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सोमवार, अक्तूबर 03, 2022

'तुम ही मेरी हँसी हो'(चर्चा-अंक-4571)

सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व पद्यांश आदरणीया अमृता तन्मय जी की कविता 'मुझमें लीन हो तुम.'से -

मैं तुझमें तन्मय
और मुझमें लीन हो तुम
तब तो महक रही हूँ मैं
जैसे अगरू, धूमी, कुंकुम 
जैसे बौर, कोंपल, कुसुम 
तब तो चहक रही हूँ मैं 
वह सब कह कर
कहने की जो बात नहीं
इन टूटे-फूटे वर्णों से छू कर
क्या तुम्हें ही कहती हूँ
ये तो मुझको ज्ञात नहीं 


आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ- 

--

उच्चारण: गीत "महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री को नमन" 

भाले-बरछीतोप-तमञ्चेहथियारों को छोड़ दिया,
देश-भक्ति के नारों सेजनता का मानस जोड़ दिया,
स्वतन्त्रता का मन्त्र अनोखातुमने ही तो बतलाया।
सारे जग से न्यारा गांधीसबका बापू कहलाया।।-
--
माँ!
तेरा यह रूप
जो मैं देख रही हूँ
न जाने कैसे
क्या मैं लेख रही हूँ
जबकि पता है 
अलेख को ही
परिलेख रही हूँ
--
तेरे आने की खबर ले के हवा आती  है 
तेरे रुखसार पे अलकों सी घटा छाती है 
तेरे उस नूर का हर पल मैं यूँ दीदार करूँ 
इसी हसरत में यूँ ही शाम ओ सहर जीता हूँ 
--
 एक हाथ में लाठी ठक-ठक,
और एक में,
सत्यअहिंसा तथा धर्म का,
टूटा-फूटालिए कटोरा.  
धोती फटी सी, लटी दुपटी,
--
 कभी सोचा नहीं था ऐसा कि जो,
अति सक्रिय थे समाज मे कलतक,
जरूरत आने पर, आज छुपे हुए होंगे,
--

समाज सभ्य हुआ 
सुसंस्कृत होने की प्रवृत्ति का 
सतत क्षय हुआ
--
अद्भुत करनी, सब जग भरनी
वह मातु कालिका जगदम्बा !
रक्षा करती , अभय करती
देवो की रक्षा को दुःख सहती !
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बापू से और शास्त्री जी से
हमने पूछे अनगिनत सवाल ।
मंडवा कर चित्र आदमकद
सादर दिया खूंटी पर टांग ।
--
साँझ हुई माँ लाई दाना
प्रत्याशा में शावक चहके
पूरे दिन से करें प्रतीक्षा 
पेट क्षुधा पावक बन दहके।
--

उन बड़े-बड़े बर्तनों को माँ के द्वारा नीबू की दम पर चमका देना, चमकते बर्तनों की अंदरूनी ख़ुशी देख-देख बच्चों के मुँह में लड्डू फूटना, पेड़ेबेसन की बर्फी और जलेबी का स्वाद आ जाना कितना अबोध और ऊर्जावान एहसास होता था।सत्तर-अस्सी सन वाले बचपन में ये दिन शॉपिंग के नहीं, बसावट के होते थे, मनमुटाव खत्म कर अपने व्यवहार को लचीला और सुहृदय बनाने के होते थे। तब के बच्चों को चूना की झक्क-मक्क दीवारों वाला अपना घर स्वर्ग से भी सुंदर लगता था। एक कोने में दही मथती माँ यशोदा से कम कभी नहीं लगी। माँ के तन की खुशबू आहा! दुनिया की सबसे मँहगी सुगंध से भी बढ़कर लगती थी। आदिम गंध का दीवाना बचपन निर्लिप्त और अनोखा होता था। जिसे सिर्फ स्नेह और दुलार की आकांक्षा के अलावा कुछ चाहिए, का होश ही नहीं होता था

--
आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक चर्चा।
    आपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सखी सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. चुनिंदा ब्लॉग की सुंदर प्रस्तुति।
    सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. विविधरंगी प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आभार। आप सबों को नवरात्रि की भी हार्दिक शुभकामनाएँ। माँ सब पर दया दृष्टि करे। सबों के अधरों पर हँसी खिलाये। आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की चर्चा विशेष रही । इसका हिस्सा बनाने के लिए आपका हार्दिक आभार, अनीता जी । दीवार पर लगे हाथ के थापों की तरह ,अमिट छाप छोड़ गई कुछ रचनाएँ । सादर अभिनन्दन आप सबका । माँ दुर्गा सारे क्लेश हरें । नमस्ते ।

    जवाब देंहटाएं

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