पी.सी.गोदियाल जी को लगता है ब्लॉगरों ने तो लगता है पी ली भांग है! भांग के नाम पर ललचा के बुला लिया आपने और कित्ती कडवी कडवी नीम का शर्बत पिला दिया। क्या ये टाँग खिंचाई ही असली हिन्दी ब्लोगिंग है? आजकल तो मानो सिर्फ ये ही रह गया हैं ब्लॉग जगत मे। ब्लॉगरों ने तो लगता है पी ली भांग है , कुछ ठीक नहीं चल रहा सब उटपटांग है! निकले तो हिंदी की दुर्दशा सुधारने को थे, और खीच रहे बस एक-दूजे की टांग है!! लिखने का मकसद क्या सिर्फ वोट है? लगता है कि हिंदी में ही कही खोट है! वरना क्यों हर एक साहित्य सेवक बन गया आज इस कदर विकलांग है!! अपनों से ही अगर हम कलेश लेंगे , फिर दूसरों को क्या ख़ाक सन्देश देंगे ! मिलजुलकर हिन्दी विकास पर ध्यान, यही आज हम सब से वक्त की मांग है!! |
अकेला आदमी या तो दरिंदा या फिर फ़रिश्ता होता है! क्या बात कही है कविता रावत ने, एकदम सही बहुत सुन्दर! आख़िर संगति का प्रभाव अपना रंग तो दिखाएगा ही। हमने तो सुना है संसार रूपी कटु-वृक्ष के केवल दो फल ही अमृत के समान हैं ; पहला, सुभाषितों का रसास्वाद और दूसरा, अच्छे लोगों की संगति। पढिए सामयिक और सटीक रचना । अकेला आदमी या तो दरिंदा या फिर फ़रिश्ता होता है तीन से भीड़ और दो के मिलने से साथ बनता है आदमी को उसकी संगति से पहचाना जाता है बिगडैल साथ भली गाय चली को बराबर मार पड़ती है साझे की हंडिया अक्सर चौराहे पर फूटती है सूखी लकड़ी के साथ-साथ गीली भी जल जाती है गुलाबों के साथ-साथ काँटों की भी सिंचाई हो जाती है |
इस सब के बावज़ूद भी हमारे दिलों में नहीं आई दरारें! जी हां, न सिर्फ़ ब्लॉगजगत में बल्कि जैसा कि कुलवंत हैप्पी को ऐसी वाली खुशखबरें बेहद प्रभावित करती हैं। इन खुशख़बरों ने ऐसा प्रभावित किया कि शुक्रवार की सुबह अचानक उनके लबों पर कुछ पंक्तियाँ आ गई। दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच जो है फासला मिटा दे, मेरे मौला, नफरत की वादियों में फिर से, मोहब्बत गुल खिला दे, मेरे मौला, पाकिस्तान की सीमा से सटे पंजाब में कबूतर पालने का चलन आज भी है। लेकिन कबूतर पालकों की खुशी तब दोगुनी हो जाती है, जब कोई पाकिस्तानी अमन पसंद परिंदा उनकी छत्री पर एकाएक आ बैठता है। उनको वैसा ही महसूस होता है जैसा कि सरहद पार से आए किसी अमन पसंद व्यक्ति को मिलकर। काश! इन परिंदों की तरह मानव के लिए भी सरहदें कोई अहमियत न रखें। लेखक की दिली तमन्ना है कि एक बार फिर से Diwali में अली और Ramjan में राम नजर आएं। ये है युवा सोच की युवा ख़्यालत जो जोड़ने की बात करता है एक हम हैं जो जो भी जुटा है उसे तोड़ने की बात करते हैं। |
बंगलूरू का यह अल्प प्रवास भी यादगार बन गया अरविंद मिश्र जी के लिए। इसका श्रेय बिना लाग लपेट के वो एक ऋषि -व्यक्तित्व -प्रवीण पाण्डेय जी को देते हैं जो इन दिनों कहीं एक और विश्वामित्र की भूमिका में दिख रहे हैं। जब दोनों मिले तो मिश्र जी सहमे सकुचाये ही रहे ...थोडा सहज और थोडा असहज से , एक आला अफसर और एक ब्लॉगर का फर्क भापते रहे ...बहुत शीघ्र ही असहजता की दीवारे ढह गयीं ..और दो ब्लॉगर मुखातिब हो गए! कहते हैं सामान्यतः ब्लॉगर पुरुषों की सहचरियां ब्लॉग चर्चाओं से दूर रहती हैं और कहीं कहीं तो अलेर्जिक भी ....मगर वहाँ तो आलम ही दूसरा था ...