मित्रों!
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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'' अय्यारों की बस्ती में '' नामक नवगीत ,
कवि स्व. श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत संग्रह -
'' एक अक्षर और '' से लिया गया है -
हैं बींध रहे दुर्दिन , पर किसको लिखें पाती ?
चौहद्दियों सन्नाटा , हैं व्यूह तिलिस्माती !!
अय्यारों की बस्ती ये , सच की शिनाख़्त मुश्किल ,
है इनमें कौन दर्दी , है इनमें कौन क़ातिल ?
एक आँख रो रही है , एक आँख मुस्कराती।
चौहद्दियों सन्नाटा , है व्यूह तिलिस्माती...
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आपका अपना नजरिया
एक आदमी ने जंगल के पास एक बहुत सुंदर मकान बनाया और पेड़ पौधो का बगीचा लगाया, जिससे जंगल से आने - जाने वाले लोग उसमें रूक कर थोड़ा आराम करें। समय- समय पर लोग आते और आराम करते। वहा का गार्ड ( पहरेदार ) सभी आने जाने वाले लोगो से पूछता ‘‘आपको यहाँ पर कैसा लगा। मालिक ने इसे किन लोगों के लिए बनाया होगा ।’’ आने जाने वाले लोग अपनी- अपनी नजरो से मालिक का मकसद बताते रहते । चोरों ने कहा- ‘‘एकांत में आराम , योजना बनाने व हथियार छुपाने और लूटा हुआ सामान का बँटवारा करने के लिए मकान अच्छा हैं ।’’ ...
TLMOM
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जिन खोज तीन पाया
[मेरी पूर्व प्रकाशित रचना ]
मंदिर से निकलते ही पास वाले पार्क में लोगों की भीड़ देखी तो वहीँ रुक गई ,उत्सुकता वश मै भी भीड़ का एक हिस्सा बन कर वहां खड़ी हो गयी ,तभी चमत्कारी बाबा की जय ,चमत्कारी बाबा की जय के नारे हवा में गूंजने लगे | भगवा चोला पहने , आधा चेहरा दाढ़ी में छुपाये एक आदमी तरह तरह के जादुई करिश्में कर के लोगों को दिखा रहा था |कभी अपने हाथों में फूल ले आता तो कभी तलवार निकाल लाता,कभी उसके मुहं पर खून सा लाल रंग आ जाता तो कभी उसके हाथ लाल हो जाते| लोग अभी भी उसकी जय जयकार कर रहे थे ,भीड़ में से कुछ लोग निकल कर उस पाखंडी बाबा के पैर छू रहे थे | मै सोचने पर मजबूर हो गयी...
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तुम्हे लिखना....!!!
मेरी पंक्तियों को पढ़ कर,
जितना आसान था...
तुम्हारे लिये खामोश होना,
उतना ही मुश्किल था... मेरे लिये,
तुम्हे लिखना....
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कभी नहीं--- कभी नहीं---कभी नहीं
भूखों से आशा
झूठों से दिलासा
बहरों पे भरोसा
कभी नहीं--- कभी नहीं---कभी नहीं।
दुर्जनों से दोस्ती
मनचलों से प्रीत
गलत से समझौता
कभी नहीं ---कभी नहीं ---कभी नहीं।
खुद पर अविश्वास
सच्चों पे शक गैरों पे हक़
कभी नहीं ---कभी नहीं --कभी नहीं...
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मन मेरा तू
कभी सुखों की आस दिखायी, कभी प्रलोभन से बहलाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर, मुझको अब तक छलता आया ।।
प्रभुता का आभास दिलाकर, सेवक जग का मुझे बनाया ।
और दुखों के परिलक्षण को, तूने सुख का द्वार बताया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर, मुझको अब तक छलता आया ।।
१...
न दैन्यं न पलायनम् पर प्रवीण पाण्डेय
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एक ग़ज़ल :
इलाही कैसा मंज़र है...
इलाही ! कैसा मंज़र है, हमें दिन रात छलता है
कहीं धरती रही प्यासी ,कहीं बादल मचलता है
कभी जब सामने उस ने कहीं इक आइना देखा
न जाने देख कर क्यूँ रास्ता अपना बदलता है...
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संवेदनहीन होना
...आजकल नहीं बदला करती तस्वीर
किसी भी क्रांति से
बेवजह भटकाए जाते हैं मुद्दे
मैंने दे दी है अंतिम आहुति राष्ट्र के हवन में
अपनी हहराती भावनाओं की...
vandana gupta
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Virendra Kumar Sharma
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क्योंकि....
विश्वविद्यालय मुझे आकर्षित करते हैं -
क्योंकि-
विश्वविद्यालय WWF अखाड़ा नहीं,
ज्ञान का समुन्दर होता है...
shikha varshney
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अभिव्यक्ति का पंचांग
कुछ इस तरह हंस-हंस कर बांच रहे हैं
पहले सेक्यूलर में दलित मिलाया अब देशद्रोह को गांठ रहे हैं
अभिव्यक्ति का पंचांग कुछ इस तरह हंस-हंस कर बांच रहे हैं
खुले आम भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का आह्वान हिला देता है
पर वह ऐसे ज़िक्र करते हैं इस का जैसे ठंड में आग ताप रहे हैं...
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प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी
सद्गुण ही पहचान बताता
जाति से कोई महान न होता
किसी भी भूमि में खिले हो
फूल खुश्बू से जग को महकाता...
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