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सोमवार, अक्टूबर 31, 2022

'मुझे नहीं बनना आदमी'(चर्चा अंक-4597)

सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व पद्यांश आदरणीय ओंकार जी की कविता 'मुझे नहीं बनना आदमी' से -

मैं पानी बनना चाहता हूँ

ताकि सूखे होंठों की प्यास बुझा सकूं,

मैं रोटी बनना चाहता हूँ

ताकि पिचके पेटों की भूख मिटा सकूं. 


आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ- 

--

उच्चारण: दोहे "छठ-माँ का त्यौहार" 

उगते-ढलते सूर्य की,  उपासना का पर्व।।
भारतवासी कर रहेछठ-पूजा पर गर्व।१।
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मौसम के बदलाव सेशीतल हुआ समीर।
छठ-पूजा पर आ गये, लोग सरोवर तीर।२।
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अनहोनी होकर रहती है
टाले-टाले कहीं टली
आशंकाएँ जाल बिछाती
खुशियाँ जाती सदा छली।
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कुम्हार के 
चाक पर
मिट्टी से गढ़े
छोटे-छोटे दिये
कुटिया के
आले में 
ध्यानमग्न रहते
अंधेरा कम करते
साधनारत रहते ।
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एक पग कर्म चले 
एक पग धर्म चले

मृत्यु के समक्ष देख
पग पग जन्म चले
--

मैं पानी बनना चाहता हूँ

ताकि सूखे होंठों की प्यास बुझा सकूं,

मैं रोटी बनना चाहता हूँ

ताकि पिचके पेटों की भूख मिटा सकूं. 

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अग्निशिखा :: अक़ीदत - -

उथले साहिल से यूँ मझधार का ठिकाना पूछते हो,
काश, रूह की गहराइयों में, कभी उतर कर देखते,

न जाने किस आस में रुका रहा अध खिला गुलाब,
रूबरू चश्मे आईना, कुछ देर ज़रा ठहर कर देखते,
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जब नींद न आए
आधी रात तक जागरण हो
बहुत कोशिश के बाद भी
 मन स्थिर न  रहे |
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सोचती हूं 
खोल दूं बचपन की कॉपियां और निकाल दूं 
सब कुछ जो छुपाती रही 
समय और समय की नजाकत के डर से 
निकालूँ वह इंद्रधनुष और निहारूं उसे 
जो निकलता था 
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'गरीबी में डॉक्टरी' और 'होंठों पर तैरती मुस्कान' कहानी संग्रह के प्रकाशन के बाद शब्द.इन मंच के 'पुस्तक लेखन प्रतियोगिता' में मेरी यह पुस्‍तक भूली-बिसरी यादों के पिटारे के रूप में प्रस्तुत किया है। जहाँ मैंने इस पुस्तक में अपने दैनन्दिनी जीवन के हर पहलू के जिए हुए खट्टे-मीठे पलों को उसी रूप में पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है।
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अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत समेटे राजस्थान कई सदियों से अपनी वीरता, शौर्य, पराक्रम, भक्ति और सौदर्य के लिए दुनियाभर में विख्यात रहा है। रियासतकालीन शहरों और यहां की विरासत को निहारने आज भी देसी-विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है। लेकिन सप्ताह भर से मरुधरा की अलग ही तस्वीर मीडिया रिपोर्ट्स में पेश की जा रही है। इन रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि कई इलाकों में आज भी यहां लड़कियों की नीलामी होती हैं। 
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आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

रविवार, अक्टूबर 30, 2022

'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-4596)

सादर अभिवादन। 

रविवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व पद्यांश आदरणीया कल्पना मनोरमा जी के ब्लॉग कस्तूरिया से -

भोर का बालपन
घुटनों के बल चलकर आया था
उस रोज़ मेरी दहलीज़ पर
गोखों से झाँकतीं रश्मियाँ
ममता की फूटती कोंपलें
उसकने लगी थीं मेरी हथेली पर
बदलाव की उस घड़ी में
छुप गया था चाँदबादलों की ओट में
सांसें ठहर गई थीं हवा की
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई। 

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ- 

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उच्चारण: दोहे "छठ माँ का त्यौहार"

भारत में अब हो गयाछठ माँ का उद्घोष।
लोगों का त्यौहार मेंरहे न खाली कोष।।
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उगते ढलते सूर्य काछठपूजा त्यौहार।
जन गण-मन में मात हैं, श्रद्धा का आधार।।
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इससे परे _ 
यदि तुम अपनी जगह सही हो
पर बातों, चीजों को 
तुम ही सही करना चाहते हो 
_ तब तुम्हें कृष्ण से सीखना होगा
 पांच ग्राम जैसा प्रस्ताव ही सही होगा
अर्थात बीच का वह मार्ग,
जिसमें सम्मानित समझौता हो,
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कितना भी हो 

पीढ़ियों का अंतर 

उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है 

क्या कहें, कितना कहें 

यह ज्ञान नहीं होता 

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कविता "जीवन कलश": मैं चाहूँ 

मैं चाहूँ....