प्रवीण जी को यह स्वीकारोक्ति करने में देर नहीं लगी कि ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग पर बुधवासरीय उनकी पोस्टों की पहली पाठक वही हैं और बिना उनके अनुमोदन के कोई भी पोस्ट प्रकाशित नहीं होती !! एक आत्ममुग्ध ब्लॉगर ने अभी कहीं कमेन्ट किया कि ' प्रवीण जी आप कवितायेँ भी अच्छी लिखने लगे हैं " अब उन्हें क्या पता कि प्रवीण जी एक पक्के कवि और जन्मजात कवि ह्रदय दोनों हैं .....उनकी अब तक की २०० से ऊपर की कवितायें एक संकलन के प्रकाशन का बाट जोह रही हैं। अपने इस बंगलुरु प्रवास के मनन के बाद मिश्र जी इस निस्कर्ष पर पहुंचे कि “मनचाहे मित्र /ब्लॉगर ..सज्जन सत्संग कितना दुर्लभ है न यह सब आज की इस उत्तरोत्तर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होती दुनिया में .....हम तो धन्य हुए ....” प्रवीण जी का व्यक्तित्त्व ऐसा है जिससे कई सीखें लेनी चाहिए। प्रतिभा का प्रकाश कहीं छिपता है भला ? और प्रवीण जी का कहना है “विश्वास ही नहीं होता कि आप मुझ जैसे साधारण को इतने रुचिकर ढंग से प्रस्तुत कर देंगे। आपकी लेखनी को निश्चय ही कोई महत् प्रश्रय मिला हुआ है। जो जादू आपके लेख ने कर दिया वह कदाचित मेरी कई दिनों की आवाभगत भी न कर पाती। आपका स्नेह मेरे लिये जो उच्च स्तर निर्धारित कर के गया है उसको प्राप्त करने का प्रयास अनवरत रहेगा।” |
अब मुझे सुबह उठने के बाद दूध लेने भी जाना है, चाय भी खुद ही बनाना है, फिर नाश्ता भी तैयार करना और खाना है, तैयार होकर आफिस भी जाना है। यानी कि रात के खाने से लेकर झाड़ू-पोछा (घर में काम वाली होती, तो शायद मुक्ति मिल जाती) और बरतन वगैरह सब कुछ मुझे ही करना है। ये कहना है ज़ाकिर अली ‘रजनीश’जी का। क्यों? सोचिए ...! उन्हें तो रोटी, दाल, चावल, सब्जी कितना कुछ बनाना है। उसके बाद खाना खाने को मिलेगा। सचमुच पुरूष लोग तो आजीविका के लिए जो भी काम करते हैं, उसमें कभी न कभी छुट्टी मिल भी जाती है, लेकिन औरतें लगातार बिना रूके 365 दिन घर के काम करती रहती हैं और हमें कभी इस चीज का एहसास तक नहीं होता। |
डॉ0 महेंद्रभटनागर की कविता -- ग्रीष्म पढिए शब्दकार पर। तपता अम्बर, तपती धरती, तपता रे जगती का कण-कण ! भवनों में बंद किवाड़ किये, जर्जर कुटियों से दूर कहीं सूखी घास लिए नर-नारी, तपती देह लिए जाते हैं, जिनकी दुनिया न कभी हारी, जग-पोषक स्वेद बहाता है, थकित चरण ले, बहते लोचन ! बिजली के पंखों के नीचे, शीतल ख़स के परदे में जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे, वे शोषक जलना क्या जानें जिनके लिए खड़े सब साधन ! |
क्रिकेट , मीडिया और मदमस्त मानुसअखबार का मुख्य-पृष्ठ सजा है बड़े बड़े अक्षरों में लिखे शीर्षक " किसने कहा ऎसी नाईट पार्टियों में जाएँ" से ! इस घटना ने प्रेरित किया सूर्यकांत गुप्त को प्र्स्तुत कविता रचने को। मैच की जीत, कप्तान बन जाता है मीडिया का मीत छपता है शीर्षक "धोनी के धुरंधरों के आगे विरोधी हो गए ढेर" वाह क्या बात है बन जाते हैं टीम के खिलाड़ी "बब्बर शेर" किसी भी चीज के लिए आवश्यक होता है जज्बा. जब दिल में देश के प्रति जज्बा उमडेगा, दृष्टि होगी लक्ष्य पर. लक्ष्य याने विजय, और विजय प्राप्त हो सकता है अनुशासन में रहकर. दर असल हमारे भारत में टाइम पास करने वालों की कमी नहीं है. हमारी तरह. किरकिट शुरू हुआ नहीं की चिपक गए दूर दर्शन से. "ऎसी दीवानगी देखी कभी नहीं" किसी फिलम के गाने की लाइन इस खेल पर लागू होती है. बड़े बड़े धनाढ्य लुटाते हैं पैसा इस पर. मिलाकर मानस है मद मस्त. जितना भी कहें, लिखें, कम है. |
