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बुधवार, नवंबर 18, 2020

"धीरज से लो काम" (चर्चा अंक- 3889)

 मित्रों!
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ अद्यतन लिंक।
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दोहे "लुटा सभी मकरन्द"  
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जीवन के दो चक्र हैं, सुख-दुख जिनके नाम।
दोनों ही हालात में, धीरज से लो काम।।
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सरल सुभाव अगर नहीं, धर्म-कर्म सब व्यर्थ।
वक्र स्वभाव मनुष्य का, करता सदा अनर्थ।।
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जीवन प्रहसन के सभी, इस दुनिया में पात्र।
सबका जीवन है यहाँ, चार दिनों का मात्र।।
उच्चारण   
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आज भी डाकिया आता है

राहत कम आफ़त ज़्यादा लाता है
पोस्ट कार्ड नहीं रजिस्ट्री ज़्यादा लाता है
ख़ुशियों का पिटारा नहीं
थैले में क़ानूनी नोटिस लाता है। 
Ravindra Singh Yadav, हिन्दी-आभा*भारत 

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क्या माँगती  है माँ ? 
चंद शब्द  प्यार के, 
 दो जून की रोटी, 
ज़िदगी में लुटायी  मुहब्बत का कुछ हिस्सा  ! 
अनीता सैनी, गूँगी गुड़िया  
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  • कब तक डराएगा, तेरे बिना जीने का डर 
  • मुझे ख़ुदा न समझना, कहा था मैंने मगर 
    तूने पागल समझा मुझे, किसके कहने पर।

    मुझ पर अब ज़रा-सा यक़ीं नहीं रहा तुझको
    क्या इससे बढ़कर होगा क़ियामत का क़हर। 
दिलबागसिंह विर्क, Sahitya Surbhi  
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जल भँवर 
एक ही केंद्र बिंदु से जीवन के असंख्य
जल भँवर उभरे, कुछ किनारे तक
पहुंचे कुछ उभरते ही डूब गए,
कुछ कबीर थे, सांसों के
ताने - बाने बुनते
रहे, 
शांतनु सान्याल, अग्निशिखा  
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परिचित जो अंतर पनघट से 

जग जैसा है बस वैसा है

हर नजर बताती कैसा है

 

कोई इक बाजार समझता

कोई खालिस प्यार समझता

विकट किसी को सागर जैसा

कोई धारे गागर जैसा

 

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आ अब लौट चलें ...... 

छोड़ फेसबुक की झूठी रंगीन, फ़रेबी,दुनिया से......... अपने ब्लोगर की आभासी दुनिया में ,...

जहाँ थम्स अप का अंगूठा नही, चापलूसी की टिप्पणी नही दिल से निकले प्यारे अल्फाजों की पुकार है दुलार है और समझाने के लिए प्यार से भरी फटकार भी है....सब अपने हैं न... बस इसी लिए, अपने आभासी परिवार के दुःख सुख के साथी... 

अशोक सलूजा, यादें... 
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भारतीय-आर्य शाखा ही उन बारह भारोपीय और तीन अन्य  शाखाओं में  एक मात्र शाखा रही  जो अपनी  मूलभूमि में बची रह गयी। यहीं वैदिक आर्य या पुरुओं की भाषा थी।अन्य पूर्वी जनजातियों के मुक़ाबले इस वैदिक सभ्यता का अध्ययन करने से पहले हमें अणु तथा दृहयु जैसी पश्चिमी जनजातियों के सापेक्ष इनकी स्थिति का आकलन करना होगा। ऐसा करना इस परिप्रेक्ष्य में  भी वांछित होगा कि ये जनजातियाँ भारत से बाहर चली जाने वाली अन्य भाषायी शाखाओं के आद्य स्वरूप को बोलने वाली जनजातियाँ थीं। 

‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के परिप्रेक्ष्य में वैदिक भारतीय-आर्य विरासत को तीन चरणों में बाँटा जाता है... 

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बावफ़ा 
Onkar Singh 'Vivek', मेरा सृजन  
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जीस्त के ज़ख्मों की कहानी तुम्हें सुनाती हूँ   
मेरी उदासियों की यही है वसीयत   
तुम्हारे सिवा कौन इस को सँभाले   
मेरी ये वसीयत अब तुम्हारे हवाले   
हर लफ्ज़ जो मैंने कहे हर्फ़-हर्फ़ याद रखना   
इन लफ़्ज़ों को जिंदा मेरे बाद रखना 
डॉ. जेन्नी शबनम, लम्हों का सफ़र  
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यूँ ही नहीं आती, मिठास रिश्तों में.. 

 रिश्ता होने से रिश्ता नहीं बनता,

   रिश्ता निभाने से रिश्ता बनता है । 

वैसे यह सच है--

  यूँ ही नहीं आती,मिठास रिश्तों में..

 गुलकंद के लिये,फूलों को शहीद होना पडता है..!

Sawai Singh Rajpurohit, AAJ KA AGRA 
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कुण्डलिया 
अंधकार प्रतीक बिन तुकबंदी का ज्ञान;
तुकबंदी का ज्ञान पटक कर हाथ सुनाते,
मिल जाता है मंच, कवि जी खूब कहलाते;
वाहवाही मिलती वहां, रहता नहीं अभाव,
घिसे पिटे से चुटकुले, देते अच्छा भाव । 
सरोज दहिया, चिंतन  
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आज के लिए बस इतना ही...!
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6 टिप्‍पणियां:

  1. एक बेहतरीन चर्चा में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आदरणीय शास्त्री जी आपका दिल से बहुत-बहुत आभार प्रकट करता हूं

    जवाब देंहटाएं
  2. रोचक लिंक्स से सुसज्जजित चर्चा। मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया लिंक्स

    आदरणीय आपका चयन-संयोजन सदैव अति उत्तम रहता है।
    नमन,
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं

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