शीर्षक पंक्ति: आदरणीया कुसुम कोठारी जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
शनिवासरीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
आज भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीया कुसुम कोठारी जी की रचना का काव्यांश-
तन बसंती मन बसंती
और बसंती बयार
धानी चुनरओढ़ के
धरा का पुलकित गात सखी।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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गीत "कोयल रोती है कानन में"

सूरज शीतलता बरसाता,
चन्दा अगन लगाता जाता,
पागल षटपद शोर मचाता,
धूमिल तारे नीलगगन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
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तन बसंती मन बसंती
और बसंती बयार
धानी चुनरओढ़ के
धरा का पुलकित गात सखी।
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प्रेम कलह के इस रुत में
हर पल रहती हूँ , तेरे ही युत में
तुमसे मैं भी लड़ती , मन ही मन में
क्या कहूँ ? तेरे बिना , कुछ नहीं है जीवन में
मेरे प्राणप्यारे परदेशी पिया !
जितनी जल्दी हो सके , तुम आना
अपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
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हथेलियों से उड़ गए जुगनू,- -
बाक़ी हैं एहसासों की
ख़ुशी, झूलते हैं
शबनमी
ख़्वाब,
कटी पतंगों की कंटीली डोर से,
बहुत मुश्किल है समझना,
मुहाजिर परिंदों की
आवारगी,
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भोली सी मुस्कान ओढ़कर
सेल्फी तो इक ले डाली,
पर दीवाने दिल से पूछा
है क्या वह अपने से राजी !
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जो कल ही ब्याह के आयी थी
उसके क्रंदन का प्रलाप सुनो
इस रुदन की पीड़ा से हृदय
जाता है थर थर कांप सुन
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हे ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??
हर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..
देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??
मैंने सुना..तप करना होगा ..
तुम तक पहुंच सकूं..
संसार से उबरना होगा..।
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मैं तुम्हें मान लूं प्यार में नत गगन
और मुझको क्षितिज की धरा तुम कहो।
एक स्पर्श होता है सावन भरा
क्या नहीं दिख रहा सब हरा, तुम कहो।
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नदी | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
रेत -पानी बुनी क दरी है नदी
आजकल तो लबालब भरी है नदी
पतझड़ों की उदासी, हंसी फूल की
मौसमी सिलसिलों से घिरी है नदी
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बिन माँ की बेटियाँ
होती हैं थोड़ी अल्हड़ थोड़ी बिंदास
घूमती रहती हैं आजीवन धुरी बन कर
अपनी माँ के आसपास
माँ की अनुपस्थिति, और
जिम्मेवारियों का बोझ
बना देता है उन्हें वक़्त से पहले समझदार
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"उसने लगभग उदास होते हुये कहा,आजकल लगता है अंतरात्मा ने बात करना बंद कर दिया है मनुष्यों से!"
"नहीं बेटा मनुष्य अंतर्रात्मा की आवाज़ सुनना नहीं चाहते हैं क्योंकि अंतरात्मा के बताये राह पर चलना आसान नहीं होता है।"
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यह सोचने की बात है कि जिन्हें शायद यह भी ना मालुम हो कि भारत दुनिया के किस कोने में है, उन्हें अचानक किस अलौकिक प्रेणना की वजह से ऐसा दिव्य ज्ञान हासिल हो गया ! बात साफ़ है कि वह अलौकिक प्रेणना उन्हें ''भौतिक प्रसाद'' के रूप में उपलब्ध हुई ! आजकल किसी मशहूर कलाकार से समय लेने के लिए उसके मैनेजर से ही बात करनी पड़ती है ! वह जैसा चाहता है वैसा ही होता है ! सारा खेल पैसे का हो गया है !
