सादर अभिवादन !
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी प्रबुद्धजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
चर्चा प्रस्तुति का शीर्षक चयन - आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी के नवगीत से किया गया है ।
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बढ़ते हैं आज की चर्चा के चयनित सूत्रों की ओर -
नवगीत -दिखावा हटाओ, जियो ज़िन्दगी को
दिखावा हटाओ, जियो ज़िन्दगी को,
दिलों से मिटाओ, मलिन-गन्दगी को,
अगर प्यार है तो, करो बन्दगी को,
प्रतिज्ञादिवस में प्रतिज्ञा कहाँ है?
प्रज्ञा जहाँ है, प्रतिज्ञा वहाँ है।।
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उस जल का विश्लेषण कर.......उस खारे नमकीन जल को चखकर......मैं पुनः आवक हो जाती हूँ..... मुझे विश्वास नहीं कि- वो जल है......अरे,यह तो मेरे प्रियतम का दिया हुआ.....पूर्व जन्म का प्रसाद है.......जो अश्रु बनकर उसकी आँखों के कोर से......ना जाने कब से बह रहा है......और उस अश्रु गंगाजल के खारे झील में.....मैं डूबती चली गई .... मेरे सारे जख्म भर चुके हैं..... उस अमृत का पान कर मैं निर्मल हो चुकी हूँ.......
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जब मिलना चाहो फूलों से
काँटों पर से गुजरना होगा
काँटे है संरक्षक उनके
पहले उनसे निवटना होगा
शूल की चुभन सहना सरल नहीं है
वह ह्रदय की व्यथा बढा देते हैं
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आज के दुष्यन्त को सब स्मरण हो जाएगा
स्वर्ग सा इस देश का वातावरण हो जाएगा
छल, कपट,और लोभ का यदि संवरण हो जाएगा
स्वर्ग सा इस देश का वातावरण हो जाएगा
प्रकृति का सौंदर्य कम कर आपने सोचा कभी
बाँध से नदियों के जल का अपहरण हो जाएगा
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चमके चिर चितवन चंचल,
वह, तेरे कपोल की लाली।
कौन! कहाँ? वह कृष्ण-कन्हैया!
तू, किस हारिल की डाली!
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रे पीत वरण पाखी सुन रे
तू बैठा है जिस डाली पे
वो नेह वात में ड़ोल रही
वीणा सी झंकृत बोल रही
तू मधु सुरों की सरगम गा
होठों में सुंदर गीत सजा
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मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...
किसी उजली छाँह की तलाश नहीं है
किसी मीठे झील की अब प्यास नहीं है,
नभ धरा के हाशिये के आस-पास
धडक रही है धीमे-धीमे -साँस,
उस मीत के सत्कार में हूँ।
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।
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यहाँ
कोई किसी का यूँ ही आश्रित
नहीं होता, अनुरागी स्रोत
नहीं रुकते, बहे जाते
हैं ढलानों की
ओर, वृद्ध
चेहरा
अपने ही घर में, अकारण यूँ
ही निर्वासित नहीं
होता।
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वही सुनूँ, जो उसने कही हो
वही समझूँ जो वो बताये
वही रास्ता दिखाए
अब जाके उसे थोड़ा सा पहचाना है
कोलाहल से, भ्रमों से दूर जाना है
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गुलाब की पंखुड़ियों पर
गिरी ओंस की बूंदें
प्रमाण होती हैं
किसानों के खेतों में गिरे पसीनों की
उसने मिट्टी में सहेजे होते हैं
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तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..
तुम्हारी हमारी ना सही किसी की तो होगी..
ना रही ज़िन्दगी अपनी फिर भी ..।
बाकी ज़िन्दगी होगी ..
तुम कहने को कुछ चूक जाओगे..
हम सुनने से कुछ रह जाएंगे..
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आज का सफर यहीं तक…
फिर मिलेंगें 🙏🙏
"मीना भारद्वाज"
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शानदार रचनाओं से सजी अति सराहनीय एवं सुगढ़ प्रस्तुति में मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ.आदरणीय दी।
ReplyDeleteसादर।
आदरणीय मीना जी, नमस्कार !
ReplyDeleteसुन्दर एवं मनमोहक रचनाओं से आच्छादित संकरण के मध्य मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार..श्रमसाध्य कार्य हेतु नमन एवं वंदन..
सुप्रभात
ReplyDeleteआज खूब सजा है चर्चामंच |मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद मीना जी |
प्रणाम ..
ReplyDeleteआप सभी गुरुजन को मेरा नमन..अपने मध्य मुझे जगह देने के लिए बहुत बहुत बहुत धन्यवाद..
शुभ दिवस..
अति उत्तम रचनाएँ , सभी को हार्दिक बधाई हो ,ज्ञान के गुलिस्ता मे भावनाओं की महक है, जीवन की झलक है , आस की चमक है, विश्वास की दमक है , शुभ प्रभात नमन
ReplyDeleteश्रम के साथ सँजोई गयी सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
सुंदर रचनाओं का सुंदर संकलन ।
ReplyDeleteचर्चा बहुत शानदार रही मीना जी एक जगह सुंदर रचनाएं उपलब्ध करवाने का बहुत बहुत आभार।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
मेरी रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए हृदय तल से आभार।
बेहतरीन रचनाओं का गुलदस्ता,बहुत ही सुंदर चर्चा अंक, मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया मीना जी,सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं सादर नमन
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय मीना दी।
ReplyDeleteसभी रचनाकारो को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर
हार्दिक आभार आपका
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