ह्रदय पर तेरे, कोई प्रीत न हो अंकित,
कहीं, मेरे सिवा,
और, कोई गीत न हो अंकित!
बस, सुनती रहो तुम,
और मैं गांऊँ!
--
ममता की फूटती कोंपलें
उसकने लगी थीं मेरी हथेली पर
बदलाव की उस घड़ी में
छुप गया था चाँदबादलों की ओट में
सांसें ठहर गई थीं हवा की
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई।
--
सपने आते हैं जैसे
उकेरती हैं उँगलियाँ गीली माटी में
रूहानी सी लकीरें .
गीला मन माटी सा  .
सपने उस पर लिख देते हैं .
एक और गीत
उम्मीद का , इन्तज़ार का .
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अदावत भी  है और मोहब्बत भी 
ज़िन्दगी  दर्द भी है  खूबसूरत भी। 

शबे-रोज  पढ़ता हूँ  तुम्हारी आँखें 
ये शरारत भी है और मोहब्बत भी। 
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वोट सगा है इनका
वादे इनके झूठे
निर्धन देखें सपने
देव रहें बस रूठे
भूखों की बस्ती में
ट्रक शराब उड़ेली।
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जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ मानी जाती हैं वैसे ही बैलों में नंदी को श्रेष्ठ माना गया है। आम तौर पर बल और शक्ति के प्रतीक, शांत और खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला माना जाता है। पर मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला यह प्राणी जब क्रोधित होता है तो शेर से भिड़ने में भी नहीं कतराता ! शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का साक्षात प्रतीक है...........!
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आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

शनिवार, अक्टूबर 29, 2022

"अज्ञान के तम को भगाओ" (चर्चा अंक-4595)

 मित्रों!

शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।

कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
 

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गीत "दीप मन्दिर में जलाओ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

निलय से अज्ञान के तम को भगाओ।

ज्ञान का इक दीप मन्दिर में जलाओ।।

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मन स्वदेशी हैस्वदेशी खाद-पानी चाहिए,

नीर में सरिताओं के अविरल रवानी चाहिए,

नौजवानों में समन्दर सी जवानी चाहिए,

बंजर धरा को उर्वरा फिर से बनाओ।

ज्ञान का इक दीप मन्दिर में जलाओ।। 

उच्चारण 

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कथा भाई-दौज की - भाई बहिन के अटूट प्रेम की गाथा बचपन में भाई दौज की सुबह से ही हमें याद करा दिया जाता था कि दौज की कहानी सुने बिना और भाई को टीका किए बिना पानी भी नही पीना है । जब हम नहा-धोकर तैयार होजातीं तब दादी या नानी तुलसी के चौरा के पास आसन डाल कर ,घी का दिया जलाकर हमारे हाथ में घी-गुड़ देकर दौज की कहानी शुरु करतीं थीं । 

Yeh Mera Jahaan गिरिजा कुलश्रेष्ठ

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मेरे मन का संयम 

मेरी चाहत है खोलो मन की ग्रंथियां

मन को भरम से दूर करो

फिर देखो सोचो समझो

मन को ज़रा सा सुकून दो |

तभी जीवन की उलझने

पूरी तरह  सुलझ पाएंगी 

Akanksha -asha.blog spot.com 

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नोटों पर लक्ष्मी-गणेश का सुझाव 

इंडोनेशिया का करेंसी नोट

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।

जिज्ञासा 

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बेरोज़गारी यह बीजेपी वाले खुद तो ढंग से लोगों को रोज़गार दे नहीं पा रहे हैं और जो लोग इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, उनकी आलोचना करते रहते हैं। अब देखिये न, इस निराशा के चलते एक पार्टी के सैकड़ों लोग केवल एक आदमी को रोज़गार दिलाने के लिए उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा तक गली-गली में पैदल चल कर अपने पाँव रगड़ रहे हैं। इसी तरह एक और पार्टी के कर्ता-धर्ता अपनी पुरानी रोज़ी-रोटी छिन जाने के डर से नया रोज़गार पाने के लिए गुजरात की ख़ाक छान रहे हैं। इन्हें रोज़गार मिलेगा या नहीं, यह तो ईश्वर ही जाने, किन्तु बेचारे कोशिश तो कर ही रहे हैं न! इनकी मदद न करें तो न सही, धिक्कारें तो नहीं😏

