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सोमवार, अगस्त 31, 2020

'राब्ता का ज़ाबता कहाँ हुआ निहाँ' (चर्चा अंक 3809)

सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 

राब्ता का ज़ाबता 
कहाँ हुआ निहाँ,
करोना का क़हर
झेल रहा है जहां।

-रवीन्द्र सिंह यादव

राब्ता = संपर्क, संवाद , CONTACT
ज़ाबता= आचार संहिता , CODE OF CONDUCT
निहाँ = छिपा / छिपी हुआ / हुई , HIDDEN  


आइए अब पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ ताज़ातरीन रचनाएँ-
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लाइव का ऐसा बढ़ा, मुखपोथी पर रोग। 
श्रोताओं को छात्र सा, समझ रहे हैं लोग।१। 
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अभिरुचियाँ जाने बिना, भोजन रहे परोस।। 
वक्ताओं की सोच पर, होता है अफसोस।२। 
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अध्यक्ष जी के नाम आख़िरी चिट्ठी ! 
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ख़ैर,जाने दीजिए।हम मानते हैं कि आप लोकतंत्र के सच्चे समर्थक हैं।आपका हर कदम लोकतंत्र के लिए ही उठता है।इसके लिए आपका मज़बूत होना ज़रूरी है।जब मज़बूत कदमों से आप आगे बढ़ेंगे तो लोकतंत्र स्वतः मज़बूत हो उठेगा।हमने देखा है कि आप जैसे ही कमजोर होते हैं,लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाता है।दिल की बात कहूँ तो आप इसकी जड़ों से जुड़े हैं।पीढ़ियों से लोकतंत्र को निजी हाथों से थाम रखा है।नहीं तो वह कब का ढह जाता ! इसकी रक्षा हेतु आप संपूर्ण दल को दाँव पर लगा सकते सकते हैं,इसका भरोसा है हमें।
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"प्रेम" 

"प्रेम" शब्द तो छोटा सा है,परन्तु प्रेम में समाया  सत्य विराट से विराटतर है। इस ढाई अक्षर में तीनों लोक में व्याप्त परमात्मा समाया है। प्रेम एक ऐसी डगर है जो सीधे परमात्मा तक पहुँचता है।प्रेम एक ऐसी जगह है जहाँ स्वयं को खोया तो जा सकता है,लेकिन खोजा नहीं जा सकता। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है,जहाँ प्रेमी पूरी तरह मिट जाता है,जहाँ से उसकी कोई खबर नहीं मिलती। प्रेम महाशून्य है,प्रेम महामृत्यु है।
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सूर्य लिखे कुछ चंद्र गढ़े,
कुछ उल्का के नवछंद रचे,
निज पांवों पर खड़े-खड़े 
हम पीड़ा के सौगंध रचे।
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"बरफी"समापन किश्त 
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      कुछ महिनों बाद फिर उन्होने गाँव जाने की बात कही। मैं भी उनका चेहरा देखते ही समझ गई कि केस की तारीख पर जा रही है। पूछने पर बीड़ी पीते हुए हाँ में सिर हिलाया। अब की बार गई भुआ वापस नही लौटी, कुछ महिनों बाद मेरा तबादला कहीं और हो गया। दो-तीन बार काम वश उधर जाना हुआ तो वहाँ भी पहुंची जहाँ वे रहती थीं । उजाड़ खण्डहर घर भुआ के चेहरे की झुर्रियों और सूनी आँखों जैसा ही दिख रहा था उस पर जंग खाया ताला उनके न लौटने की गवाही दे रहा था । आस-पास के लोगों से पूछने पर जवाब मिला - पता नही गाँव गई थी वापस नही लौटी, उम्र भी हो ही रही थी……, कहीं मर-खप गई होगी ।
 मन में उनकी व्यथा की गठरी लिए मैं वापस लौट आई । अक्सर मुझे बरफी भुआ की याद आ ही जाती है और उनके दुखों और कड़वाहटों को याद कर के मन भी उदास हो जाता है।
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ये जरुरी तो नहीं अनुज शुक्ल 

ये जरुरी तो नहीं……..
ख्वाबों में तेरा दीदार करु,
मैं टूटकर तुझसे प्यार करु,
पर तु भी मुझसे प्यार करें
ये जरुरी तो नहीं……..
माना तुम्हारे हजारों दिवाने है जमाने में,
पर मेरी तरह तुम्हें चाहे कोई,
ये जरुरी तो नहीं……..

