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सोमवार, नवंबर 30, 2020
'मन तुम 'बुद्ध' हो जाना'(चर्चा अंक-3901)
सुनो मन -
ठीक इसके पहले
तुम निबंधित हो
ले चलना मुझे
देह से परे की डगर
अकंपित, निर्विघ्न
समाहित कर खुद में
मेरा सारा स्वरूप
मन तुम 'बुद्ध' हो जाना !!
गुरू पूर्णिमा पर्व पर, खुद को करो पवित्र।
रविवार, नवंबर 29, 2020
"असम्भव कुछ भी नहीं" (चर्चा अंक-3900)
मित्रों।
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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कोरोना की बढ़ती रफ्तार के कारण मेरा सभी पाठकों से निवेदन है कि कार्तिक पूर्णिमा अर्थात् गंगा स्नान के पर्व पर आप लोग अपने घरों में स्नान करें।
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दोहे "खास हो रहे मस्त" एकल कवितापाठ का, अपना ही आनन्द।
उच्चारण
एकल कवितापाठ का, अपना ही आनन्द।
रोज़ गोष्ठी को करो, करके कमरा बन्द।।
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कोरोना के काल में, मजे लूटता खास।
मँहगाई की मार से, होता आम उदास।।
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उच्चारण --
एक गीत : मेरी देहरी को ठुकरा कर जब
मेरी देहरी को ठुकरा कर जब जाना है
फिर बोलो वन्दनवार सजा कर क्या होगा ?
आँखों के नेह निमन्त्रण की प्रत्याशा में
आँचल के शीतल छाँवों की अभिलाषा में
हर बार गईं ठुकराई मेरी मनुहारें-
हर बार ज़िन्दगी कटी शर्त की भाषा में
जब अँधियारों की ही केवल सुनवाई हो
फिर ज्योति-पुंज की बात चला कर क्या होगा ?
आनन्द पाठक, आपका ब्लॉग
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चलिए कुछ विचार करते हैं
कुछ विचार करते हैं मिल-बैठकर, समर्थन चाहिए!अगर ये ऐसे नहीं मरते हैं इन्हें मिलकर मारते हैं ठंड का साथ है कोरोना का हाथ कुछ तो करते है।
अनीता सैनी, गूँगी गुड़िया
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- आओ दिल को चुप रहने की कहें
- हो सके तो तुम भूल जाना उन्हेंसपनों में ख़ुदा माना था जिन्हें ।जिधर से आई है ये रेत ग़म कीउधर जाने की कौन कहे तुम्हें ।
दिलबागसिंह विर्क, Sahitya Surbhi
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...दूल्हे ने बात को रोकते हुए सवाल किया - "फेरे हो गए..
आपकी बेटी की जिम्मेदारी किसकी …?" और पंडित की तरफ देखते हुए कहा - "बहुत देर हो गई.. जल्दी कीजिए । आगे भी जाना है ..भोर होने वाली है।"
पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ ही मानो
पूर्व की लालिमा ने घर के आंगन में सुनहली भोर के
आगमन की दस्तक दे दी थी ।
आगमन की दस्तक दे दी थी ।
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"सोना" हाँ ,यही नाम था घुंघट में लिपटी उस दुबली पतली काया का। जैसा नाम वैसा ही रूप और गुण भी। कर्म तो लौहखंड की तरह अटल था बस तक़दीर ही ख़राब थी बेचारी की। आज भी वो दिन मुझे अच्छे से याद है जब वो पहली बार हमारे घर काम करने आई थी। हाँ ,वो एक काम करने वाली बाई थी। पहली नज़र मे देख कर कोई उन्हें काम वाली कह ही नहीं सकता था। कोई उन्हें कामवाली की नज़र से देखता भी नहीं था वो तो सबके घर के एक सदस्य जैसी थी। बच्चे बूढ़े सब उन्हें सोना ही बुलाते थे बस हम भाई बहन उन्हें प्यार से ताई या अम्मा कह के बुलाते थे। प्यार और इज्जत तो सब उनकी करते थे पर हमारे परिवार को उनसे और उन्हें हम सब से एक अलग ही लगाव था।
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यही चाहता मन है
ऊपर नील गगन है
सच्चे साथी की खोज में
धुँआ - धुँआ सा मन है।
Dr.NISHA MAHARANA, My Expression
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- मैं अपनी कश्ती पार लाकर,
- समुंदरों को दिखा रहा हूँ।
- जीवन के ये गीत रचे जो,
- मज़लूमों को सुना रहा हूँ।
Ravindra Singh Yadav, हिन्दी-आभा*भारत
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नीला फूल
आँगन में एक फूल खिला जो
जंगल से अस्वीकारा गया
है रंग रूप इतना सजीला
मन को मोह रहा |
रंग नीला है उसका आसमान सा
प्याले सा दिखाई देता है
लगता है चाय छान लूं उसमें
अधरों से लगालूँ उसको
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मास्क
मास्क लगा है,
पर तुम बोल सकते हो,
बोलना मत छोड़ो,
जब तक कि तुम्हें
पूरी तरह चुप न करा दिया जाय.
