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सोमवार, मई 18, 2020

'गरमी में जीना हुआ मुहाल' (चर्चा अंक 3705)

सादर अभिवादन। 
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 
--
आज से हम लॉकडाउन के चौथे चरण में प्रवेश कर गए हैं 

जो आगामी 31 मई 2020 तक के लिए घोषित हुआ है 
कुछ रियायतों / शर्तों के साथ। 
अब तक प्रचंड गर्मी की तपिश से 
हम बचे हुए हैं क्योंकि लगभग हरेक हफ़्ते 
आँधी,ओले, बारिश मौसम का मिज़ाज बदल देते हैं। 
शायद क़ुदरत सड़क पर 
पैदल चलते मज़दूरों की 
इसी तरह आँसू बहाकर 
तपती सड़क को 
ठंडा करने में 
सहायता 
कर रही 
है।
-रवीन्द्र सिंह यादव 
शब्द-सृजन-22 का विषय है-
मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी  

आप इस विषय पर अपनी रचना (किसी भी विधा में) 
आगामी शनिवार (सायं 5 बजे) तक 
चर्चा-मंच के ब्लॉगर संपर्क फ़ॉर्म (Contact Form ) के ज़रिये 
हमें भेज सकते हैं। 
चयनित रचनाएँ आगामी रविवासरीय चर्चा-अंक में 
प्रकाशित की जाएँगीं।
--
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--
   दोहे   

**
पुल ,चौराहे ,सड़क बनाये 
हीरा काटे और तराशे ,
ईंटा ,गारा ,मिट्टी ढोए 
खाकर लाई ,चना  ,बताशे ,
भूखे -नंगे  धूप में निकले 
मानवता को पढ़ने बाबू !
**
     "सांसों के चलने मात्र से झुलसता है क्या पीड़ा से हृदय?"
फुलिया अपनी गाय गौरी को सहलाते हुए पूछती है। 
 "तुम्हें भी मालिक  की याद तो आती होगी? क्यों न आये?
 मुझेसे पहले वह तुझसे जो मिलने आता है।
 बरामदे में पैर रखते ही पूछता है गौरी कैसी है?"
**
Stay Home, Lockdown, Stay Safe

जब सड़कें भरी होती थीं,

हम खोजते थे शांति,
अब सब शांत है,
तो हमें चाहिए कोलाहल.
**
My Photo 
कि आँचल में लुकछिप सदा, खेलता था
कहाँ है बहुत देर,  छिपता नहीं था |
वो अमिया की डाली थकी,  राह तकती
पड़ोसी ,वो दादा ,वो मुनिया, भी कहती ||
कहाँ आजकल है , वो कैसी बसर है
वो बेटा किधर है , वो बेटा किधर है .......
**
मिट्टी के संशय को समझो 
ग्रंथों के पन्ने तो खोलो,
तर्कशास्त्र के सूत्रों पर भी
सोचो-समझो कुछ तो बोलो। 
हठधर्मी सूरज के सम्मुख 
फिर तद्भव की पृष्ठभूमि में 
जीवन की प्रत्याशावाले
तत्सम का पारेषण कर लो।
**
Love romantic poem 
तो कह दो समंदर
से मिलकर पूरी
हुई नदी से कि
वो अपनी धार को
समंदर से खींचकर
फिर से आधी हो जाए।
**

जीवन संकट में पड़ा,भाग रहे हैं लोग।
सारा जग बेहाल हैं,बड़ा विकट ये रोग।
रोजी-रोटी छिन गई,चलते पैदल गाँव।
मिला न कोई आसरा,बैठे पीपल छाँव।
**
ग़म की चादर...ओढ़कर
अपने पेट को..मरोड़कर
खून पसीना.....निचोड़कर
पाई-पाई पैसे .. ..जोड़कर
 **
My Photo 
लॉकडाउन से जब शहर हुए हैं वीरान  
बढ़ चुकी है मन के लॉकडाउन की भी मियाद  
अनजाने भय से मन वैसे ही भयभीत रहता है  
जैसे आज महामारी से पूरी दुनिया डरी हुई है  
मन को हजारों सवाल बेहिसाब तंग करते हैं 
**
 
**
 
नदिया चले, चले रे धारा
चंदा चले, चले रे तारा
तुझको चलना होगा
तुझको चलना होगा
**
** 
आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार। 
रवीन्द्र सिंह यादव 
--

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चर्चा. मेरी प्रस्तुति शामिल करने के लिए शुक्रिया.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छे लिंक्स हार्दिक आभार भाई रवीन्द्र जी

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर सभग चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर चर्चा, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  5. रविन्द्र जी,

    मेरे द्वारा लिखे इस लेख को आपने पढ़ा उसके लिए धन्यवाद और "चर्चा मंच" पर इस लेख की प्रविष्टि के लिए मैं आपका आभारी रहूँगा। एक बार फिर से आपका बहुत बहुत धन्यवाद ....💐💐💐

    जवाब देंहटाएं
  6. सुंदर लिंकों से सुशोभित बेहतरीन प्रस्तुति ,सादर नमस्कार सर

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी आपका आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. शानदार भूमिका के साथ शानदार प्रस्तुति आदरणीय सर.
    मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु सादर आभार.

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत सुंदर चर्चा। मेरी रचना शामिल करने के लिए विशेष आभार।

    जवाब देंहटाएं

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