रंगनाथ सिंह प्रस्तुत करते हैंचाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपनमुझे नहीं मालूममेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि इतना उलझ जाता हूँ कि जहर नहीं लिखने की स्याही में पीता हूँ कि नीला मुँह... दायित्व-भावों की तुलना में अपना ही व्यक्ति जब देखता तो पाता हूँ कि खुद नहीं मालूम सही हूँ या गलत हूँ या और कुछ |
रामचरित मानस की अर्थ संरचनाएंजगदीश्वर चतुर्वेदी का मानना है परंपराओं के मूल्यांकन की एकाधिक पध्दतियों को स्वीकार करने का दुस्साहस है, किंतु इसकी भी सीमाएं हैं!रामचरित मानस लोक-महाकाव्य है। इसके उपयोग और दुरूपयोग की अनंत संभावनाए हैं।लोक-महाकाव्य एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी होता है,इसमें एक नहीं एकाधिक विचारधाराएं होती हैं। इसका पाठ संपूर्ण और बंद होता है किंतु अर्थ- संरचनाएं खुली होती हैं, इसके पाठ की स्वायत्तता पाठ की व्याख्या की समस्त धारणाओं के लिए आज भी चुनौती बनी हुई है। लोक-महाकाव्य का अर्थ कृति में नहीं सामाजिक के मन में होता है।पाठक के इच्छित-भाव की तुष्टि का यह सबसे बड़ा स्रोत है,इतिहास की रचना में इसका व्यापक इस्तेमाल होता है।साथ ही इच्छित इतिहास के निर्माण के लिए इसका व्यापक स्तर पर उपयोग और दुरूपयोग होता रहा है। धर्मनिरपेक्ष आलोचना परंपरा के निर्माण के लिए स्त्री,दलित और पितृसत्ता की उपेक्षा संभव नहीं है। इन तीनों से रहित आलोचना को धर्मनिरपेक्ष आलोचना नहीं कहा जा सकता है। |
विवेकानन्द पाण्डेय की देशभक्त पर प्रस्तुत कविता के बारे में यही कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती। लिये तिरंगा घर-घर अलख जगाएंगे मां हम तेरे दूध का कर्ज चुकाएंगे ।। कर के व्रत-संकल्प और श्रम भारत का गौरवमय इतिहास पुन: दोहराएंगे ।। जिस धरा पर मेघ भी कंचन बरसते हैं देवता भी जन्म को जिसपर तरसते हैं सरहद पर दीवार अडिग बन जाएंगे मां हम,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, ।। |
साइबर क्राइम लेख द्वारा नीलाभ वर्मा का कहना हैयदि आप सोच रहे हैं कि इंटरनेट को इस्तेमाल करते वक्त आप पूरी तरह सुरक्षित हैं तो यह आपकी गलतफहमी है। कोई भी साइट ऐसी हो सकती है जो आपके पीसी को नुकसान पहुंचा सकती है। इंटरनेट सिक्यूरिटी कम्पनी नोर्टन साइमनटेक ने सौ सर्वाधिक डर्टी वेबसाइटों की एक सूची जारी की है जो मलवेर के माध्यम से कम्प्यूटर सिस्टम को हानि पहुंचा सकती हैं। कुछ सबसे खतरनाक साइट्स हैं: 17ebook.com, aladel.net, bpwhamburgorchardpark.org, clicnews.com, dfwdiesel.net, divineenterprises.net, fantasticfilms.ru, gardensrestaurantandcatering.com, ginedis.com, gncr.org.