सादर अभिवादन !
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी विज्ञजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
आज की चर्चा का शीर्षक आदरणीया कुसुम कोठारी जी की गीतिका "जीवन यही है" से लिया गया है ।
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इसी के साथ बढ़ते हैं अद्यतन सूत्रों की ओर-
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रूप मोहक बसन्ती छाया
बौराई गेहूँ की काया,
फिर से अपने खेत में।
सरसों ने पीताम्बर पाया,
फिर से अपने खेत में।।
हरे-भरे हैं खेत-बाग-वन,
पौधों पर छाया है यौवन,
झड़बेरी ने 'रूप' दिखाया,
फिर से अपने खेत में।।
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कुनकुनी सी धूप ने भी बात अब मन की कही है।
कुछ दिनों तक हूँ सुहानी फिर तपे मुझ से मही है।।
आज जो मन को सुहानी कल वही लगती अशोभन।
काल के हर एक पल में मान्यता ढहती रही है ।।
एक सी कब रात ठहरी आज पूनम कल अँधेरी।
सुख कभी आघात दुख का मार ये सब ने सही है।।
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अनमनेपन का
प्रकृति से अथाह प्रेम
झलकता है
उसकी आँखों से
प्रेम में उठतीं
ज्वार-भाटे की लहरें
किनारों को अपने होने का
एहसास दिलाने का प्रयत्न
बेजोड़पन से करती हैं
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बैठ झरोखे सोच रही हूँ
क्यूँ,पतझड़ के दिन आते हैं
हर वर्ष बसंत आकर
क्या, जीवन-पाठ पढ़ाते हैं
परिवर्तन है सत्य सृष्टि का
याद दिलाकर जाते हैं
रंग बदलते शाखों के पत्ते
धीरे-धीरे मुरझाते हैं
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छप्पर नहीं मिला तो कभी दर नहीं मिला।
मानो यक़ीन, मुझको कभी घर नहीं मिला।
जिसमें लिखा सकूं मैं रपट, खोए चैन की
पूरे शहर में एक भी दफ़्तर नहीं मिला।
आंखों की झील में हैं कई कश्तियां बंधीं
उतरे जो पार, कोई मुसाफ़िर नहीं मिला।
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याद न तब भूली जायेगी |
थकन मिटाने को निज तन की ,
पीड़ा पीकर के जीवन की ,
दो पल जब निशि की छाया में ,
सारी दुनियां सो जायेगी |
याद न तब भूली जायेगी |
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डॉ. वर्षा सिंह (संग्रह - सच तो ये है)
रात भर नींद क्यों टूटती रह गई
मैं हवा से वज़ह पूछती रह गई
इत्तेफ़ाक़न हुआ या कि साज़िश हुई
ख़ुद नदी धार में डूबती रह गई
इस तरफ है अंधेरा, उधर घोर तम
रोशनी बीच में झूलती रह गई
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अब टूट कर न बिखरे, ये बचे हुए सपने
मेरे रोशनदान पर एक बुल बुल
रोज दाना चुगने आती है
मैंने उससे कहा तुम्हारे
पंख मुझे उधार देदो
मैं स्त्री हूँ
मैं सपने देख भी सकती हूँ
सपने चुरा भी सकती हूँ
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मेरे गाँव में सुबह-सुबह
बैलगाड़ियाँ आती थीं,
भरी होती थीं उनमें
खेतों की ताज़ी सब्जियाँ,
सामने बैठे रहते थे
बैलों को हाँकते किसान.
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देख दिखावे के पीछे
रास नहीं गलियाँ आती।
जीवन बीता जिस घर में
खाट नहीं वो मन भाती।
धन वैभव सिर चढ़ बोला
भूल गए अपने भाई
जीतने की होड़ ऐसी…
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एकाकी रहने की जिद नही
ये तो है नियति मेरी
खुद से मिल खुद में रहूंगी
यही अंतिम परिणिति मेरी
भ्रम के इस गहरे भंवर से
अब निकलने दो मुझे !
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अदृश्य स्वर भिक्षां देहि, अगोचर रूप
दशासन, जीवन लाँघ जाए सभी
रेखाएं, प्रथम पंक्ति का वो
है प्यादा, उसका जीना
क्या और मरना
क्या,
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सेब को छीलकर खाना चाहिए या बिना छीले खाए
फाइबर, ऐंटिऑक्सिडेंट्स, विटामिन्स और मिनरल्स से भरपूर सेब सेहत के लिए कई तरह से फायदेमंद है। लेकिन सेब को छीलकर खाओ तो छिलकों के साथ कई विटामिन्स भी निकल जाते है। और बिना छिले खाओ तो मोम और कई तरह के कीटकनाशक पेट में चले जाते है। तो ऐसा क्या किया जाए ताकि विटामिन्स भी मिले और मोम या कीटनाशक पेट में भी न जाए?
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आपका दिन मंगलमय हो..
फिर मिलेंगे 🙏
"मीना भारद्वाज"
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बेजोड़ लिंकों से सजी शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरे सृजन को स्थान देने हेतु सादर आभार आदरणीय मीना दी।
सभी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर
सुन्दर प्रस्तुति. मेरी कविता को स्थान देने हेतु आभार.
जवाब देंहटाएंमैं अभिभूत हूं! मेरी रचना की पंक्तियों का शीर्षक रूप में चयन मेरे लिए गर्व का विषय है।
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आभार मीना जी।
शानदार लिंको के साथ मुझे भी चर्चा में स्थान देने के लिए हृदय तल से आभार ।
सभी उत्कृष्ट साहित्यकारों को नमन ,सभी रचनाएं बहुत आकर्षक सुंदर,सभी को हृदय से बधाई।
उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, मीना दी।
जवाब देंहटाएंप्रिय मीना भारद्वाज जी, आदरणीया कुसुम कोठारी जी की गीतिका "जीवन यही है" से लिए गए शीर्षक ने 'सोने में सुहागा' मुहावरे को चरितार्थ कर दिया। बेहतरीन लिंक्स के लिए बेहतरीन शीर्षक... एक ऐसी चर्चा जिसमें जीवन के विविध रंग हैं... हां सचमुच 'जीवन यही है' ।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद 🙏
सस्नेह,
शुभकामनाओं सहित
डॉ. वर्षा सिंह
मेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक धन्यवाद 🙏
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचनाओं का संकलन
जवाब देंहटाएंमनभावन चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ चर्चा मंच, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और पठनीय लिंकों के साथ बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
मीना भारद्वाज जी,
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच में मेरी ग़ज़ल को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏
चर्चा मंच पर अपनी रचना को देखना सदैव सुखकर लगता है। आपको हार्दिक धन्यवाद🌹 🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
अत्यंत रोचक एवं पठनीय लिंक्स के लिए आपको साधुवाद 🌹🙏🌹
जवाब देंहटाएं"कुनकुनी सी धूप ने भी बात अब मन की कही है।
जवाब देंहटाएंकुछ दिनों तक हूँ सुहानी फिर तपे मुझ से मही है।।"
कुसुम जी की कविता से ली गई ये पंक्ति बहुत कुछ कह रही है,शानदर लिंकों के चयन के लिए आभार मीना जी,और इन समस्त गुणीजनों के बीच मुझे भी स्थान देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया ,सभी को हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमन
बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार मीना जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संकलन ,मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया ।
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