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लेकिन ‘बरेली की बर्फ़ी’ में मौलिकता का नितांत अभाव है । कुछ वर्षों पूर्व मैंने फ़िल्मों की स्वयं समीक्षा लिखने का निर्णय इसीलिए लिया था क्योंकि मैं कथित अनुभवी एवं प्रतिष्ठित समीक्षकों द्वारा लिखित कई समीक्षाओं में तथ्यपरकता तथा वस्तुपरकता का अभाव पाता था । फ़िल्मकार तो अपनी इधर-उधर से उठाई गई कथाओं के मौलिक होने के ग़लत दावे करते ही हैं, समीक्षक भी प्रायः फ़िल्मों की कथाओं के मूल स्रोत को या तो जानने का प्रयास नहीं करते या फिर उसकी बाबत ऐसी जानकारी अपनी समीक्षाओं में परोसते हैं जो तथ्यों से परे होती है ।
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आज का सफ़र यहीं तक
फिर फिलेंगे
आगामी अंक में
प्रिय अनीता सैनी जी,
ReplyDeleteमेरी ग़ज़ल को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार...
हार्दिक धन्यवाद 🌹🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
हर अंक की तरह यह अंक भी आपके श्रम से सुसज्जित है अनीता जी ....इतने अच्छे साहित्यिक लिंक्स चर्चा मंच में संजोने के लिए साधुवाद 🌹🙏🌹
ReplyDeleteप्रिय अनीता सैनी जी,
ReplyDeleteबसन्त के आगमन का संदेश देती चर्चा बेहद दिलचस्प है।
मेरी पोस्ट को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏
शुभकामनाओं सहित,
डॉ वर्षा सिंह
बसन्तोस्तव का सन्देश देती सार्थक चर्चा।
ReplyDeleteआपका आभार अनीता सैनी दीप्ति जी।
प्रिय अनीता जी, श्रमसाध्य कार्य एवं सुन्दर रोचक रचनाओं के संकलन संयोजन तथा प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं..मेरी रचना शामिल करने के लिए हृदय से आपका आभार व्यक्त करती हूँ..सादर नमन..
ReplyDeleteवसन्त के आगमन पर चर्चा मंच का यह सुंदर अंक अनेक पठनीय रचनाओं को समेटे है, आभार !
ReplyDeleteबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाओं से सजा सुंदर चर्चा अंक प्रिय अनीता,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार
ReplyDeleteचर्चामंच पर प्रथम सम्मिलन हैतु हृदय से आभार मंच को और अनिता जी को,मेरी कविता को मंच का एक कोना देने के लिए बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteउम्दा चर्चा।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत चर्चा प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत चर्चा प्रस्तुति
ReplyDeleteछल-छल छलके हुलास चयनित सूत्रों से । बासंती आभार एवं शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteसही कहा अमृता जी, बसंत बहार पर ये रचनाऐं गजब हैंं...
Deleteसभी एक से बढ़कर एक ब्लॉगपोस्ट पढ़ने को मिलीं अनीता जी, धन्यवाद इस प्रयास के लिए...कुसुम जी की कविता से शुरुआत बहुत खूब रही...कि तन बसंती मन बसंती
ReplyDeleteऔर बसंती बयार
धानी चुनरओढ़ के
धरा का पुलकित गात सखी।..
