिमाग ने अपनी तरह से अपनी बात को अपने को समझाया होता है' को स्थान दिया आभार ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स के साथ अच्छा प्रस्तुतीकरण , आ. शास्त्री जी व मंच को धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनवीन प्रकाशन - घरेलू उपचार ( नुस्खे ) -भाग - ८
पठनीय लिंक्स से सजा सुन्दर चर्चा मंच ! मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार :-)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा। चर्चा में मुझे भी शामिल देने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स का साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
बहुत ही उम्दा लिंक्स...
जवाब देंहटाएंhttp://prathamprayaas.blogspot.in/-सफलता के मूल मन्त्र
वाह ... विस्तृत लाजवाब चर्चा ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मुझे भी जगह देने का इस चर्चा में ...
अहो भाग्य हमारे ,चर्चा में आप पधारे ,
जवाब देंहटाएंरहो सलामत हर दम दुआ मांगें सब प्यारे !
सुन्दर सुगठित मंच ए चर्चा।
दूध माँ का लजाने लगे पुत्र अब
जवाब देंहटाएंमूँग जननी के सीने पे दलने लगे
नेक सीरत पे अब कौन होगा फिदा
“रूप” को देखकर दिल मचलने लगे
अति संवेदन संसिक्त सशक्त विडंबन हमारे वक्त का। शानदार प्रस्तुति।
इस बेटी ने अपने पिता के बम -विस्फोट में टुकड़े -टुकड़े हुए देंखें हैं। आप इस बेटी के विषय में ऐसा कैसे लिख सकते हैं -अंग विदेशी-ढंग विदेशी, जनता पर डोरे डाले।
जवाब देंहटाएंप्रत्युत्तर दें
उत्तर
Virendra Kumar Sharma23 अप्रैल 2014 को 11:10 pm
सशक्त व्यंग्य उन लोगों पर जिनका लिखा हुआ भाषण हवा में उड़ जाए तो कागज़ से पहले धड़ाम से गिर पढ़ें मंच पर। आफत के परकाले ,काले धन के रखवाले क्या जीजा क्या साले।
ज़रूरी नहीं हैं सब बूटलीकर हों। वैसे तलुवे चाटना भी एक कला है नियति नहीं।
"गीत-आफत के परकाले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
भूल गये अपने अतीत को, ये नवयुग के मतवाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
मम्मी जी बेटी विदेश की,
रीत यहाँ की क्या जाने?
महलों में जो रही सदा.
वो निर्धनता क्या पहचाने?
अंग विदेशी-ढंग विदेशी, जनता पर डोरे डाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
वंशवाद की बेल सींचती,
प्रजातन्त्र की क्यारी में।
डोर हाथ में अपने रखती,
सारथी बनी सवारी में।
असरदार-सरदार सभी तो, अपने दरबे में पाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
अवतारों की वसुन्धरा में
राम-कृष्ण को भुला दिया।
भारत के पहरेदारों को
अफीम देकर सुला दिया।
हरे, सफेद बैंगनी बैंगन, अपने ही रँग में ढाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
अपने घर में लेकर आये,
परदेशों से व्यापारी।
लगता फिर कंगाल बनेगी,
सोनचिरय्या बेचारी।
आजादी के सीने में ये, घोप रहे पैने भाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
लाल-बाल और पाल. भगत सिंह,
देख दुखी होते होंगे।
बिस्मिल और आजाद स्वर्ग में,
अपना सिर धुनते होंगे।
गांधी जी को भुना रहे हैं, ये आफत के परकाले।
पश्चिम की सभ्यता बताते, क्या जीजा अरु क्या साले?
बेहतरीन सूत्र समायोजन, मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आभार!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लिंक्स, सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लिंक्स
जवाब देंहटाएंNice post!
जवाब देंहटाएंVOIP Services in India
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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