गजेन्द्र भट्ट हृदयेश 

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ग़ज़ल समझना ही न चाहो तुम-- 

समझना ही न चाहो तुम, कहाँ तक तुमको समझाते

हम अपनी बेगुनाही की कसम कितनी भला खाते

तुम्हे फ़ुरसत नहीं मिलती कभी ख़ुद की नुमाइश से

हक़ीक़त सब समझते हैं ज़रा तुम भी समझ जाते 

गीत ग़ज़ल और माहिया आनन्द पाठक

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शत-शत वन्दन- 

शत-शत वन्दन प्रभु हे,चित्रगुप्त त्राता, विधि के मानस-पुत्र, कर्मगति निर्णायक, अवधपुरी में प्रकट धर्महरि विख्याता! 
शिप्रा की लहरें प्रतिभा सक्सेना 

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मुस्कान 

पिछले दिनों हमने एक गायत्री हवन करवाया था। प्रसाद में खीर बननी थी। तय हुआ कि खीर के साथ एक-एक केला दिया जाय और एक-एक छोटा वाला गुलाब-जामुन भी खीर में डाल दिया जाय। एक रोज पहले शाम को हम मित्र राजेश के साथ दो-तीन मिठाई-दुकानों पर गये, पर सबने यही कहा कि एकाध घण्टे पहले बोलने से काम बन जाता- यानि 100 नग छोटे गुलाब-जामुन बनाने लायक खोआ (मावा) वे मँगवा लेते। अब नहीं हो सकता। 

कभी-कभार जयदीप शेखर

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न जन्नत देखा, न जहन्नुम देखा, जो कुछ देखा, यहीं देखा 

तमाम ग़ज़लों में अपने समय का समाज, आम आदमी की अजीयतें, प्रेम का पलायन ,अभावग्रस्त जीवन का संघर्ष, अव्यवस्था, महंगाई, शोषण से अभिशप्त जीवन जीने की बाध्यता को लेकर आए। साथ ही दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की जो रहनुमाई की उसका अनुकरण करते हुए आगे की पीढ़ियां नए परिदृश्य रचने के लिए, बदलाव के बयार को लाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं -
    "दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
     और कुछ हो या ना हो आकाश-सी छाती तो है"।
निधि सिंह की ग़ज़लों में यही आश्वासन नज़र आता है -
     " बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए 
       कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं।" 

लिखो यहां वहां भारती सिंह

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नई तस्वीरें , नई ग़ज़ल  दोस्तों! कुछ तस्वीरों के साथ आनंद लीजिए मेरी एक नई ग़ज़ल का :बैठता  है  दिल  घुटन  से  क्या  करें, अश्रु  झरते  हैं  नयन  से  क्या  करें।   आप    ही   बतलाइए   मुँह-ज़ोर  ये, बात हम-से कम-सुख़न  से क्या करें। ©️ओंकार सिंह विवेक 


मेरा सृजन 

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इलू डॉक्टर  लू के सन्देश संग,सबकी मांगे खैरसबसे राखे दोस्तीनहीं किसी से बैर’ मेरे दोस्त ! मेरे सबसे प्रिय छात्र और बहुत से विषयों में मेरे गुरु ! मेरे बड़े भाई ! खुश रहोआबाद रहोस्वस्थ रहो !मस्त रहो ! हम सबको तुम्हारीतुम्हारे प्यार की और तुम्हारे मार्ग दर्शन की, आज भी ज़रुरत है. 'लू', डॉक्टर पांडे ! 

तिरछी नज़र गोपेश मोहन जैसवाल

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बाघ एक रात - रवि बुले  बॉलीवुड स्टोरी बॉक्स 

कहानी 

वह एक लेखक था जो टीवी धारवाहिकों  के लिए लिखा करता था। वह अपने घर में अकेला रहता था और एक अजीब डर से पीड़ित था। उसका सबसे बड़ा डर यह था कि वह अकेले कमरें में बंद है और बाघ आ जाये। 

जब भी उसके घर में बिजली जाती उसे लगता उसे फ्लैट के बाहरी कमरे में एक बाघ है जो उसका शिकार करने के लिए तत्पर है। 

एक बुक जर्नल 

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आज के लिए बस इतना ही...!

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