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सोमवार, मार्च 18, 2019

"उभरे पूँजीदार" (चर्चा अंक-3278)

मित्रों!
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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याद किया करना तर्पन में 

पिता उवाच ….

मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में
मैं ही जानूँ कब बहती है, यह अन्तस् के सूने वन में।।
पारस हूँ, पाषाण समझ कर
रौंद गए वे स्वर्ण हो गए
उनमें से कुछ तो दुर्योधन
कुछ कुन्ती कुछ कर्ण हो गए।
मैं बस बंशी रहा फूँकता, चारागाहों में निर्जन में
मैं क्या जानूँ गंगा-जमुना, सरस्वती है मेरे मन में...
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अनोखा दर्पण 

Sudhinama पर 
sadhana vaid  
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गुरुजी की होली 

देख गुरु को विद्यालय में 👿

🐮गधा बाबू आए ।
बच्चों के रजिस्टर में 🐤
अपना नाम लिखवाए ।।

बोले गुरु जब पढ़ने लिखने 

🙉ढेंचू ढेंचू चिल्लाए ।
सुन गीत गधा के गुरु ने 
🤺मोटे डंडे मंगवाए... 
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झण्डे को तो  

एक सा रहने दो ..... 

चुनाव का माहौल जब छाया नेता जी पर देशभक्ति का जोश छाया सोचा चलो हम भी कुछ नया करते हैं दुकानदार से पूछा भैया देश का झण्डा रखते हो दुकानदार बोला ... हाँ नेता जी सिर्फ रखते ही नहीं बेचते भी हैं बोलो क्या तुम खरीदोगे ... 
झरोख़ा पर 
निवेदिता श्रीवास्तव 
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3 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद सर |

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ! बहुत सुन्दर सूत्र आज की चर्चा में ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी! सादर वन्दे!

    जवाब देंहटाएं

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