सादर अभिवादन!
सोमवार की प्रस्तुति में
आपका हार्दिक स्वागत है।
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दोहे
"अहोई अष्टमी-माताओं की आस"
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"एक रिश्ता ऐसा भी" -गतांक से आगे
वसुधा के टैक्सी से उतरते ही आकाश आगे बढ़ा और टैक्सी ड्राइवर को पैसे देने लगा, वसुधा ने रोकना चाहा मगर अभी आकाश ने जो उस पर अपना अधिकार जताया है उसे देख वो कुछ बोल नहीं सकी। बिना किसी औपचारिकता के वो दोनों कॉफ़ी हाउस के अन्दर चलें गये।ऐसा लगा ही नहीं कि वो दोनों इतने अरसे बाद एक दूसरे को देख रहे हैं। "तुम क्या लोगी" - आकाश ने बड़ी बेतकल्लुफी से पूछा
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दंभ दामिनी खुद कपटी थे, क्या समझो तुम! निश्छलता क्या होती है। तेरी हर खुदगर्जी पर, बस टीस-सी दिल में होती है। मेरी हर बातों में तुमको, केवल व्यंग्य झलकता है। विश्वमोहन उवाच
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चल कहीं दूर चलें साथी
गम से दूर रहें साथी
व्योम चौक में उतरा चंदा
तारे बैठ गिने साथी
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पलंग डालकर लेटे बाबा
शीतल ठंडी छाँव नीम की ।
गाल फुलाते , हिलती तोंद
ज़ोर-ज़ोर साँसें लेते वो
डरकर हम सारे भग जाते
सुनकर खर्राटे की खों-खों
रहते हृष्ट पुष्ट वो हरदम
नहीं जरूरत है हकीम की ॥
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भाव और भाषा के उत्कृष्ट स्तर पर ले जाती एक रचना
सूर्यकुमार त्रिपाठी निराला के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जीवन भर मुक्त हंसी से विपन्न, शोषित और पीड़ित मानवता के लिए वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे और स्वयं अकिचन बने रहे, किंतु उनकी स्वयं की पीड़ा वैसी थी जिसमें साधारण मानव रोने बिलखने और कराहने लगे, पर उन्होंने पीड़ा से जूझते हुए उपफ तक नहीं किया। उनकी पीड़ा वस्तुतः संगीत का रूप धारण कर चुकी थी और इसी का परिणाम है- राम की शक्ति पूजा | बांग्ला के कृतिवास रामायण पर आधारित 1936 में 'भारत' नामक दैनिक पत्र में प्रकाशित 312 पंक्तियों की यह विराट कविता भाव और भाषा के उत्कृष्ट स्तर पर पहुंचती है। एक नजर डाल रही है निहारिका गौड़...
'राम की शक्ति पूजा'
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नज़रें हटे नहीं जरा भी लक्ष्य से ।
इमेज गूगल साभार |
हर क्षमता और हर दक्ष से ,
जब तक सधे नहीं एक टक से,
नज़रें हटे नहीं जरा भी लक्ष्य से ।
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पहाड़ी ओहदों की बस्ती में जिंदगी का अहसास..
सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं, रहना तो दूर की बात होती. मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था.
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कितनी बार सोचा समझा
कुछ सीखने की कोशिश की
पर मन पर नियंत्रण न रहा
हर बात में उत्श्रंखल हुआ |
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खुली खिड़की से
चाँद मुस्कराता
नज़र आया
खुल गई भूली बिसरी
यादो की पिटारी..
कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se **
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तमाम रंजिशे चलती रहती हैं | विद्रोह करते चलते हैं | "क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज प्रतिशोध लेना चाहा ?" जयशंकर प्रसाद की यह पंक्तियां कई बार बराबर से निकल जाती हैं ... तो कई बार बस अब ख़त्म ... भयानक आंधी से निबटने को कहाँ कोई तैयारी है/ होती है पर खुर्राट चुस्त बना दिए गए इन आधारों के बदौलत | तनिक देर सुस्ताने को मिलना भी जब रस्साकशी में बदले तो भी इसे व्यर्थ नहीं समझ कर क्षमा कर देना उचित है Sunehra Ehsaas--
आज के सिए बस इतना ही...!
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बहुत सुंदर चर्चा
जवाब देंहटाएंसुप्रभात !
जवाब देंहटाएंपठनीय सूत्रों से परिपूर्ण उत्कृष्ट चर्चा प्रस्तुति।
सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
सुप्रभात !
जवाब देंहटाएंविविधताओं से परिपूर्ण सुन्दर सूत्रों से सजी अति सुन्दर चर्चा प्रस्तुति । मेरे सृजन को प्रस्तुति में सम्मिलित करने के लिए सादर आभार ।
बहुत सुन्दर लिक्ससे सजा आज का चर्चा मंच |मेरी रचना को आज स्थान देने के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंपठनीय रचनाओं के लिंक्स का सुंदर संयोजन!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिंक्स
जवाब देंहटाएंआदरणीय मयंक सर ,
जवाब देंहटाएंमेरी प्रविष्टि् के लिंक "नजरें हटे नहीं कर भी लक्ष्य से " की चर्चा आज के अंक में सम्मिलित करने के लिए बहुत धन्यवाद एवं आभार ।
सभी संकलित रचनाएं बहुत ही उम्दा है , सभी आदरणीय को बहुत शुभकामनाएं एवं बधाइयां ।
सादर ।
बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति
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