आत्मीय आभार आपका अलकनंदा जी आपने मेरी पंक्तियों को बहुमूल्य कर दिया ।
Deleteरचना को महक देती सराहना।
सस्नेह आभार।
सांगीतिक अर्थपूर्ण गीत जीवन की झरबेरियों की चुभन दुखन लिए आँचल निहारता आस का
ReplyDeleteवीरू भाई -सुन्दर गीत (मधुर) शास्त्री जी का।
- डॉ. वर्षा सिंह
रेत -पानी बुनी इक दरी है नदी
आजकल तो लबालब भरी है नदी
पतझड़ों की उदासी, हंसी फूल की
मौसमी सिलसिलों से घिरी है नदी
आग से, बिजलियों से इसे ख़ौफ़ क्या
प्यार जैसी हमेशा खरी है नदी
प्यास सबकी अलग, चाह सबकी जुदा
सबकी अपनी अलग दूसरी है नदी
लेश भर भी नहीं मद रहा है कभी
बन के झरना शिखर से झरी है नदी
फ़र्क करती नहीं ज़ात में, पांत में
बांटती है ख़ुशी, इक परी है नदी
बंधनों में बंधी घाट से घाट तक
मुस्कुराती सदा, बावरी है नदी
हर सदी पीर बो कर गई देह में
वक़्त की आरियों से चिरी है नदी
धूप में सुनहरी, छांह में छरहरी
साथ "वर्षा" रहे तो हरी है नदी
बेहतरीन ग़ज़ल कही है डॉ वर्षा सिंह ने
शरद की ग़ज़ल बेहतरीन रही
blogpaksh2015.blogspot.com
kabirakhadabazarmein.blogspot.com
सांगीतिक अर्थपूर्ण गीत जीवन की झरबेरियों की चुभन दुखन लिए आँचल निहारता आस का
ReplyDeleteवीरू भाई -सुन्दर गीत (मधुर) शास्त्री जी का।
सूरज शीतलता बरसाता,
चन्दा अगन लगाता जाता,
पागल षटपद शोर मचाता,
धूमिल तारे नीलगगन में।
कैसे फूल खिलें उपवन में?
veerubhai1947.blogspot.com
माँ की कमी को बस उसका दिल ही जान पाता है,
ReplyDeleteइस दर्द को कोई कहाँ समझपाता है
हैं होती हैं बिन माँ की बेटियां
थोड़ी अल्हड़ थोड़ी बिंदास
हंसते चेहरे में होता है उन्हें भी दर्द का आभास।
सुप्रिया"रानू"
blogpaksh2015.blogspot.com
ईश्वर ! तुम रहते कहां हो ??
ReplyDeleteहर जगह मौजूद हो ..ऐसा पता है मुझे..
देख लूं तुम्हें.. दिखते कहां हो??
मैंने सुना..तप करना होगा ..
तुम तक पहुंच सकूं..
संसार से उबरना होगा..।
साँच कहूं सुन लेओ सभै ,
जिन प्रेम कियो तीन ही प्रभ पायो -
शीशा -ए -दिल में छिपी तस्वीरें यार ,
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।
अपने स्वरूप को पहचानों ,अपने शाश्वत होने को जानो ,शरीर को अपनापन मत मानो ,किराए का मकान भर है ,तुम वो नहीं हो ,न शरीर न सम्बन्ध।
ईश्वर को उलाहना देती रचना।
चिदानंद रूपा शिवोहम शिवोहम
वीरुभाई
प्रेम कलह के इस रुत में
ReplyDeleteहर पल रहती हूँ , तेरे ही युत में
तुमसे मैं भी लड़ती , मन ही मन में
क्या कहूँ ? तेरे बिना , कुछ नहीं है जीवन में
मेरे प्राणप्यारे परदेशी पिया !
जितनी जल्दी हो सके , तुम आना
अपनी सौं , कोई कलह न करूं मैं तुमसे
बस , मिलन रुत संग लिए आना .
विरह की शश्वत आंच को दुलराती रचना शब्दों की अर्थच्छटा देखते ही बनती है विरह ही प्रेम का टिकाऊ पक्ष है -तुम मेरे पास होते हो ,जब कोई दूसरा नहीं होता
अमृता जी की अनुपम रचना ,आपकी दिव्यता को प्रणाम।
वीरुभाई
veerusa.blogspot.com
vageeshnand.blogspot.com
अत्यंत विशिष्ट रचनाओं से सजी सुंदर,सुगढ़ प्रस्तुति में मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteसादर।
बसंत पर मेरे उद्गारों को शीर्ष भूमिका पर सजा कर मुझे और रचना को जो सम्मान दिया है उसके लिए मैं हृदय से अनुग्रहित हूं।
ReplyDeleteसुंदर चर्चा अंक! छांट छांट कर फूल बिने हैं बनमाली ने
शानदार लिंक शानदार साहित्य सृजक
सभी को बधाई।
मेरी रचना को नये आयाम देने के लिए हृदय तल से आभार।
सादर।