Followers



Search This Blog

Tuesday, November 22, 2022

"कोई अब न रहे उदास"(चर्चा अंक-4618)

सादर अभिवादन 

आज की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है 

शीर्षक और भूमिका आदरणीया अभिलाषा चौहान जी की रचना से 

उच्च श्रृंग करता आकर्षित

देता यही नित संदेश

बाधाओं को चीर बढ़ो अब

बदलेगा तभी परिवेश

चलते हैं आज की कुछ खास रचनाओं की ओर....

---------------------------------- 

ग़ज़ल "पहाड़ों के मचानों पर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


बनाये नीड़ हैं हमने, पहाड़ों के मचानों पर
उगाते फसल अपनी हम, पहाड़ों के ढलानों पर
--
मशीनों से नहीं हम हाथ से रोज़ी कमाते हैं
नहीं हम बेचते गल्ला, लुटेरों को दुकानों पर
------


कोई अब न रहे उदास



आज बेडियाँ निर्बल होती

सदा गूँजती उनकी आह

उड़ने को यदि पंख मिलें हैं

नभ छूने की रखो चाह

आज क्षितिज बाँहें फैलाता

कर लेना इसका आभास।।

---------------------

धैर्यशील है कुदरत सारी



जीवन हमें नित नए उपहार दे रहा है। हर घड़ी, हर नया दिन एक अवसर बनकर आता है। हमारे लक्ष्य छोटे हों या बड़े, हर पल हम उनकी तरफ़ बढ़ सकते हैं; यदि अपने आस-पास सजग होकर देखें कि प्रकृति किस तरह हमारी सहायक हो रही है। वह हमें आगे ले जाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। हम कोई  कर्म करते हैं और फिर प्रमाद वश या यह सोचकर कि इससे क्या होने वाला है,
---------------------------
हे योगी तेरी किन भावों को मानूँ

हे योगी तेरी किन भावों को मानूँ  

हर रूपों में तुम ही समाये,

उन रूपों को पहचानूँ 

हे योगी .....

लघुता-जड़ता पशुता-हन्ता 

सब कर्मों के तुम ही नियंता 

उन अपराधों को जानूँ 

--------------------------

 गंध परिधि - -




उतरती है शाम हर रोज़ की तरह पहाड़ों से नीचे,
देह से उतर कर,परछाइयां ढूंढती हैं रात्रि निवास,

कोई गंध है, या अदृश्य सम्मोहन, जो खींचती हैं
बरबस उसकी ओर, ह्रदय तट उठते हैं उच्छ्वास,


----------------

दिलकुशा कोठी, लखनऊ


लखनऊ की बहुत सी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है दिलकुशा कोठी. बहुत बड़े पार्क में बनी हुई इमारत कभी बहुत खुबसूरत और दिलकश रही होगी तभी इसका नाम दिलकुशा कोठी रखा गया था. लखनऊ कैंट के पास और गोमती नदी के किनारे बनी दिलकुशा कोठी की सैर अब भी दिल खुश कर देती है------------------------------------------

तबस्सुम की मुस्कान हमारे साथ है


-------------------------
ग़ज़ल , मेरी बंद जज़्बातों की कोठरी में कुछ रोशनदान हैं

मेरी बंद जज़्बातों की कोठरी में कुछ रोशनदान हैं 

कोई मुसाफिर नही है साहिलों की ये कश्तीयॉ वीरान हैं 


इन ख़्वाबों ने कब्जा जमा लिया है मेरे दिल ओ दिमाग पर 

पहले मैने सोचा था कि ये तो मेहमान हैं 

-------------------


आज का सफर यही तक आपका दिन मंगलमय हो कामिनी सिन्हा 



7 comments:

  1. सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    मेरे उच्चारण ब्लॉग का लिंक लगाने के लिए आपका आभार चर्चाकार -कामिनी सिन्हा जी।

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सखी सादर

    ReplyDelete
  4. बहुत खूबसूरत चर्चा संकलन

    ReplyDelete
  5. आप सभी को हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार 🙏

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन रचनाओं से सजा मंच, आभार मेरी रचना को इस अंक में शामिल करने के लिए!

    ReplyDelete
  7. उपयोगी पोस्‍टों का चयन किया है आपने. आपके श्रम को प्रणाम.

    ReplyDelete

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।