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सोमवार, अक्टूबर 05, 2015

"ममता के बदलते अर्थ" (चर्चा अंक-2119)

मित्रों।
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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सांप्रदायिकता खत्म करना है 

या बरकरार रखना है? 

लड़ाई सांप्रदायिकता से लड़ने की तय होनी थी। 
लड़ाई अतिवाद से लड़नी थी। 
लड़ाई इंसान को बचाने की थी। 
लेकिन, देखिए क्या हो रहा है... 
बतंगड़  पर HARSHVARDHAN TRIPATHI 
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एक नयी शुरुआत के लिए 

 ...यही तो है ज़िन्दगी का फलसफा
मिलना बिछड़ना , टूटना जुड़ना
निर्माण विध्वंस
फिर पुनर्निर्माण हेतु उपक्रम
तो पकड़ो फिर एक नया सिरा
एक नयी शुरुआत के लिए
क्योंकि ..........चलना जरूरी है... 
vandana gupta 
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महात्मा 

रचना रवीन्द्र पर रचना दीक्षित 
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तर्पण की हर बूँद .... 

SADA
पापा हथेली में जल लेकर 
आपका ध्‍यान करती हूँ 
तर्पण की हर बूँद का 
मैं मान करती हूँ 
कुछ बूँदे पलकों पे आकर 
ठहर जाती हैं जब 
तो आपका कहा कानों में गूँजता है... 
SADA 
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मुद्दा: मरुस्थलों सी प्यास है इंसानियत में भी...... 

हिन्दू मुसलमान की लड़ाई चल रही है। इन्ही पर केन्द्रित राजनीति भी। आपको क्या लगता है? देश केवल हिन्दू राष्ट्र बन जाये या केवल मुस्लिम राष्ट्र बन जाये तो लड़ाई न होगी, फसाद ना होंगे... 
यथार्थ  पर  Vikram Pratap singh 
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किरणें राह दिखातीं हैं... !! 

जाने क्यूँ ऐसा है... ??  
मेरी नज़र जहाँ जहाँ जाती है...  
हर जगह चीज़ें उलझी हुईं हैं...  
कहीं बातों का कोई सिरा छूट गया है...  
कहीं जीवन का आस से रिश्ता टूट गया है...  
दीपमालिकायें जाने क्यूँ बुझी हुईं हैं...  
हर जगह चीज़ें बेतरह उलझी हुईं हैं...  
अनुशील पर अनुपमा पाठक  

सम्हलो 

...सैलाब उमड़ रहा है
इस सैलाब में बहते जा रहे हैं
पेड़, पत्ते, फूल
मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर
बाज़ार-महल

अभी यह अट्टालिका भी बहेगी
जिस पर खड़े तुम सुन रहे हो बांसुरी की तान
सम्हलो!
Voice of Silence पर Brijesh Neeraj 
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मुर्दों की बस्ती में.... 

मुर्दों की बस्ती में 
सुबह-सुबह शोर है 
सत्य बोलो गत्य है 
राम नाम सत्य है... 
बेचैन आत्मा पर देवेन्द्र पाण्डेय 
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साहब सब्ज़ी लाये 

Sudhinama पर sadhana vaid 
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मैं हिन्दू हूँ वो मुसलमां है.... 

मैं हिन्दू हूँ वो मुसलमां है

ज़माना रोज़ कहता हैं ।
मगर इंसान है दोनों।
मैं भी समझता हूँ
वो भी समझता है।

मगर ये दूरियां बनाने की

कोशिशें कौन करता है।
है ईमान खतरे में ये कान
कौन भरता है।।
ये मैं भी समझता हूँ
और वो भी समझता है... 

"मगरूर थे कभी जो, मजबूर हो गये हैं" 

रहते थे पास में जोवो दूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जोमजबूर हो गये हैं।।

श्रृंगार-ठाठ सारेकरने लगे किनारे,
महलों में रहने वालेमजदूर हो गये हैं।
मगरूर थे कभी जोमजबूर हो गये हैं।।

थे जो कभी सरल सेअब बन गये गरल से
जो थे कभी सलोनेबे-नूर हो गये हैं... 

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