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सोमवार, नवंबर 09, 2020

'उड़ीं किसी की धज्जियाँ बढ़ी किसी की शान' (चर्चा अंक- 3880)

 सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।  

जीत-हार के फेर में 

फिर दुनिया हुई हैरान,

उड़ीं किसी की धज्जियाँ

बढ़ी किसी की शान। 

#रवीन्द्र_सिंह_यादव 

आइए पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ रचनाएँ-

--

 गीत 

"पुराना गाँव-नीम की छाँव" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

घर-घर में हैं टैलीवीजिनसूनी है चौपाल,
छाछ-दूध-नवनीत न भाताचाय पियें गोपाल,
भूल गये नाविक के बच्चे, आज चलानी नाव।
नहीं रही अपने आँगन मेंआज नीम की छाँव।।
--

 नये अर्थ दे कर

दर्द...

जिंदगी को मांजता है

अंधेरों से डर कर

भागती जिंदगी की

अंगुली थाम..

ला खड़ा करता है

धूप-छाँव की 

आँख-मिचौली के

आँगन में...

--

शुक्रगुज़ार हूँ मैं इस ज़िन्दगी का !

महीना कब शुरू हुआ कब ख़त्म 

सब कुछ तो उन्नीस- बीस है यहाँ 

कोविड ने इस तरह गले लगाया के 

किसी से गले मिलने लायक न रखा 

--

'शरद' ने पूछ लिया आज | ग़ज़ल | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

कभी मिला, न गुमा, उसको  ढूंढते क्यों हो ।
खुद अपने आप से, बेवज़ह जूझते क्यों हो ।

ले जा के छोड़ दे यादों के एक जंगल में 
उस एक राह पे हरदम ही घूमते क्यों हो ।
--
प्रतिष्ठा 
काम हमेशा  कीजिये , जो नाक ऊँची  होय। 
अपनी भी इज्जत बढ़े ,घर की इज्जत होय।।

साधु /संत 

मन संशय नाहीं दूर ,कैसे    संत   कहाय। 
काम राग छूटे नहीं , फिर भी संत कहाय।।
--
बहुत हो गया अब,
छोड़ो कॉपी-किताब,
फेंक दो चाक-पेंसिल,
बंद करो भागना अब 
घंटी की आवाज़ पर.
--

तुम कवि हो इसलिए दुःखी हो,
तुम कुछ ज़्यादा ही सोचते
हो, तुम्हारे सभी दोस्त
हैं सिर्फ़ काल्पनिक
चरित्र, रात -
दिन
तुम उन्हीं से खेलते हो, तुम -
कुछ ज़्यादा ही सोचते
हो, तुम अदृश्य
मीनार तक
पहुँचने
का
--
गाँव के बाहर पीपल के नीचे 
अँधेरी रात में ओढ़े चाँदनी कंधों पर 
मुखमंडल पर सजाए सादगी की आभा 
शिलाओं को सांत्वना देता-सा लगा।

मुँडेर पर बैठा उदास भीमकाय पहर 
सूनेपन की स्याह काली रात में बदला लिबास 
षड्यंत्र की बू से फुसफुसाती पेड़ की टहनियाँ 
गाँव का एक कोर जलाता-सा लगा।
--
विस्फोट यूँहीं नही हुआ करते..
सब्र का ईंधन
भावनाओं का ताप
आक्रोश का ऑक्सीजन
जब मिलते हैं
सब्र गड़गड़ाता है
--

भोली भाली मुनिया रानी । पीती थी वह दिनभर पानी ।।

दादा के सिर पर चढ़ जाती। बड़े मजे से गाना गाती ।।

दादा दादी ताऊ भैया । नाच नचाती ताता थैया।।

खेल खिलौने रोज मँगाती। हाथों अपने रंग लगाती।।

--

उदास दिनों में क्षणभंगुर होते सबके सब

उदास दिनों में 
किससे कहे और 
क्या कहे,
कहाँ से कहे,
किस ओर से पहले
और किस ओर से नहीं ,
क्या है सही और क्या है ग़लत 
इन सबके बीच फँस जाती हैं साँसे
किस दिशा में सूरज होगा  
रौशनी भी क्या हाथ चूमेगा  
जीवन चक्र में फँसी हुई राहें 
उदास दिनों की सौ बात बताये
--

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।

रवीन्द्र सिंह यादव 

16 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  2. रवीन्द्र सिंह यादव जी,
    आभारी हूं कि आपने चर्चा मंच में मेरी पोस्ट को स्थान दिया। चर्चा मंच के सुधी साहित्यकारों एवं पाठकों से जुड़ना सदा सुखद लगता है।
    आपको हार्दिक धन्यवाद 🙏
    - डॉ शरद सिंह

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत रोचक एवं सुंदर पठन सामग्रियां।

    जवाब देंहटाएं
  4. पठनीय लिंकों के साथ सुन्दर प्रस्तुति।
    आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।।

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह... उत्तम पठन सामग्रियों का सुंदर संयोजन...

    बहुत शुभकामनाएं रवीन्द्र सिंह यादव जी
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर सूत्र संयोजन। मेरी रचना को संकलन में स्थान देने के लिए सादर आभार रवीन्द्र सिंह जी ।

    जवाब देंहटाएं
  7. लिंक के साथ प्रस्तुति बहुत ही सुंदर।
    श्री रवीन्द्र सिंह यादव जी आप का बहुत बहुत आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. सप्तरंगों से सजा चर्चा मंच दीपोत्सव को और अधिक ख़ूबसूरत बनाता हैं, मुझे शामिल करने हेतु हार्दिक आभार - - दीप पर्व की शुभकामनाएं सभी को।

    जवाब देंहटाएं
  9. सराहनीय संग्रहनीय संकलन हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ही सुंदर संकलन।मेरे सृजन को स्थान देने हेतु सादर आभार सर।

    जवाब देंहटाएं
  11. आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  12. आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  13. आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  14. Aabhari hun aapka ke aapne charcha manch par meri kavita ko pradarshit kiya, dhanyavaad, aapko deepawali ki hardhik shubhkamanayein aabhaar

    जवाब देंहटाएं

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