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बुधवार, अक्टूबर 24, 2018

"सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134)

सुधि पाठकों!
बुधवार की चर्चा में 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

ग़ज़ल  

"सुहानी न फिर चाँदनी रात होती"  

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

--

दोहे  

"माता के दोहे" 

( राधा तिवारी "राधेगोपाल " ) 

 माता के नव रूप का ,राधा करे बखान 
माता हमको दीजिए , रिद्धि सिद्धि का दान।।

 मां की सेवा में रहे ,हम सब ही तल्लीन 
कृपा अगर हो मातु कीरहे  कोई दीन... 
RADHA TIWARI  
--

तुम कह दो...  

एस.के. गुडेसर 'अक्षम्य' 

प्रेम की नदी का जहाँ से उद्गम होता है
मेरे उस हृदय के अन्तःपुर पर -
हक़ तुम्हारा है
तू जो चाहे कर मेरे साथ
मुझे आँख मूँद कर स्वीकार है... 
yashoda Agrawal  
--

एक ग़ज़ल समआत फरमाएँ- 

जाने क्या कुछ नहीं कहा मुझको  
वो समझता है जाने क्या मुझको  
उसकी नज़रें अजब तराजू हैं  
दोनों पलड़ों में है रखा मुझको... 
--

आजाद हिन्द की टोपी पहन,  

कांग्रेस पर वार कर गए मोदी 

जिज्ञासा पर pramod joshi  
--

बकवास करना भी  

कभी एक नशा हो जाता है  

अपने लिखे को  

खुद ही पढ़ कर  

अन्दाज कहाँ आता है 

सुशील कुमार जोशी 
--

वृन्दावन ... 

लोहे के घर से एक संस्मरण 

देवेन्द्र पाण्डेय  
--

अब बदल गई पारो 

देवदास की ‘पारो’
शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास देवदास ने बॉलीवुड ही नहीं हिंदुस्तानी प्रेमियों के लिए जैसे एक चरित्र गढ़ दिया। यूं तो लैला मजनूं, सीरी फरहाद जैसे प्रेम प्रतीक जोड़ियां पहले से विद्यमान हैं। लेकिन शरतचंद्र के उपन्यास का नायक देवदास तमाम उदास और भटके हुए प्रेमियों का नायक बन जाता है। बल्कि इससे भी आगे देवदास प्रेमियों का दिल लगा मुहावरा भी है कि जैसे- अरे क्या देवदास जैसी हालत बना ली है, देवदास बने क्यों फिर रहे हो, ओ देवदास आइने में अपनी सूरत तो देखो आदि...
--

जानिए सबरीमला मंदिर  

क्यों सबकी आंखों में खटक रहा है? 

Virendra Kumar Sharma  
--

सविता भार्गव की कविताएँ 

arun dev  
--

The Karmic Principle , 

Planetry Positions  

and Impressions  

(Sanskars) 

जो ब्रह्मांडे सो पिण्डे 

Virendra Kumar Sharma 
--

गूगल मैप्स की ये ट्रिक  

आप जरुर आजमाना चाहेंगे। 

दिनेश प्रजापति 
--

प्रयागराज ' अशुद्ध प्रयोग ' है   

रमेश जोशी 

विजय राज बली माथुर 
--

देर मेरी ही तरफ़ से हुई है  

दीपावली के मुशायरे हेतु,  

क्षमा के साथ दीपावली के  

तरही मुशायरे का  

तरही मिसरा प्रस्तुत है 

पंकज सुबीर  
--

ग़ज़ल 

मुस्कुरा कर बुला गया है मुझे  
एक बच्चा रिझा गया है मुझे  
साँस में जागी संदली खुशबू 
कोई देकर सदा गया है मुझे... 
Vandana Ramasingh  
--

खुशी तो हड़बड़ी में थी  

खुशी तो हड़बड़ी में थी, 
घरी भर भी नहीं ठहरी। 
मगर गम को गजब फुरसत, 
करे वो मित्रता गहरी।। 
उदासी बन गयी दासी 
दबाये पैर मुँह बाये 
सुबह तक तो गिने तारे, 
कटे काटे न दोपहरी... 
रविकर 
--

जिसकी लाठी 

उसकी भैंस की तरह 

हुआ करते थे 
कभी चौराहों पर झगडे 
तो कभी सुलह सफाई 
वक्त की आँधी 
सब ले उड़ी 
आज बदल चुका है दृश्य ... 
vandana gupta 
--

सहज अभिव्यक्ति लिए  

सतरंगी विमर्श 

डॉ. मोनिका शर्मा  
--

हाइकू 

१. 
कलकल सी 
अविरल बहती 
धार नदी की ... 
झरोख़ा पर 
निवेदिता श्रीवास्तव 

--

रिश्तों की पाठशाला ...  

