![My Photo](//photos1.blogger.com/blogger/6395/1390/1600/Rakesh%20New.0.jpg) - Rakesh Khandelwal
ओस में डूब कर फूल की पंखुड़ी भोर की इक किरण को लगी चूमने गंध फिर तितलियों सी हवा में उड़ी, द्वार कलियों के आकर लगी घूमने बात इतनी हुई एक पत्ता कहीं आपके नाम का स्पर्श कर आ गया यों लगा आप चलने लगे हैं इधर, सारा उपवन खुशी से लगा झूमने xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx पतझड़ के पहले पत्ते के गिरने की आहट से लेक अंकुर नये फ़ूटने के स्वर तक तुम साथ रहे हो मेरे…… “भ्रमर को तो सुमन की एक ही बस गन्ध है काफी! पवन को तो चमन का एक ही अनुबन्ध है काफी!! | दिशायें“ ठंड बहुत है.... इसी लिए सरकार ने गरीबों के लिए ठंड से बचाने के लिए यह जुगत लगाई है - महँगाई की आग जलाई है। ******************* जब कोई गलत आदमी सही बात बोलता है.... आदमी को नहीं उस की बात को मान देना चाहिए। यदि यह तुम्हें स्वीकार नही... अपने को – पहचान “बढ़ी मँहगाई लेकिन विश्व में छाई हुई मन्दी! यहाँ पर भेड़ियों ने चाल अपनाई हुई गन्दी!!” | शायरी मेरी तुम्हारे जिक्र से, मोगरे की यार डाली हो गयी ![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiByhFIxErg2kCkKlmneJCJ6Fm35rMZjvfBywGWd3uoHGaNkNEQb2Wu9xBhIkSi2bGWRdOtnZp8HLclfNLL-ST67N3g_qorNC2Xb9UADUqdrczBj2vsoxSwYgwandf8SEmdUUOmL431jTw/s320/dag6.jpg) तुम नहीं साथ तो फिर याद भी आते क्यूँ हो इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यूँ हो डर जमाने का नहीं आपके दिल में तो फिर रेत पर लिख के मेरा नाम मिटाते क्यूँ हो……( गुरुदेव पंकज सुबीर जी की भट्टी में तप कर कुंदन बनी ग़ज़ल ) “लपट-अंगार में तपकर निखरता है खरा कुन्दन! रगड़ने पर महकता है हमेशा ही खरा चन्दन!!” | अर्थात ![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCtdhomclPQx_Elq1oKGMHnDeZn19yh5fXSgeaRGPsriUlTY5LiLUpRXEmmMGu7M6tEpykAnMGy4I3mmwDaUNTWOsbXUBpg0uplQIrYdOnHp8fWb0ixfD3HBQ70-BwP4rF97gbfcKARug/s320/small009.jpg) आजकल दिल्ली में है जे़रे बहस ये मुद्दुआ उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेंसर ने शायद सबसे पहली बार आधिकारिक तौर पर सामाजिक परिक्षेत्र में योग्यतम की उत्तरजीविता के मुहावरे का प्रयोग किया था। उनका मानना था कि ‘‘गरीब लोग आलसी होते हैं,काम नहीं करना चाहते और जो काम नहीं करना चाहते उन्हें खाने का भी कोई अधिकार नहीं है।‘‘ इसी आधार पर उनका तर्क था कि ‘‘गरीबी उन्मूलन जैसी योजनाओं के जरिये सरकार का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये।‘‘दरअसल, स्पेन्सर पूंजीवादी दुनिया के वैचारिक प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं। ….. “बनी अभिशाप आजादी, गरीबी के चमन देखो! भरे मधुमास में उजड़े हुए अपने सुमन देखो!! | "नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!" "नमस्काऽऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!" "सुनाइये क्या चल रहा है?" "चलना क्या है? अभी अभी एक पोस्ट लिखकर डाला है अपने ब्लॉग में और अब हम ब्लागवाणी पर अन्य मित्रों के पोस्टों को देख रहे हैं।" "अच्छा यह बताइये लिख्खाड़ानन्द जी, आप इतने सारे पोस्ट लिख कैसे लेते हैं? भइ हम तो बड़ी मुश्किल से सिर्फ टिप्पणी ही लिख पाते हैं, कई बार तो कुछ सूझता ही नहीं तो सिर्फ nice , बहुत अच्छा, सुन्दर, बढ़िया लिखा है जैसा ही कुछ भी लिख देते हैं। पोस्ट लिखना तो सूझ ही नहीं पाता हमें।" "अरे टिप्पण्यानन्द जी! पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है।"…….. “धुआँधार ब्लॉगिंग करो, रहो हमेशा मस्त! लिखना ही है जिन्दगी, क्यों होते हो पस्त!! | उड़न तश्तरी ....
