सादर अभिवादन !
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी विज्ञजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
आज की चर्चा प्रस्तुति का शीर्षक चयन - आदरणीया डॉ. वर्षा सिंह जी की ग़ज़ल से ।
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प्रस्तुत हैं आज के चयनित लिंक्स व रचनाकारों के सृजन की झलकियां-
उसूल बाँटता रहा- डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लक्ष्य तो मिला नहीं, राह नापता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
पथ में जो मिला मुझे, मैं उसी का हो गया।
स्वप्न के वितान में, मन नयन में खो गया।
शूल की धसान में, फूल छाँटता रहा।
काव्य की खदान में, धूल चाटता रहा।।
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दौर आज का - डॉ. वर्षा सिंह (संग्रह - सच तो ये है)
समय भूमिका लिखता है ख़ुद, और समापन भी
जीवन के हर पल को देता है वह इक ज्ञापन भी
ये जो पत्ती हरी हुई है, फूल गुलाबी-से
ये चर्चाएं हैं मौसम की और विज्ञापन भी
दौर आज का यक्ष सरीखा 'कैटवॉक' करता
उसके सभी पुरातन में है एक नयापन भी
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”बड़ी बहू कहे ज़िंदगीभर कमाया, किया क्या है? एक साइकिल तक नई नहीं ख़रीदी।”
बग़लवाली चारपाई पर ठुड्डी से हाथ लगाए बैठी परमेश्वरी अपने पति से कहती है।
”जब हाथ-पैर सही-सलामत तब गाड़ी-घोड़ा कौ के करणों।”
निवाला मुँह में लेते समय हाथ कुछ ठनक-सा गया, हज़ारी भाँप गया कि बहू दरवाज़े के पीछे खड़ी है।
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जीवन के रीते
तिरेपन बसंत
मेरे बीते
तिरेपन बसंत
बसंत की
प्रतीक्षा का
हो न कभी अंत
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तुम्हारी आँखें हमारी आँखों से अलग थोड़े ही है "
"तुम्हारी आँखें हमारी आँखों से अलग थोड़े ही है "
ये कहकर माँ ने मनु को इजाजत भी दे दिया और हिदायत भी कि - पसंद वही करना जो हमारे संस्कारों में बँधा हो, हमारी संस्कारों से बाहर जाने की इजाजत नहीं है तुम्हें। इसीलिए तो, बुजुर्ग हमारे "मार्गदर्शक भी होते है और मार्गरक्षक भी।"
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खो दिया आराम जी का
खो दिया है चैन दिल का,
दूर आके जिंदगी से
खो दिया हर सबब कब का !
गुम हुआ घर का पता ज्यों
भीड़ ही अब नजर आती,
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चलो एक कहानी लिखें ...संवेदनाओं को
अक्षर की कटारों में
समय की धार लिखें।
छांव के नाम लिखें...
इज़हार-ए-मुहब्बत धूप का।
ज़रूरत आन पड़ी तो...
आग को आधार लिखें।
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इधर कुछ लोग सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में देने के विरोध में रोज ही कुछ ना कुछ बयान दर्ज करवाते रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे सरकार के हर काम का विरोध करने को निर्देशित हैं सिर्फ इसीलिए ऐसा किया जा रहा है। क्या कभी उन्होंने उस कंपनी की सेवा का जायजा लिया है ? क्या वे उसकी कार्यप्रणाली से वाकिफ है ?
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आँसू बहाये, पाँव भी पटके
बड़ी देर तक
ठुनकती भी रहीं
पर मुझसे दूर न हुईं
इनको भुलाने की फ़नकारी में
मैं माहिर न हो सकी
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पूजा जी ने पूछा एक सवाल
किसने कैसे मनाया अपना रविवार,
सुनाना चाहा जो हाले दिल तो
बन गयी यह कविता मज़ेदार !
दिन था रविवार
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मैंने तो हिन्दी के महान कवि दुष्यंत कुमार जी
की इन पंक्तियों को सदा अपने मन में बसाकर
रखा है - 'तुम्हारे दिल की चुभन ज़रूर कम
होगी, किसी के पैर से काँटा निकालकर देखो' ।
मुझे रामचरितमानस पूरी कंठस्थ नहीं लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी की इन पंक्तियों को मैं
कभी एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं करता हूँ - 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई' ।
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आज का सफर यहीं तक…
फिर मिलेंगें 🙏🙏
"मीना भारद्वाज"
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प्रिय मीना भारद्वाज जी,
जवाब देंहटाएंसुप्रभात !!!
यह आपकी सदाशयता है कि आपने मेरी ग़ज़ल की पंक्ति से आज के अंंक का शीर्षक बनाया है। मुझे यह मान देने के लिए हृदय से आभार आपका 🙏❤️🙏
आपके द्वारा किया गया लिंक्स चयन हमेशा बहुत अच्छा रहता है।
शुभकामनाओं सहित,
सस्नेह,
डॉ. वर्षा सिंह
पठनीय लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
सुंदर संकलन संयोजन तथा रोचक रचनाओं के सार्थक प्रस्तुतीकरण के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय मीना जी..सादर सप्रेम जिज्ञासा सिंह..
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज का चर्चामंच ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंवाह अनुपम चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंकों से सजा सुंदर चर्चा अंक मीना जी,मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार एवं सादर नमन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय मीना दी। सभी रचनाकारो को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने हेतु दिल से आभार।
सभी रचनाएँ समय रहते पढूंगी।
सादर