(1) 

आपको पता है न. उसने जीवन भर हमारे साथ कितना बुरा व्यवहार किया. कभी हमारी तो क्या बच्चों की शक्ल तक नहीं देखी. कभी होली दिवाली नमस्कार करने जैसा भी नहीं. फिर भी हम सब भुलाकर रिश्ता निभाते रहे.
हाँ. बात तो आपकी सही है. हमारे साथ भी उसका यही व्यवहार था.
पर उस दिन उसकी गलती थी. कितना भारी , सुख और दुख दोनों का ही समय था. एक दिन के लिए भी जिस बेटी को स्वयं से अलग नहीं किया, वह हमसे इतनी दूर जाने वाली थी. तब उसने पूरा माहौल खराब किया. आधी रात में सड़क पर हंगामा किया. नये बन रहे रिश्तों के सामने ... .
ज्ञानवाणी पर वाणी गीत  

10 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक चर्चा।
    सभी पाठकों को
    शरद पूर्णिमा की बधाई हो।

    जवाब देंहटाएं
  2. बाल्मीकि जयन्ती की शुभकामनाएं। सुन्दर चर्चा प्रस्तुति। आभार राधा जी 'उलूक' की बकबक को भी जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. स्वच्छता अभियान से लेकर पर्यावरण चेतना तक परपंरागत ऑर्गेनिक फार्मिग से स्वदेशी के आवाहन और कड़वी चीनी से छिटकने फुलझड़ियाँ छोड़ने दहकाने वाले चीनी लोगों और उनके दुनियाभर में पसरे फैले सामान से आगाह करती रचना सबरीमाला जैसी प्रायोजित कलह के आलोक में शास्त्रीजी की रचना समसामयिक सन्दर्भों का अतिक्रमण करती हुई बहुत आगे तक मार करती है। पढ़िए आप भी :
    इस दीवाली पर माटी के,
    आओ दीप जलायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    आओ स्वच्छता के नारे को,
    दुनिया में साकार करें।
    नहीं विदेशी सामानों को,
    जीवन में स्वीकार करें।
    छोड़ साज-संगीत विदेशी,
    अपने साज बजायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    कंकरीट की खेती से,
    धरती को हमें बचाना है।
    खेतों में श्रम करके हमको,
    गेहूँ-धान उगाना है।
    अपने खेतों की मेढ़ों पर,
    आओ वृक्ष लगायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    मजहब के ठेकेदारों की
    बन्द दुकानें अब कर दो।
    भारत में भाईचारे की,
    चलो भावना को भर दो।
    लालन-पालन करने वाली,
    माँ की महिमा गायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    असली घर में नकली पौधों
    का, अब कोई काम न हो।
    कुटिया में महलों में अपने
    कहीं छलकते जाम न हो।
    बन्द करो मय-खाने, अब ये
    शासन को चेतायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    देव संस्कति को अपनाओ,
    दानवता से मुँह मोड़ो।
    राम और रहमान एक हैं
    मानवता को मत छोड़ो।
    भेद-भाव, अलगाववाद का,
    वातावरण मिटायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    दीपमालिका पर दीपों से,
    जगमग कुटिया-भवन करें।
    मुसलिम पढ़ें नमाज और
    सब हिन्दु मिलकर हवन करें।
    घर-आँगन को स्वच्छ करें,
    पावन परिवेश बनायें हम।।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।
    vaahgurujio.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन ग़ज़ल कही है :

    अगर "रूप" अपना दिखाते न दिलवर
    न बिजली चमकती न बरसात होती
    veerujianand.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  5. ग़ज़ल खुद ही बोलती है इसे यूँ न संवारा करो ,
    छापने का भी एक अंदाज़ होता है ज़रा ठीक से छापा करो।
    ये क्या के पढ़ने वाले की आँखें ही चौंधियाँ जाए ,
    लफ़्ज़ों का यूँ मस्कारा कागज़ को न लगाया करो।
    ज़रा ठीक से छापा तो करो।
    मेडम जी अब इस तरह ग़ज़ल आप छापेंगी तो कमज़ोर बीनाई वाले क्या करेंगे।
    इतने बारीक लफ्ज़ और पृष्ठ भूमि बड़ी बे -तरतीब लिखा दिखाई ही नहीं देता।

