इस पर हैरानी नहीं कि संसद के बजट सत्र में विपक्ष सरकार को घेरने की तैयारी कर रहा है। प्रत्येक सत्र के पूर्व इस तरह की तैयारी अब एक चलन का रूप ले चुकी है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह प्रवृत्ति अब बेलगाम होती दिख रही है। यही कारण है कि संसद के पिछले अनेक सत्र विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गए। ऐसा लगता है कि यह सिलसिला इस बजट सत्र में भी कायम रहने वाला है। 

कबीरा खडा़ बाज़ार में 

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नई संभावना लिए 
अंत की कहानियां कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को पढ़ते हुए मुझे देहरादून में आयोजित हुए संगमन कार्यक्रम की याद अनायास ही आ गई। कार्यक्रम के दौरान उठे बहुत से प्रसंगों की याद। संगमन का वह कार्याक्रम इस सदी के शुरूआती दिनों में हुआ था। ध्‍यान रहे कि उसी दौरान ‘पहल’ का मार्क्‍सवादी आलोचना विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था। दलित राजनीति के तीव्र उभार ने भी उस दौरान जनवादी राजनैतिक धारा के भीतर भी उथल-पुथल मचायी हुई थी। भारतीय राजनीति में अस्थिर सरकारों के उस दौर में धार्मिक आधार पर समाज को बांटने वाली राजनीति भी अपने नम्‍बर बढ़ाने में सफल होती जा रही थी। दूसरी ओर हिंदी में दलित विमर्श एंव स्‍त्री विमर्श का वह किशोर होता दौर था। कार्यक्रम के दौरान कविता पोस्‍टर की प्रदर्शनी भी लगी थी। एक पोस्‍टर में कवि धूमिल की कविता का वह मुहावरा- 80 के दशक में जिसे खूब सराहना मिली थी, लिखा हुआ था- ‘’जिसकी पूंछ उठाकर देखी, वही मादा निकला’’। धूमिल की कविता पंक्तियों की तीखी आलोचना वहां कई साथियों ने एक स्‍वर में की थी। आयोजकों को इस बात के लिए घेरा था और सवाल उठाए थे कि स्‍त्री विरोधी ऐसी कविता को पोस्‍टर पर देने का क्‍या औचित्‍य ?