इस सूची में दी गई किसी भी वेबसाइट पर जाने से उक्त कम्प्यूटर वाइरस पीड़ित हो जाता है और उस सिस्टम में संग्रहित व्यक्तिगत जानकारियां हैकरों तक पहुंच जाती हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि लोग आमतौर पर यह नहीं समझते कि जब किसी वेबपेज को ब्राउज किया जाता है तो केवल उसकी जानकारी ही डाउनलोड नहीं होती है बल्कि साथ में मलवेर भी डाउनलोड हो सकते हैं। सूची में दर्ज वेबसाइटों पर अनुपात में 18 हजार खतरनाक क्रिप्ट प्रति साइट होते हैं। इनमें से चालीस प्रतिशत साइटों पर तो 20 हजार खतरनाक क्रिप्ट प्रति साइट होते हैं। इनमें से अधिकतर साइटें व्यस्कों के लिए बनी हैं और वहां पोर्नोग्राफिक क्लिप्स और तस्वीरों की कड़ियां दी गई हैं जो वास्तव में मलवेर डाउनलोड कर देती हैं। इसके अलावा शिकार आधारित, खाद्य उद्योग आधारित और कानूनी सलाह आधारित वेबसाइटें भी हैं जहां मलवेर रखे गए हैं। ज़रूर पढ़िए इस बेहद उपयोगी पोस्ट को जो एक संग्रहणीय प्रस्तुति है। |
अदा जी कह रही हैंअमर बेल टहनी हूँ, तुम देवत्व के हस्ताक्षर और मैं जीवन से भरी हूँ ....तुम ! / शोक हर अशोक विटप हो / मरू में जीवन घट हो / तेज़ धूप में छत हो / पूजा में अक्षत हो / सरोवर नील कमल हो / भरी जेठ, बादल हो / मैं ! / ढलती शाम एकाकी / बैरंग आई इक पाती / आह छोड़ती छाती / गुमी हुई कोई थाती / देह तेरे उकरी हूँ / अमर बेल टहनी हूँ, / तुम देवत्व के हस्ताक्षर / पर मैं जीवन से भरी हूँ … … इस कविता पर एक टिप्पणी है “यह विरोधाभास नहीं, दिया तले अँधेरा जैसा ही है ...हम खुद अंधेरों में डूबे हों मगर दूसरों के लिए रौशनी बनकर उन्हें राह दीखाते हों ...अपनी तकलीफ भुलाकर दूसरों को खुश रखने की चाह .... यह सच्ची मानवता है ...इंसानियत है ...देव और दानव दोनों ही प्रवृतियों से जुदा” |
शिवम् मिश्रा जिनका आज जन्म दिन है प्रस्तुत कर रहे हैं शहीद सुखदेव के जन्मदिन पर विशेष :- सुखदेव को अंग्रेजों ने दी बिना जुर्म की सजाजवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष और इतिहासकार चमन लाल का कहना है कि सांडर्स हत्याकांड में सुखदेव शामिल नहीं थे, लेकिन फिर भी ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। उनका कहना है कि राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह की लोकप्रियता तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेजी शासन इस कदर हिला हुआ था कि वह उन्हें हर कीमत पर फांसी पर लटकाना चाहता था। अंग्रेजों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और वे हर कीमत पर इन तीनों क्रांतिकारियों को ठिकाने लगाना चाहते थे। लाहौर षड्यंत्र [सांडर्स हत्याकांड] में जहां पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया गया, वहीं अंग्रेजों ने सुखदेव के मामले में तो सभी हदें पार कर दीं और उन्हें बिना जुर्म के ही फांसी पर लटका दिया। भारत माँ के इस सच्चे सपूत सुखदेव को उनके जन्मदिनके अवसर पर हम सब की ओर से शत शत नमन !! |
रेखा श्रीवास्तव कहती हैं दो चार हत्या , आत्महत्या के प्रकरण अखबार में न हों ऐसा हो नहीं सकता। हम पढ़ कर अख़बार को फ़ेंक देते हैं, यह सोचते भी नहीं है की क्या इससे जुड़े लोगों को इसके कारणों से बचा पाने की जानकारी थी। क्या ये हत्या या आत्महत्या का ख्याल टाला नहीं जा सकता था? काश ऐसा हो सकता तो कितने ही घर बच जाते, पता नहीं इन लोगों से जुड़े कितने लोग असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं। कुछ चीजें व्यक्ति के मानसिक अस्थिरता को प्रदर्शित करती हैं। आज के परिवेश में सिवा मानसिक तनावों , कुंठा, अवसाद के कुछ भी नहीं