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शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2022

'खलिश मन की ..'(चर्चा अंक-4352)

सादर अभिवादन। 

शुक्रवारीय  प्रस्तुति में आपका स्वागत है

शीर्षक व काव्यांश आ.संगीता स्वरुप ' गीत ' जी  की कविता 'खलिश मन की ..' से-

अपना समझ 
जिसको भी 
तुम हमराज 
बनाते हो
उसकी ही 
ख्वाहिश अक्सर
मन की खलिश 
बन जाती है ।

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

बालकविता "खेतों में शहतूत उगाओ" 

इसका वृक्ष बहुत उपयोगी।
ठण्डी छाया बहुत निरोगी।।
--
टहनी-डण्ठल सब हैं बढ़िया।
इनसे बनती हैं टोकरियाँ।।
--
मन की पीड़ा 
घनीभूत हो 
आँखों से 
बह जाती है 
खारे पानी से फिर
मन की धरती 
बंजर हो जाती है ।
ऐ आदमी !
नग्न हो कर
मुझ आदमी तक आओ !
जैसे मैं आती हूँ तुम तक
जबरन चिपकाए गए 
--
लेकिन मेरे भीतर बैठा 
मेरा अपना सच 
लाख चाहने के बाद भी
डिगा नहीं पाता 
कतरे-कतरे में घुली 
रची और बसी
मौन  
आई  आळी भोर सुहानी 
हिलमिल भर ल्यावाँ पानी
पगलाँ री रिमझोल्या झमके
हाथा चूड़ो चम-चम चमके
राख ईंढूनी शीश बोरलो
झुटना झाला देवतो।
--
था बरस जब पाँचवा 
मेरा बसंती
फर्क बेटे बेटियों का
कान सुनती 
दादियों औ नानियों की 
बात से ही टूटता ये दिल गया ।।
हाथ पसारे अम्मा आँचल के छोर से सुहाग का धागा माँग रही थी। धोबिन काकी का मुँह सीधा ही नहीं हो रहा था और सीधा हो भी कैसे..! कुछ दिनों पहले दूसरे टोला में शादी थी और दादी ने धोबिन काकी और उनकी बहू-बेटे, पोता-पोती को अपने घर के पोशाक में देखकर लताड़ लगायीं तो लगायीं अपने घर का दरवाजा बन्द कर दी थीं। "यह भी कोई बात हुई, हमारे खेत भी लो धुलाई के अनाज भी लो और धुलने गए कपड़ों को पहन भी लो।" दादी के गुस्से का बादल फट पड़ा था।
देश के टुकड़े हो गए ! अंग्रेज स्थूल रूप से चले गए, पर जिन्होंने राज हथियाया, उन पर उनका प्रतीयमान सदा हावी रहा ! ''फूट डालो और राज करो'' को गुरु मंत्र की तरह अंगीकार कर लिया गया ! राज करने वालों की सिर्फ चमड़ी का रंग बदला, कार्य प्रणाली वही रही ! आजादी पाने की ख़ुशी में सब कुछ भूले अवाम को इस कदर अपने आभा मंडल से सम्मोहित कर दिया गया कि उसे "हर तरफ तू ही तू" नजर आने लगा ! धीरे-धीरे धर्म-जाति-भाषा रूपी अफीम चटाई जाने लगी ! लिहाजा वो अवाम जो कभी देश के लिए एक आवाज पर एकजुट हो कंधे से कंधा मिला खड़ा हो जाता था, अब बड़े से बड़े घटनाक्रम पर भी आँख मीचे अपने खोल में दुबका रहने लगा है ! सत्ता-पिपासु जो चाहते थे, वही हुआ 
 मुझे साफ़ साफ़ सुनाई तो नहीं पड़ा कि क्या कहा पर मास्क को लेकर कुछ कहा इतना समझ में आ गया मैं ये सोच कर बिना कुछ कहे चली गई कि वापसी में अगर कुछ कहेगा तब इसकी खबर लुंगी पर वापसी में कुछ नहीं कहा। फिर दूसरे दिन जाते वक़्त उसने कोरोना वाला कोई गाना गाया क्योंकि मैंने माक्स लगा रखा था, कुछ लोग होते हैं ना जो लड़की को देखकर खुद को रोक नहीं पाते हैं कुछ ना कुछ कहे ह डालते हैं उन्हीं में से एक वो था,
-- 

आज का सफ़र यहीं तक 

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और पठनीय लिंकों के साथ उत्तम चर्चा प्रस्तुति|
    आपका आभार अनीता सैनी 'दीप्ति' जी|

    जवाब देंहटाएं
  2. हार्दिक आभार आपका
    श्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह , उत्तम लिंक मिले ।
    शीर्षक पंक्ति के लिए हार्दिक आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  4. पठनीय सूत्रों से संग्रहित श्रमसाध्य चर्चा ।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही शानदार प्रस्तुति💐
    मेरे आलेख को शामिल करने के बहुत बहुत शुक्रिया🙏

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर सराहनीय संकलन ।मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार अनीता जी ।मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 👏💐

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुन्दर और सजीली प्रस्तुति। खट्टी-मिट्ठी और रसीली भी... हृदय में आनन्द उगाती हुई.…

    जवाब देंहटाएं
  8. सारगर्भित सूत्रों के साथ सार्थक चर्चा।
    सभी लिंक्स पठनीय आकर्षक।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
    मेरी मारवाड़ी रचना को स्थान देने के लिए हृदय से आभार।
    सादर सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं

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