हिन्दी ब्लॉगिंग- कौवा महन्ती!!!!बूंद बूंद पानी को तरसते ऐसे इन्सान को भी मैने देखा है जो समुन्द्र की यात्रा पर निकला तो ’सी सिकनेस’ का मरीज हो गया. पानी ही पानी देख उसे उबकाई आने लगी, जी मचलता था. भाग कर वापस जमीन पर चले जाने का मन करता था. शुद्ध मायने में शायद यह अतिशयता का परिणाम था और शुद्ध भाषा में शायद इसी को अघाना कहते होंगे. याद है मुझे, कुछ बरस पहले डायरी के पन्ने दर पन्ने काले करना. न कोई पढ़ने वाला और न कोई सुनने वाला. बहुत खोजने पर अगर कोई सुनने वाला मिल भी जाये तो यकीन जानिये कि वो बेवजह नहीं सुन रहा होगा. निश्चित ही या तो उसे आपसे कुछ काम होगा या वो भी अपने खीसे में डायरी दबाये सुनाने का लोभ पाले सुन रहा होगा. चैन तो कहीं नहीं.. ![punch punch](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBPhI1Fz7zPxcanUX42KgaZL4OxfDWPgL27ls2TUW4OYdGNkWzQ61qQBa1X_JXXyrObX6UKIMlAZkuAohJF-rDSRu5DmkdCo7Qq_nDOrMXQ-dIh5-GjscXn6aMdq_7gYZrQIWq_BnQ6PbM/s800/punch.jpg) ब्लॉग मुझे सुविधा देता है.. मैं मन में उठते भाव जस का तस लिख देता हूँ.. | |
"भाव उठें जब हृदय में, आयें नवल विचार। ब्लॉग खोल अंकित करो,मन के सब उदगार।।" | निलय उपाध्याय (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'कटौती’): इन दिनों मैं बहुत निजी किस्म का जीवन जी रहा हूँ. मेरा कोई सामाजिक जीवन नहीं है. अभी जिन संकटों के दौर से गुज़र रहा हूँ उसमें सार्वजनिक जीवन के लिए कोई जगह नहीं है. पिछला साल जो बीता है उससे मेरी यही अपेक्षा थी कि मेरे परिवार को दो जून का भोजन मिलता रहे. मेरे बच्चों की पढ़ाई चलती रहे...और २००९ में यह पूरा हुआ. आने वाले साल में मैं यह चाहता हूँ कि इन जिम्मेदारियों से अलग होने का वक्त मिले, जिसमें मैं अपने मन के भीतर बसी दुनिया के बारे में लोगों को बता सकूं...कुछ कवितायें लिख सकूं... और जो विकास-क्रम अथवा परिवर्त्तन मेरे भीतर आया है, उसको बता सकूं….
सिद्धेश्वर सिंह (कवि, समीक्षक, अनुवादक, ब्लॉगर): कैलेन्डर बदलने से उम्मीदें नहीं बदलतीं. बड़ी उम्मीदें बड़ी जगह, समय के बड़े हिस्से, बड़ी और लगातार कोशिशों तथा बड़े विचार से ही पूरी होती हैं. यह समय छोटी चीजों का है. हमारे गिर्द 'लघु-लघु लोल लहरें' उठती हैं और उनकी फेनिल आभा हमें समन्दर में गहरे उतरने से रोकती है, बहकाती है, बरजती है. फिर भी साहित्य की दुनिया में हाथ-पाँव मारते हुए यह यकीन कायम है कि शब्द में दम है और उम्मीद पर जहाँ कायम है…..