मिल रहा है। आज के परिवेश में ये घटनाएँ घट रही हैं ऐसा नहीं है कि उनको टाला नहीं जा सकता है किन्तु टालें तो कैसे? अंतर्मुखी प्रवृति ने मनुष्य को अन्दर ही अन्दर घुटने के लिए छोड़ दिया है। उसको व्यक्त करने के लिए कोई साधन भी उन्होंने नहीं खोजा है या फिर उनके संज्ञान में नहीं है. इस समस्या के बारे में यदि और अच्छे तरीके आप लोग सुझा सकें तो और भी बेहतर होगा क्योंकि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सक की आवश्यकता आज के समय में अधिक महसूस की जा रही है। एक टिप्पणि है “आपने बहुत ही सार्थक चिंता जाहिर की है और सवाल उठायें हैं। दरअसल आज जो शिक्षा दी जा रही है उसमे मानवता और अच्छाई का लेश मात्र भी नहीं है , जिससे ये शिक्षा बेकार है। इसे तब तक नहीं सुधारा जा सकता जब तक हम लोग एकजुट होकर इसके लिए पूरी मेहनत और ईमानदारी से प्रयास नहीं करेंगे।” |
डॉ0 डंडा लखनवी की प्रस्तुति बबुआ ! कन्या हो या वोट...............भारतीय संस्कृति में दान को बड़े विराट अर्थॊं में स्वीकारा गया है। कन्यादान और मतदान दोनों में अनेक समानताएं हैं। कन्यादान का दायरा सीमित होता है वहीं मतदान के दायरे में सारा देश आ जाता है । कन्यादान एक मांगलिक उत्सव है.......मतदान उससे भी बड़ा मांगलिक उत्सव है। कन्यादान करना एक उत्तरदायित्व है.....मतदान करना बड़ा उत्तरदायित्व है। कन्यादान का उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर मनको अपार शान्ति मिलती है। मतदान के उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाने पर भी आप अमन-शान्ति चाहते हैं। कन्यादान के लिए लोग दर-दर भटक कर योग्य वर की तलाश करते हैं परन्तु मतदान के लिए क्या शीलवान (ईमानदार) पात्र की तलाश करते हैं.......? यह एक बड़ा प्रश्न है इसका उत्तर आप अपने सीने में टटोलिए अथवा इस लोकगीत में खोजिए!दोनों की गति एक है बबुआ ! दोनों गिरे कचोट। कन्या वरै सो पति कहलावै, वोट वरै सो नेता, ये अपने ससुरे को दुहते, वो जनता को चोट। ये भी सेज बिछावैं अपनी, वो भी सेज बिछावैं , इतै बिछै नित कथरी- गुदड़ी उतै बिछैं नित नोट। कन्या हेतु भला वर ढूंढो, वोट हेतु भल नेता, करना पड़े मगज में चाहे जितना घोटमघोट। |
बाँहों में साँप रहे पाल संजीव वर्मा 'सलिल' * बाँहों में साँप रहे पाल. और कहें मौत रहे टाल.. नक्सल-आतंक सहें मौन. सत्ता पर कुरबां कर लाल.. दुश्मन हैं अपने हम खुद कैसे फिर सुधरेंगे हाल? जन गण के खून का न मोल. प्रतिनिधि से पूछ मत सवाल.. 'सलिल' न बदलाव आएगा. करती बनी भ्रान्ति की दलाल.. |
गिरिजेश राव प्रस्तुत कर रहे हैं बेहयाई हूँ मैं।हिन्दी ब्लॉगरी का वही हाल है जो हिन्दुस्तान का है।मन खिन्न हुआ और चन्द द्विपदियाँ रच गईं, प्रस्तुत हैं। शाद कोई नहीं तमाशाई हूँ मैं तेरी पीर से चीखूँ, भाई हूँ मैं। क़ाफिर इस तरफ गद्दार उस तरफ दीवार से उठती दुहाई हूँ मैं। लुटी सारी ग़रीबी नंगों के हाथ बची बस्ती की गाढ़ी कमाई हूँ मैं। बड़े अहमकाना सूरमा-ए-महफिल मुझको आए हँसी बेहयाई हूँ मैं। |
चीफ गेस्ट [लघुकथा] - संगीता पुरी एक झलक देखिए … … … 'अब उठो भी .. छह घंटे तो सो चुके' जमीन में सोए बारह वर्षीय नौकर शिवम् को पहले बात से , फिर डांट से , फिर मार से उठाने में असफल शीला ने आखिरकार उस पर एक लात जड दिया। 'अरे , क्या कर रही हो ?' बाथरूम से आते शैलेन्द्र की नजर उस पर पडी। 'परेशान कर दिया है अब आगे पढिए ब्लॉग पर... |
