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रविवार, मई 25, 2014

''ग़ज़ल को समझ ले वो, फिर इसमें ही ढलता है'' ''चर्चा मंच 1623''

''ग़ज़ल को समझ ले वो, फिर इसमें ही ढलता है''

रविवारीय ''चर्चा मंच 1623'' में आप सभी का हार्दिक स्वागत। 


ग़ज़ल आह्ह से शुरू होती है, और वाह्ह्ह पे ख़त्म 
कुछ ऐसी ही ग़ज़लों को आप सबके समक्ष रखने की एक कोशिश मात्र की है, आज रविवारीय चर्चा मंच के इस मंच पर
तो आईये एक नज़र ''आह्ह्ह'' पर जिसे पढ़कर मुझे यकीन ही नहीं पूर्ण विश्वास है की आप सब ''वाह्ह्ह'' कर उठेंगे।

--१--
इक इक करके सबने ही मुंह मोड़ लिया 
इस दुनिया से अपना नाता तोड़ लिया 

जहाँ से लौट के आना भी है नामुमकिन 
ऐसे जग से अपना रिश्ता जोड़ लिया
--२--
सन्तों की सूफियों की इबारत कहाँ गयीं
वो देवनागरी की सदारत कहाँ गयी

जो थी कभी बुलन्द इमारत जहान में
दादा हुजूर की वो जियारत कहाँ गयी
--३--
छोड़ा गाँव, चले पाँव शहर, क्या होगा?
न मिली छाँव, नहीं ठौर न घर, क्या होगा?

सपने देखे महज, चाँद सितारों के ही। 
पग से छूट गई, भूमि मगर क्या होगा?
--४--
रहज़न बने हुए हैं शहरयार, देखिए
वैसाखियों पे चल रही सरकार, देखिए

तारीकियां, तबाहियां, जुल्म़ों सितम, बला
कब तक रखेंगे मुल्क को बीमार देखिए
--५--
अश्क़ों के स्याही से, दिल के, जज़्बात लिखते हैं 
कभी अपने तो, कभी ज़माने के हालात लिखते हैं 

कौन कहता है की अपनी ही धुन में मग्न हैं वो 
हर वाकये पे नज़र रखते, ख़्यालात लिखते हैं 
--६--
फिर मुझे धोखा मिला, मैं क्या कहूँ
है यही इक सिलसिला, मैं क्या कहूँ

देख ली तेरी वफ़ा मैंने इधर -
ला, जहर मुझको पिला, मैं क्या कहूँ
--७--
अश्कों से भीगी वो चांदनी रात भर भिगोती रहीं
जागती रही कोई दो आँखें और ये दुनिया सोती रही !!

हाथों में हाथों को लेकर जब वो बैठे थे यही .
लब भी ना हिले थे और ना जाने कितनी बातें होती रही !!
--८--
काठ के पुतलों में कितनी जान है
देख कर हर आइना हैरान है

कब तलक बाकी रहेगी क्या पता
रेत पर लिक्खी हुयी पहचान है
--९--
ख़ुशनुमा यादें, आज कोई पुरानी कहो 
क्षितिज में हो उत्सव, बात रूहानी कहो ।

सतरंगी किरणों-सी, हो सबकी सुबह 
दुनिया नई, सूरज की मेहरबानी कहो ।
--१०--
गमदीदा महोब्बत के, वफ़ा के नाम से डरते हो
बेदर्द ज़माने में, ख़त-ओ-पैग़ाम से डरते हो 

चुपके से आओ यार, इल्तिज़ा तेरे नाम करते हैं 
ख़ामोश फ़िज़ाओं में,अब हम कोहराम से डरते हैं
--११--
बड़ी मुश्किल से कुछ अपने मिले हमको ज़माने में
कहीं उनको न खो दूँ ख्वाहिशें अपनी जुटाने में
बने जो नाम के अपने हैं उनसे दूरियाँ अच्छी 
मिलेगा क्या भला नज़दीकियाँ उनसे बढ़ाने में
--१२--
जब आया हूँ तो बात बताकर जाऊँगा
राजो से परदा आज हटाकर जाऊँगा

जितना जब मुझको जिसने तडपाया था,अब
मैं भी उनको उतना सताकर जाऊँगा
--१३--
ज़िंदगी के दरख्त से सब  उड़ गए परिंदे
दहलीज़ तक भी नहीं आते अब कोई बाशिंदे ।

पास के शजर से जब आती है चहचहाहट
पड़ जाते हैं न जाने क्यों मोह के फंदे ।
--१४--
राह में खड़ी दीवारें गिर जाएं,
दिल से दिल फिर मिल जाएं..

डाली  है  मतभेदों  ने जो दरारे,
प्यार के मरहम से वो मिट जाएं..
--१५--

कहाँ वीराने में कोई, सफ़र पे साथ चलता है
जहाँ का साथ तो हरदम, उजालों में ही पलता है

दिलों से बात जब निकले, ग़ज़ल तब बोल उठती है
ग़ज़ल को जो समझ ले, वो अभी इस में ही ढ़लता है

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर चर्चा।
    इतने लिंक तो आराम से पढ़े जा सकते हैं।
    --
    अभिषेक कुमार अभी जी आपका आभार।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात
    पढ़ने के लिए पर्याप्त सूत्र आज |

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही बेहतरीन ग़ज़लों की प्रस्तुति, सुन्दर प्रस्तुतिकरण।

    जवाब देंहटाएं
  4. बढ़िया सुंदर प्रस्तुति व लिंक्स , अभिषेक भाई व मंच को धन्यवाद !
    I.A.S.I.H - ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर चर्चा...सुन्दर ग़ज़लों की प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  6. अभिषेक कुमार अभी जी, खूबसूरत लिंक्स, उम्दा ग़ज़लें. आपने अलग-अलग मूड की ग़ज़ल पेशकर मंच को गुलजार किया, दिली दाद कबूल करें. बज़्म ए सुखन में अपनी ग़ज़ल को देखकर बेहद ख़ुशी हुई. तहे दिल से शुक्रिया...

    जवाब देंहटाएं
  7. मेरे ब्लॉग और रचना को शामिल करने के लिए हार्द्धिक आभार अभिषेक जी, सुन्दर चर्चा...सुन्दर ग़ज़लों की प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं

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