आज कल पंकज मिश्रा को तो फुरसत है नहीं तो सोचा क्यों न मै ही अलख जगा दू ..बस ज्यादा समय नहीं लूगा .दो चार जोक मारुगा ,उतने में अप मर गए तो ठीक नहीं तो नमस्ते बोलकर खिसक जाउगा :) चलिए बताते है पप्पू के कारनामे
कालेज में पप्पू को एक मैडम से प्यार हो गया सारे कालेज में हाहाकार मच गया कक्षा के सारे बच्चे उदास हो गए ...क्यूकी कालेज के सारे बच्चे फेल. पप्पू अकेला पास हो गया !! ... | ![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiQ-MZldtz9T2R3mQNX3dEc4nBLIIUPE1TsK1OvxTJwPGHhWPT7J7uy2NfFbVeFYPEyvx2xUjLZi-Se4w_MRZlCoZYcvkWHlDKVIiNHU5m7mnTQE0JgXcZvHN4XlteKAYUJq9oy95Daapx/s400/Mouse_And_Cat_Cartoon2_Marcos_Noel+c.jpg) एक बार बिल्ली थी एक चूहे खा जाती अनेक दुःखी थे उससे चूहे सारे इक दिन सारे मिल के विचारे सोचा मिलकर एक उपाय बिल्ली को जा दिया बताय बोले अपने मन में विचारो रोज क्यों इतने चूहे मारो इतने चूहे रोज मारोगी कितने दिन तक पेट भरोगी खत्म हो जाएंगे चूहे जब बोलो क्या करोगी तब इक चूहा जब तेरा खाना बाकी सबको क्यों सताना मानो जो हमारा कहना अपने घर आराम से रहना...........
चलती चक्की देख कर.........घुघूती बासूती - गेहूँकी पिसाई तीन रुपया!सरकार गरीबी की रेखा सेनीचे की आबादी को राशन मेंशायद २ रुपए किलो गेहूँउपलब्ध करवाती है। सबसेपहले तो समस्या यह है किबहुत से लोगों... | याद करते हो तुम अपने प्रेमी को फिर क्यूँ लांछन हम पर लगाते हो हम बेजुबान तुम्हारे लांछनों का जवाब नही देसकते किसी की याद में जी तुम जलाते हो मगर दोष हमारा इ.. दर्द ... - दर्द आज बयांकरना चाहता था अपनीपीड़ा को जो उसे असहाय करचली थी जब से वह उसकेभीतर पली थी चिंता के साथघुल रही थी उसकी हड्डियांभीं उसके रोम छिद्... | *क्या मालुम था मेरा शोणित ,, * *केवल पानी कहलायेगा ,,, * *क्या मालुम था जीवन अर्पण ,, * *ओछा आँका जाएगा ,,, * *क्या मालुम था मरने पर भी ,, * *अपमानित होकर रो... जब लाखों व्यक्ति तुम्हारी"वाह - वाह" करें तो गंभीर हो कर सोचो - "तुमसे क्या अपराध हो गया?" और जब निंदा करें तो - "क्याभलाई" .... | *राजीव तनेजा* * * बड़े दिन हो गएथे खाली बैठे बैठे... कोई काम-धाम तो था नहीं अपनेपास.. बस कभी-कभार कंप्यूटर खोला औरथोडी-बहुत 'चैट-वैट' ही कर ली। सच पूछ.. |
शास्त्री जी-नये रंग मे सुंदर चर्चा के लिए-आभार
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंgood!
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन चर्चा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया साहब !
जवाब देंहटाएंवाह! शास्त्री जी, एकदम मनमोहक चर्चा!!!
जवाब देंहटाएंआभार्!
पसंद पर चटका नहीं लग पा रहा....जरा देख लीजिएगा कि क्या कारण है!
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiya charcha rahi.
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी चर्चा कई समाचार मिल गए!!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा ! आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्द और सुन्दर चर्चा..बढ़िया लिंक मिले.
जवाब देंहटाएंमुझे तो उजाले ही उजाले नज़र आ रहे हैं - इस नवोदित चर्चा में!
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