मित्रों!
सोमवार के लिए कुछ थोड़ी सी पोस्टों के लिंक
अपनी समीक्षा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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बचपन में खीँच कर ले आयीं हैं
मोनिका शर्मा जी की ये रचनाएँ।
बाल सहित्य को आप जैसी
रचनाधर्मियों कीआवश्यकता है
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...माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट...
आज तो स्थिति यह हो गयी है कि
बच्चों के ब्लॉग्स पर लोग जाते ही नहीं हैं
कमेंट तो बहुत दूर की बात है।
रही बात इस रचना की
तो मैं निश्चितरूप से कह सकता हूँ कि
पाखी की दुनिया पर प्रकाशित
यह रचना बहुत प्रेरक है।
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आदरणीय पथिक अन्जाना जी से
बेबाकरूप से यह कहना चाहता हूँ कि
सार्थक लिखिए-सशक्त लिखिए।
रचना के बारे में क्या कहूँ...
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डॉ. जेन्नी शबनम
आज भी सार्थक और सशक्त लेखन हो रहा है
उनमें से एक नाम डॉ. जेन्नी शबनम का भी है
अवसाद के क्षण...
वैसे ही लुढ़क
जाते हैं
जैसे कड़क धूप के बाद
शाम ढ़लती है
जैसे अमावास के बाद
चाँदनी खिलती है ...
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सटायर का अपनी अलग ही आनन्द होता है
देखिए उल्लूक टाईम्स पर
एक सशक्त व्यंग्य रचना।
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म्हारा हरियाणा पर देखिए
प्रीती बङथ्वाल द्वारा रचित
समर्पण में पगा यह मुक्तगीत
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कामकाजी दुनिया और टी.वी. सीरियलों की
भरमार में लगता है कि
आजकल लोकगीतों का भी अभाव हो गया है।
ऐसे में अंजुमन पर
मेरी लाडो रूप-सरूप
कि वर मिले.....हरे-२
कि वर मिले सांवरिया.....
लाडो की दादी यों कह बैठीं
वर को देओ लौटाय..
अन्दर से वो लाडो बोली
मैं तो मरुँगी विष खाय
कि भाँवर लूँगी..... हरे-२
कि भाँवर लूँगी सांवरिया...
मेरी लाडो रूप-सरूप.....
पढ़कर सुखद अवुभव हुआ।
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प्रतिदिन की भाँति
अब देखिए केवल लिंक...
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अपने से ही सब दिखते हैं,
जितने गतिमय हम, उतने ही,
जितने जड़वत हम, उतने ही,
भले न बोलें शब्द एक भी,
पर सहता मन रिक्त एक ही,
और भरे उत्साह, न थमता,
भीतर भारी शब्द धमकता,
लगता अपने संग चल रहा,
पथ पर प्रेरित दीप जल रहा,
लगता जीवन एक नियत क्रम,
कहाँँ अकेले रहते हैं हम?
न दैन्यं न पलायनम्
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चुपचाप बैठा सोंच रहा हूँ
क्या कुंती को अधिकार नहीं था
कर्ण को मातृत्व सुख देती.....
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"मातृ दिवस के अवसर पर...संस्मरण"
“जो बच्चों को जीवन के, कर्म सदा सिखलाती है।
ममता जिसके भीतर होती, माता वही कहाती है।।"
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तन से, मन से, धन से हमको,
माँ का कर्ज चुकाना है।
फिर से अपने भारत को,
जग का आचार्य बनाना है।।
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बेटी बन गई बहू
मेरे विचार मेरी अनुभूतिपरकालीपद प्रसाद
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माँ' किसी दिन की मोहताज नहीं
शब्द-शिखर पर Akanksha Yadav
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"ग़ज़ल-लगे खाने-कमाने में" (
"धरा के रंग"
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- ( पूज्य माता जी और पिता जी )
हे माँ तूअमृत घट है
कण कण मेरेप्राण समायी
मै अबोध बालक तेरा
पूजूं कैसे तुझको...
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमाँ मय हुआ चर्चा मंच आज |मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद सर |
सुंदर सोमवारीय चर्चा सुंदर सूत्रों के साथ । 'उलूक' के सूत्र 'किताबों के होने या ना होने से क्या होता है' को जगह देने के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
आदरणीय सादर अभिवादन,
जवाब देंहटाएंमातृ दिवस के पवन अवसर इस से जुड़े ढेर सारे लेख और रचनाओं के लिंक पा कर मन हर्षित हो गया.। चर्चा मंच का एक और फायदा है की बरसों से जिनकी रचनाएँ नहीं पढ़ीं हैं उनके लिंक्स पर जा कर पुरानी रचनाएँ भी पढ़ने को मिल जाती हैं. इस बार भी डॉ. जेन्नी शबनम जी की रचनाएँ पढ़ने को मिल गईं. आप का बहुत बहुत आभार.
अम्मा के संस्कारों का जादू ही तो अम्मा है काश वैसी ही संतानें होवें
जवाब देंहटाएं“जो बच्चों को जीवन के, कर्म सदा सिखलाती है।
जवाब देंहटाएंममता जिसके भीतर होती, माता वही कहाती है।।"
उच्चारण
--अम्मा के संस्कारों का जादू ही तो अम्मा है काश वैसी ही संतानें होवें
प्रेममय सूत्र ... माँ को समर्पित ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर और पठनीय सूत्र, आभार।
जवाब देंहटाएंकाफी मेहनत द्वारा संकलित सूत्र व प्रस्तुति , आदरणीय शास्त्री जी व मंच को सद: धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंI.A.S.I.H - ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
क्या बात वाह
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर व सार्थक ममतामयी चर्चा ………आभार
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी बहुत सुन्दर लिंक्स और चर्चा मेरी रचना पूत प्रीत माँ गंगा है तू को आप ने चर्चा मंच पर स्थान दिया माँ की महिमा को सम्मान मिला बहुत बहुत आभार हर माँ को नमन
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५