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अंत भला तो सब भला 


अरे परिवार बाद में आया होगा शायद तू देख नहीं पाया हो?काश मेरी भी ज़िंदगी ऐसी होती!मेरा बेटा भी साथ बैठकर हँसता.!

प्रभात को काम से ही फुर्सत नहीं मिलती जो दो घड़ी साथ बैठे!पर उसमें एक बात बहुत अच्छी है,वो यह कि माँ-बाप को किसी तरह की तकलीफ़ न हो पाए।प्रभात यह बराबर ध्यान रखता है।दीनदयाल बड़े ही गर्व से बोले।
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मुक्तक 
ये हमारी इंसाफ की लडा़ई को  
कमजोर करने पर आमादा है 
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हर सबूत को हर सत्य को तोड़ मरोड़ करने पर आमादा हैं 
वो पत्रकारिता के नाम पर कातिलों से गठजोड़ करने पर आमादा हैं
आतंकियों और कातिलों को मासूम बनाकर tv चैनलों पर दिखाने वाले
ये हमारी इंसाफ की लडा़ई को कमजोर करने पर आमादा हैं
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ज़िंदा रूह - - 



हर एक मोड़ के फ़सील पे बैठे हुए

हैं लोग, लिए हाथ में अदृश्य

फंदा, गुज़रें भी तो किस

गली से हर तरफ
हैं छुपे हुए
फ़रेब
के ख़ूबसूरत जाल, अभी अभी उस
आश्रम का फीता काट गए हैं
विधायक जी, लिहाज़ा
चुप रहना ही है
बेहतर
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अनपढ़ माँ की सीख 

अभी ही कॉलेज जाना शुरू किया छवि ने।
स्कूली अनुशासन से मुक्त उसके तो जैसे पर ही लग गये अपनी ही कल्पनाओं में खोयी रहती । माँ कुछ पूछे तो कहती ; माँ ! आप ठहरी पुराने जमाने की अनपढ़,समझ नहीं पाओगी।
आज माँ ने उसे फोन पर सखियों से कहते सुना कि मुझे मेरे कॉलेज के लड़कों ने दोस्ती के प्रस्ताव भेजें हैं, समझ नहीं आता किसे हाँ कहूँ और किसे ना...।
तो माँ को उसकी चिन्ता सताने लगी,कि ऐसे तो ये गलत संगति में फंस जायेगी। पर इसे समझाऊँ भी तो कैसे ?..
बहुत सोच विचार कर माँ ने उसे पार्क चलने को कहा।  वहाँ बरसाती घास व कंटीली झाड़ देखकर छवि बोली;   "माँ! यहाँ तो झाड़ी है, चलो वापस चलते हैं"! 
--
गुज़रे छह महीने 

भविष्य बन मिलोगे यायावर की तरह तुम 
कुछ पल बैठोगे बग़ल में अनजान की तरह। 
ये दिन महीने तुम्हें अपने ज़ख़्म दिखाएँगे
  मरहम लाने का बहाना बनाकर
 उन्मुक्त पवन की तरह बह जाओगे तुम। 
--

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार। 

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

11 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक रचनाओं का खूबसूरत संकलन - - मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  2. उपयोगी लिंकों के साथ सार्थक चर्चा।
    आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति । सृजन को चर्चा में सम्मिलित करने के लिए सादर आभार आ.रविंद्र सिंह जी ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन लिंकों से सजी सुंदर प्रस्तुति सर,मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  6. शानदार लिंको से सजी लाजवाब चर्चा प्रस्तुति।सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
    मेरी रचना को यहाँँ स्थान देने हेतु हृदयतल से धन्यवाद आपका।

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  8. सराहनीय भूमिका के साथ बहुत ही सुंदर चर्चा प्रस्तुति। मेरी रचना को स्थान देने हेतु सादर आभार आदरणीय सर।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  9. बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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