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मंगलवार, अक्टूबर 16, 2018

"सब के सब चुप हैं" (चर्चा अंक-3126)

मित्रों! 
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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किताबों की दुनिया - 199 


नीरज पर नीरज गोस्वामी 
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590.  

वर्षा  

(5 ताँका) 

डॉ. जेन्नी शबनम  
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विवशता 

एक के बाद एक  
फँसते जा रहे हैं हम  
समस्याओं के, दुर्भेद चक्रव्यूह में  
चाहते हैं, चक्रव्यूह से बाहर निकल,  
मुक्त हो जाएँ हम भी... 
Himkar Shyam  
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एक व्यंग्य :  

सबूत चाहिए --- 

विजया दशमी पर्व शुरु हो गया । भारत में, गाँव से लेकर शहर तक ,नगर से लेकर महानगर तक पंडाल सजाए जा रहे हैं ,रामलीला खेली जा रही है । हर साल राम लीला खेली जाती है , झुंड के झुंड लोग आते है रामलीला देखने।स्वर्ग से देवतागण भी देखते है रामलीला -जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की । भगवान श्री राम स्वयं सीता और लक्षमण सहित आज स्वर्ग से ही दिल्ली की रामलीला देख रहे हैं और मुस्करा रहे हैं - मंचन चल रहा है !। कोई राम बन रहा है कोई लक्ष्मण कोई सीता कोई जनक।सभी स्वांग रच रहे हैं ,जीता कोई नहीं है।स्वांग रचना आसान है ,जीना आसान नहीं। कैसे कैसे लोग आ गए ...  
आनन्द पाठक  
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लेकिन मोदी सरकार का  

सब से बड़ा घपला है  

म्युचुवल फंड घोटाला ,  

पर सब के सब चुप हैं 

सब का साथ , सब का विकास नारा
कारपोरेट का साथ ,  

कारपोरेट का विकास में  

तब्दील हो चुका है... 

Dayanand Pandey  
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कैसे-कैसे लोग साहिबे मसनद हो गए 

कैसे-कैसे लोग साहिबे मसनद हो गए,  
लोग मजहबी सब, दहशत गर्द हो गए।  
बिक जाती हैं बेटियां रोटियों खातिर,  
छाले सब रूह के बेदर्द हो गए... 
धीरेन्द्र अस्थाना 
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ब्लॉग लेखन के लिये  

मेकबुक एयर लेपटॉप को  

चुनने की प्रक्रिया 

....अब हमारा मैकबुक एयर आ जाये
फिर हम उसके अनुभव भी साझा करेंगे।
कल्पतरु पर Vivek  
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ग़ज़ल  

"मुफ़लिसी के साए में अपना सफ़र चलता रहा"  

(गुरु सहाय भटनागर 'बदनाम') 

मित्रों!
आज श्रद्धाञ्जलि के रूप में अपने अभिन्न मित्र
स्व. गुरु सहाय भटनागर 'बदनाम'
की एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ
आदमी फिर ज़िन्दगी के बोझ से मरता रहा
आदमी है आदमी को देखकर हँसता रहा

इक तरफ़ जीना था मुश्किल घर में थी मजबूरियाँ
फिर भी एक इंसान जाम-ए-मय में था ढलता रहा

इक किरन राहत की उसके दर तलक पहुँची नहीं
आदमी फिर आदमी को रोज ही छलता रहा

उसका घर फ़ाकाकशी मजबूरियों से था घिरा
कैसी किस्मत थी कि वो उरियाँ बदन चलता रहा

भूख का सौदा जिसे अस्मत लुटा करना पड़ा
बोझ मायूसी का लादे उम्र भर चलता रहा

ऐ गरीबी अब तेरा मैं कर चुका हूँ शक्रिया
मुफ़लिसी के साए में अपना सफ़र चलता रहा

ज़ुल्म की टहनी कभी सर-सब्ज़ हो पाती नहीं
दिल तो फिर बदनाम’ का दुख देखकर जलता रहा
उच्चारण पर रूपचन्द्र शास्त्री मयंक  

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत विस्तृत चर्चा ...
    आभार मेरी रचना का जगह देने के लिए आज ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन चर्चा अंक आदरणीय सभी रचनाएं श्रेष्ठ
    और भावों की अभिव्यक्ति में सक्षम है ।सभी
    रचनाकारों की लेखनी को नमन । आपका आभार
    मेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. धन्यवाद शास्त्रीजी.

    सामाजिक समस्याओं का समाधान किसी पर दोषारोपण करके नहीं हो जाता.
    अपने-आप और अपनों को बदलने से सूरत बदलती है.

    और राधा-कृष्ण प्रसंग तो जो चाहे अपने विचारों के अनुरूप ढाल लेता है.
    समझना और आदर करना बहुत दूर की बात है.

    पर बोलने का अधिकार सबको है...

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभ प्रभात आदरणीय

    बेहतरीन प्रस्तुति....

    जवाब देंहटाएं

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