मित्रों!
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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२०२.
चट्टान
मैं रास्ते पर पड़ा
कोई कंकड़ नहीं
कि तुम ठोकर मारो,
दूर फेंक दो मुझे
और अपने होंठों पर
विजयी मुस्कान लिए
आगे बढ़ जाओ.
मैं चट्टान हूँ,
मुझे ठोकर मारोगे तो
चोट ही खाओगे...
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'' जिनको भेजा '' नामक नवगीत ,
स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत संग्रह -
'' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -
जिनको भेजा दर्द कहेंगे ,
वे सब जा बैठे महलों में।
अपने बीच रहे खोली में ,
फ़ाके थे केवल झोली में ,
बातों में वे कान कतरते ,
काने थे अन्धी टोली में...
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रिश्ते तो रिसते रहे, बन बैठे नासूर-
रिश्ते तो रिसते रहे, बन बैठे नासूर |
स्वार्थ सिद्ध होते गए, गए दूर अति दूर |
गए दूर अति दूर, स्वयं को यूँ समझाया |
वह तो अपना फर्ज, फर्ज था खूब निभाया |
कर रविकर की बात, चुकाए अब भी किश्तें |
अश्रु अर्ध्य हर रोज, हमेशा रिसते रिश्ते ||
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आत्म-परिचय
जहाँ पर मन लग गया,
मैं उस जगह का हो गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।
बाल्यपन में पुत्र बनकर,
लड़कपन में मित्र बनकर,
और सम्बन्धों के भारी जाल मैं बुनता गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।१...
न दैन्यं न पलायनम् पर प्रवीण पाण्डेय
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चन्द माहिया : क़िस्त 28
:1:
सौ बुत में
नज़र आया इक सा लगता है
जब दिल में उतर आया
:2:
जाना है तेरे दर तक
ढूँढ रहा हूँ मैं इक राह
तेरे घर तक ...
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प्रेम-वासना-बुद्ध
सच यही है,
तुम्हें पहली बार देखते ही
जो भावनायें उठीं
उस में प्रेम और वासना दोनों थे
परन्तु एक आकर्षण
जो तुम्हारे चेहरे पर था
वो तुम्हारे भीतर के
गहरे प्रेम का आकर्षण था...
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पचपन साल
55th Wedding Anniversaryजब हम जवान थे तब एक हिन्दी फिल्म, "कल आज और कल" का ये सदाबहार गीत "जब हम होंगे साठ साल के, और तुम होगी पछ्पन की..." बहुत प्यारा लगता था. प्यारा तो आज भी लगता है, पर अब हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं. मैं हो गया हूँ 77 का और अर्धांगिनी 72 पार कर चुकी हैं. संयोग ऐसा कि आज तीस जनवरी को हमारे विवाहोत्सव की 55वीं जयन्ती है. वैवाहिक जीवन का ये लंबा सफ़र मेरी श्रीमती की कुछ शारिरिक व्याधियों के रहते बहुत सपाट तो नहीं रहा, पर बहुत ज्यादा ऊबड़ खाबड़ भी नहीं रहा है. अब हम इस मुकाम पर आ पहुंचे हैं कि एक दूसरे के बिना एक दिन भी अकेले रहना मुश्किल लगता है....
जाले पर पुरुषोत्तम पाण्डेय
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गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है
गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है...
ई. प्रदीप कुमार साहनी
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आसमान में चाँद निकला
अब उजाला चाहिए
गीतिका
प्यार में दिल को सदा दिल से मिलाना चाहिए
कुछ नहीं तुम को पिया हमसे छिपाना चाहिए ....
खिलखिलाती धूप में गुल मुस्कुराते बाग़ में
भंवरे को भी यहाँ पर गुनगुनाना चाहिए .....
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एक अन्वेषण
तुम्हारे कुशल प्रबंधन ने,
बना दिया है स्वर्ग-
और तुमने इसकी प्रशस्ति भी पाई है।
मैं स्वर्ग वासी होना नहीं चाहता।
तुम नितांत पत्नी ही बनी रहीं,
मुझे भी बनाये रखा पतिदेव।
मुझे देवत्व स्वीकार्य नहीं है...
Jayanti Prasad Sharma
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पी लेते दो घूँट, नशा छोड़ा ना जाये
आर्थिक-तंगी की वजह, गई पढाई छूट |
आर्थिक तंगी की वजह, पी लेते दो घूँट |
पी लेते दो घूँट, नशा छोड़ा ना जाये |
देते रोज उड़ाय, कमाकर जो भी लाये |
बड़ी बुरी तस्वीर, आइना देखे नंगी |
रहा नशा नहिं छूट, वाह री आर्थिक तंगी ||
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'भारत मे लोकतन्त्र का भविष्य'
-डॉ भीम राव अंबेडकर
शीर्षक से प्रकाशित डॉ भीम राव अंबेडकर के भाषण के अंश 26 जनवरी के 'हिंदुस्तान' से साभार प्रस्तुत हैं। आज के समय की राजनीति का उनका सटीक पूर्वानुमान गौर करने लायक है...
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हॉस्टल लाइफ,
ज़िंदगी जीने दो
हॉस्टल।
एक सख्त वॉर्डन।
छोटे छोटे कमरे।
कमरों में एक-दो तख्त सरीखे बिस्तर।
एक छोटी सी आलमारी।
किताबों का कोना।
घर से लाए आचार का डिब्बा।
नमकीन, मठरी,
जिन्हें खाते ही
मां की याद आ जाए...
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ब्राह्मण है एक परंतु सरनेम अलग क्यों ?
*मेरे एक मित्र ने मुझसे प्रश्न किया कि
ब्राह्मण तो एक ही है परंतु
कोई तिवारी है कोई दुबे है कोई शुक्ला पाठक चौबे आदि
अलग - अलग नाम क्यों ?
मैंने उनसे बोला की आपने सही प्रश्न किया
इसका कारण मैं लिख रहा हूँ-
ब्राम्हणो का उपनाम
अलग अलग कैसे हुआ
यह लेख पूरा पढ़े....
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कुछ अंतर्मन की और कुछ बाह्य जगत की
'सम्वेदना की नम धरा पर ' डॉ. मोनिका शर्मा जी की नज़र से कुछ अंतर्मन की और कुछ बाह्यजगत की । कवितायेँ ऐसी जो सब समेटकर सामने रख दें । साधना जी का कविता संग्रह 'संवेदना की नम धरा पर' ऐसी ही 151 रचनाएँ लिए है। जिन्हें पढ़ते हुए संवेदनशीलता लिए भाव मन में उतरते हैं । इस संकलन में 'आशा' और 'अनुनय' जैसी कवितायें मर्मस्पर्शी हैं । तो 'भारत माँ का आर्तनाद' और आत्म साक्षात्कार चेतना को उद्वेलित करने वाले भाव लिए हैं । किस भी स्त्री के लिए घर परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए कर्म से जुड़े रहना कितना कठिन है....
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