    veerujichiththa,blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  6. स्वच्छता अभियान से लेकर पर्यावरण चेतना तक परपंरागत ऑर्गेनिक फार्मिग से स्वदेशी के आवाहन और कड़वी चीनी से छिटकने फुलझड़ियाँ छोड़ने दहकाने वाले चीनी लोगों और उनके दुनियाभर में पसरे फैले सामान से आगाह करती रचना सबरीमाला जैसी प्रायोजित कलह के आलोक में शास्त्रीजी की रचना समसामयिक सन्दर्भों का अतिक्रमण करती हुई बहुत आगे तक मार करती है। पढ़िए आप भी :
    इस दीवाली पर माटी के,
    आओ दीप जलायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    आओ स्वच्छता के नारे को,
    दुनिया में साकार करें।
    नहीं विदेशी सामानों को,
    जीवन में स्वीकार करें।
    छोड़ साज-संगीत विदेशी,
    अपने साज बजायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    कंकरीट की खेती से,
    धरती को हमें बचाना है।
    खेतों में श्रम करके हमको,
    गेहूँ-धान उगाना है।
    अपने खेतों की मेढ़ों पर,
    आओ वृक्ष लगायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    मजहब के ठेकेदारों की
    बन्द दुकानें अब कर दो।
    भारत में भाईचारे की,
    चलो भावना को भर दो।
    लालन-पालन करने वाली,
    माँ की महिमा गायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    असली घर में नकली पौधों
    का, अब कोई काम न हो।
    कुटिया में महलों में अपने
    कहीं छलकते जाम न हो।
    बन्द करो मय-खाने, अब ये
    शासन को चेतायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    देव संस्कति को अपनाओ,
    दानवता से मुँह मोड़ो।
    राम और रहमान एक हैं
    मानवता को मत छोड़ो।
    भेद-भाव, अलगाववाद का,
    वातावरण मिटायें हम।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।

    दीपमालिका पर दीपों से,
    जगमग कुटिया-भवन करें।
    मुसलिम पढ़ें नमाज और
    सब हिन्दु मिलकर हवन करें।
    घर-आँगन को स्वच्छ करें,
    पावन परिवेश बनायें हम।।
    चीनी लड़ियाँ-झालर अपने,
    घर में कभी न लायें हम।।
    बेहतरीन ग़ज़ल कही है :

    अगर "रूप" अपना दिखाते न दिलवर
    न बिजली चमकती न बरसात होती
    ग़ज़ल खुद ही बोलती है इसे यूँ न संवारा करो ,
    छापने का भी एक अंदाज़ होता है ज़रा ठीक से छापा करो।
    ये क्या के पढ़ने वाले की आँखें ही चौंधियाँ जाए ,
    लफ़्ज़ों का यूँ मस्कारा कागज़ को न लगाया करो।
    ज़रा ठीक से छापा तो करो।
    मेडम जी अब इस तरह ग़ज़ल आप छापेंगी तो कमज़ोर बीनाई वाले क्या करेंगे।
    इतने बारीक लफ्ज़ और पृष्ठ भूमि बड़ी बे -तरतीब लिखा दिखाई ही नहीं देता।

    veerujichiththa,blogspot.com

    जाने क्या कुछ नहीं कहा मुझको

    वो समझता है जाने क्या मुझको

    उसकी नज़रें अजब तराजू हैं
    दोनों पलड़ों में है रखा मुझको

    हर मरज की दवा थी जिसके पास
    दे गया दर्द का पता मुझको

    यक ब यक आज मेरा साया ही
    धूप में छोड़ चल दिया मुझको

    हर किसी से उलझती रहती हूं
    इन दिनों जाने क्या हुआ मुझको

    मैँ "किरण" तीरग़ी की ख़्वाहिश हूं
    आज ही ये पता चला मुझको

    ©-कविता "किरण"

    जवाब देंहटाएं
  7. ग़ज़ल खुद ही बोलती है इसे यूँ न संवारा करो ,
    छापने का भी एक अंदाज़ होता है ज़रा ठीक से छापा करो।
    ये क्या के पढ़ने वाले की आँखें ही चौंधियाँ जाए ,
    लफ़्ज़ों का यूँ मस्कारा कागज़ को न लगाया करो।
    ज़रा ठीक से छापा तो करो।
    मेडम जी अब इस तरह ग़ज़ल आप छापेंगी तो कमज़ोर बीनाई वाले क्या करेंगे।
    इतने बारीक लफ्ज़ और पृष्ठ भूमि बड़ी बे -तरतीब लिखा दिखाई ही नहीं देता।

    veerujichiththa,blogspot.com

    जाने क्या कुछ नहीं कहा मुझको

    वो समझता है जाने क्या मुझको

    उसकी नज़रें अजब तराजू हैं
    दोनों पलड़ों में है रखा मुझको

    हर मरज की दवा थी जिसके पास
    दे गया दर्द का पता मुझको

    यक ब यक आज मेरा साया ही
    धूप में छोड़ चल दिया मुझको

    हर किसी से उलझती रहती हूं
    इन दिनों जाने क्या हुआ मुझको

    मैँ "किरण" तीरग़ी की ख़्वाहिश हूं
    आज ही ये पता चला मुझको

    ©-कविता "किरण"

    जवाब देंहटाएं
  8. होती है आखीर में सच्चाई की जीत।
    धर्म सिखाता है यही, हो आपस में प्रीत।।
    होती है आखिर सच्चाई की जीत ,
    धर्म सिखाता है प्रीत की रीत। बढ़िया दोहावली राधे जी की
    वीरुभाई
    veerubhai05.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं

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