अगर बचाना है भारत को, गऊ को आज बचा एं हमगिरीश जी कागीत अगर बचाना है भारत को, गऊ को आज बचाएं हम गो-वंश की रक्षा कर के, निज कर्तव्य निभाएं हम कितनी हिंसा प्यारी हमको, इसका ही कुछ भान नहीं, आदिमयुग से निकले हैं हम, क्या इसका भी ज्ञान नहीं? सभ्य अगर हम कहलाते हैं, कुछ सबूत दिखलाएं हम अगर बचाना है भारत को गऊ को आज बचाएं हम न ए क जीव है इस दुनिया में,जो पवित्र कहलाता है 'पंचगव्य' हर गौ माता का, हमको स्वस्थ बनाता है. दूध-मलाई, मिष्ठानों का, कुछ तो मूल्य चुकाएँ हम. अगर बचाना है भारत को गऊ को आज बचाएं हम... |
एक गहरी श्वांस लेकरराजभाषा परमन कहीं उलझा हुआ था, मकड़ियों सा जाल बुनकर। झँझड़ियों की राह आती स्वर्ण किरण एकाध चुनकर। उठा गहरी नींद से मैं, इक नया विश्वास लेकर। छोड़ दी बैसाखियाँ जब चरण ख़ुद चलने लगे। हृदय में नव सृजन के भाव फिर पलने लगे। भावनाओं का उमड़ता, वेगमय उल्लास लेकर। समय देहरी पर खड़ा है हाथ में मधुमास लेकर। |
बड़े काम का भैया ...ये है एक रुपया वाणी गीत द्वारा अभी सुना कुछ दिन पहले कोई कह रहा था एक रूपये में होता क्या है ...आज कल एक रुपये मे होता क्या है...मन में ये शब्द दुहराते कही कुछ अटकने लगता है ....होता क्यूँ नहीं ..बहुत कुछ होता है .....एक रूपये का जिक्र आते ही आँखों के सामने अपनी प्यारी सी गुल्लक घूम जाती है ....और उसके अन्दर खनकते चम् चम् चमकदार एक रूपये के सिक्के ... .त्योहारों पर इन एक रुपयों की जमा पूंजी से ही अनगिन खुशिया आयी हैं ......गुल्लक को फोड़ते उन एक रुपयों की चमक आँखों में उतर आती है ... बूँद -बूँद कर सागर भरने जैसा या पुल के निर्माण के लिए गिलहरी के समुद्र को सोखने के प्रयास करने जैसा ही है इस एक रुपये का महत्व ... |
आस्था की डोर – चैरासुमन'मीत' बताती हैं हिम का आंचल यानि हिमाचल के कुल्लू-मनाली, शिमला, डलहौजी आदि विख्यात पर्यटन स्थलों को तो आम तौर पर सैलानी जानते ही हैं लेकिन इस हिमाचल में कहीं कुछ ऐसे भी अनछुए स्थल हैं जहां सैलानी अभी तक नहीं पहुंच पाए हैं। ऐसे ही एक स्थल पर मुझे पिछले साल जून में जाने का मौका मिला। इस स्थल का नाम है “चैरा” देव माहूँनाग का मूल स्थान ।इस स्थान की विशेषता यह है कि यहां स्थित माहूँनाग जी के मन्दिर का दरवाजा हर महिने की संक्रांति को ही खुलता है और यही नहीं उसे खोलने के लिये बकरे की बलि भी देनी पड़ती है यह जानकर मन में बहुत उत्सुकता हुई और हमने संक्रांति के समय वहां जाने का प्रोग्राम बनाया 1 यह स्थान हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग उपमंडल में है। तो चलिए चलते हैं चैरा की अविस्मणीय यात्रा पर। जो रहस्य, रोमांच, मस्ती, व साहस से परिपूर्ण है। |
हिम के आँचर से ताँक-झाँक [ ब ] ,,,,,,,पढ़ैयन का राम राम !!!' अवधी कै अरघान ' की महफ़िल मा आप सबकै स्वागत अहै पहाड़न के सौन्दर्य पै लहालोट हुअत आखैं यकायक ठहरि जात हैं - पहाड़न पै बड़ी उचाई पै चरत गोरुवन का देखि के ! .. वही समय याद आवत है खड़ी बोली - हिन्दी के कवि आलोक धन्वा कै कविता ''बकरियां'' कै .. अब यहि कविता का आप सबन के सामने रखि दी ताकि आपौ सब यहि कविता कै आस्वाद करैं --- ''अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियां अनंत में भी हो आतीं भर पेट पत्तियां तूंग कर वहाँ से फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में लौट आतीं . |