Onkar, कविताएँ
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सांझ, नदी सा बह रही है
इन सब से बेखबर
फाख्ता चिड़िया
अपने चिड़े के डैनो में चोंच घुसा के
आँखे बंद कर ली है
रोशन दान के घोसले में
कबूतरी - कबूतर के साथ गुंटूर - गुं कर के
बगलबीर हो के सो चुकी है
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दूषित स्पर्श (बाल मन पे आघात)
चित्र -साभार गूगल
माँऽऽऽऽऽ !! फिर छू कर चला गया कोई, अभी अभी
बिल्कुल अभी अभी, अरेऽऽऽऽ !! कहा न, अभी अभी
बार बार क्यूँ पूछ रही हो ? ऐसी बात
जो घायल कर रहे मेरे ज़ज्बात
उफ्फ्फ ! आज लाडली को फिर छू गया कोई
गहरेऽऽ, अनंत गहरे, घाव फिर दे गया कोई
Jigyasa Singh, जिज्ञासा की जिज्ञासा
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बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये (डॉ. उर्मिलेश) भूलकर भी न बीती भूल बाँटिये
सत्ता हेतु राम न रसूल बाँटिये
भारत की धरती न धूल बाँटिये
भेदभाव भरे न उसूल बाँटिये
एकता की नदी के न कूल बाँटिये
प्रेम नाव के ना मस्तूल बाँटिये
लाठी-तलवार न त्रिशूल बाँटिये
बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये
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जन्मदिन- एक शुभकामना
स्निग्ध छटा सी, स्वप्निल!
मने निरंतर, जन्म-दिवस यह,
स्वप्न सरीखी स्नेहिल!
उम्र चढ़े, आयुष बढ़े,
खुशी की, इक छाँव, घनेरी हो हासिल,
मान बढ़े, नित् सम्मान बढ़े,
धन-धान्य बढ़े, आप शतायु बनें,
आए ना मुश्किल!
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा, कविता "जीवन कलश"
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असंभव कुछ भी नहीं खो जाते हैं बहुत कुछ सुबह से रात,
खो गए न जाने कितने जकड़े
हुए हाथ, गुम हो जाते हैं
अनेकों प्रथम प्रेम
में टूटे हुए मन,
छूट जाते
हैं न
जाने कितने ही आपन जन, फिर -
भी ज़िन्दगी रूकती नहीं,
खो गए न जाने कितने जकड़े
हुए हाथ, गुम हो जाते हैं
अनेकों प्रथम प्रेम
में टूटे हुए मन,
छूट जाते
हैं न
जाने कितने ही आपन जन, फिर -
भी ज़िन्दगी रूकती नहीं,
शांतनु सान्याल, अग्निशिखा :
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प्रख्यात साहित्यकार डॉ हरिवंश राय बच्चन का पत्र । यह पत्र उन्होंने मुझे 1 मई 1985 को लिखा था
Dr.Manoj Rastogi, साहित्यिक मुरादाबाद
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अब मैं वह दिल की धड़कन कहाँ से लाऊंगा
तू अक्सर मिली मुझे छत के एक कोने में
चटाई या फिर कुर्सी में बैठी
बडे़ आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
तेरे हुक्के की गुड़गुड़ाहट सुन
मैं दबे पांव सीढ़ियां चढ़कर
तुझे चौंकाने तेरे पास पहुंचना चाहता
उससे पहले ही तू उल्टा मुझे छक्का देती
Kavita Rawat, KAVITA RAWAT
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आज के लिए बस इतना ही...।
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