“सूखे हुए छुहारे, उनको लुभा गये हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”) अंगूर के सभी गुण, किशमिश में आ गये हैं! सूखे हुए छुहारे, उनको लुभा गये हैं!! हम तो नवल-नवेले, थाली के हम हैं बेले, काँसे की हम खनक में, नाचे हैं और खेले, उनकी नजर में हम तो, ब्लॉगिंग में छा गये हैं! सूखे हुए छुहारे, उनको लुभा गये हैं!! ठेले हैं शब्द हमने, कुछ जोड़-तोड़ करके, व्यञ्जन परोसते हैं, हम तोड़-मोड़ करके, उनके ही शीर्षक से, यह राग पा गये हैं! सूखे हुए छुहारे, उनको लुभा गये हैं!! |
और अंत मेंकभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है हमसे पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी हमने भी इस शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है उससे बिछड़े बरसों बीते लेकिन आज न जाने क्यों आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारण धमकाया है कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें की घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है |
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रविवार, मई 16, 2010
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
नमस्कार मित्रों!
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अच्छी चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रही आपकी आज की चर्चा - सभी आलेख/काव्य एक से बढ़कर एक रहे. एक चर्चा में ऐसी ही विविधता और संतुलन की तलाश रहती है.
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रयास ब्लॉग को सही दिशा प्रदान करती हुई पोस्ट /
जवाब देंहटाएंManoj ji aapki charcha sachmuch bahut prabhavit karti hai..main aisi hi charcha karna chahti hun lekin nahi kar paati..
जवाब देंहटाएंshreshth charcha..
aabhar..
साफ-सुथरी और विस्तृत चर्चा के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंसण्डे वाले मनोज जी की बढिया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत चर्चा....अच्छे लिंक्स मिले...आभार
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा, अच्छे लिंक्स मिले
जवाब देंहटाएंhttp://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
nice
जवाब देंहटाएंhttp://qsba.blogspot.com/
http://madhavrai.blogspot.com/
hamesha ki tarah bahut badhiya charcha......aabhar.
जवाब देंहटाएंएक बेहद उम्दा चर्चा में मेरे ब्लॉग को शामिल कर सम्मान देने के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ !!
जवाब देंहटाएंआज तो मनोज जी
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा के साथ पधारे हैं!
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बौराए हैं बाज फिरंगी!
हँसी का टुकड़ा छीनने को,
लेकिन फिर भी इंद्रधनुष के सात रंग मुस्काए!
मनोज जी तो चर्चा विशेषज्ञ हो चुके हैं...इतनी वृ्हद एवं सुरूचिपूर्ण तरीके से चर्चा करते हैं कि सचमुच आनन्द आ जाता है.....लाजवाब्!
जवाब देंहटाएंआभार्!
आभार, कई अच्छे संदर्भ मिले।
जवाब देंहटाएं