सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
शीर्षक व काव्यांश आदरणीया डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा जी की रचना ' सुनो ज़िंदगी!' से
क्यूँ सोचते हो
जो तुम दर्द दोगे
तो बिखर जाऊँगी
ये जान लो
धुल के आँसुओं से
मैं निखर जाऊँगी ।
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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उच्चारण: ग़ज़ल "दर्द का मरहम लगा लिया" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
दुनिया में जुल्म-जोर के, देखें हैं रास्ते,
सदियाँ लगेंगी उनको, भुलाने के वास्ते,
जख्मों में हमने दर्द का, मरहम लगा लिया।
सारे जहाँ का दर्द, जिगर में बसा लिया।।
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सुनो ज़िन्दगी !
तुम एक कविता
मैं बस गाती चली
रस -घट भी
प्रेम या पीडा़ -भरा
पाया , लुटाती चली ।
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तपकर तीव्र तपिश में
अपने सम्मोहनयोद्धा की
सभा से लौटे
हारे-थके पंछी
कुछ देर के लिए
छायादार वृक्षों की शरण में
ठहर गए हैं
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हर बार की तरह
इस बार भी लगता है
एक कोशिश और यह
बस..,
भरभरा कर गिरने ही वाली है
मगर कहाँ..,
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उधेड़-बुन: हमें दुख हुआ है कितना
हमें दुख हुआ है कितना
ये हम नहीं जानते
मगर देख नहीं पाते
तुम्हारा विनाश
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विश्वमोहन उवाच : छंदहीन कविता
भाव भी भारी, अंतर्मुख हैं,
बाहर भी वे निकल न पाते।
लटके-अटके गले में रहते,
वापस उनको निगल न पाते।
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कविताएँ : ६६३. उसकी खाँसी
जो दे दो,पहन लेती है,
जो खिला दो,खा लेती है,
जहाँ ले जाओ,चली जाती है,
जहाँ छोड़ दो, रह जाती है.
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जीना अभी बाकी है
वक्त को करने दो अपनी मनमानी,
मेरा वक्त आना अभी बाकी है,
कर रहे है सवाल मुझसे जो
उन सबको जवाब देना अभी बाकी है।
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परमानेंट मौज ले रहे,
काम अपना थोप कर
संविदा कर्मी पिस रहे
परमानेंट की धौंस पर
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ऐसे में आजादी के लिए दिल-ओ-जान से समर्पित क्रान्तिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत और उनके गुर्गों से जूझने के लिए अनेकानेक समस्याओं का सामना करना पड़ता था ! उसी में एक थी हथियारों की जरुरत ! हथियार भी ऐसा जो शक्तिशाली भी हो और छुपाया भी जा सके ! काफी सोच-विचार के बाद जर्मनी में बनी माउजर पिस्तौल माफिक पाई गई ! पर उस सस्ते के जमाने में भी उसकी कीमत 75 रुपये थी जो चोरी-छुपे खरीदने पर तीन सौ रुपये में मिलती थी ! तीन सौ रूपये की कीमत इसी से आंकी जा सकती है कि उस समय एक रुपये का 20 सेर दूध, दो सेर शुद्ध घी, 30 सेर गेहूँ तथा सोना 20 रुपये का एक तोला था ! पर जरुरत थी तो हथियार लेना ही था ! वह भी सशक्त !
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धन-धान्य से परिपूर्ण पंडित जी के घर में उनकी चौबाइन ख़ुद को और अपने बच्चों को, रूखा-सूखा खिलाने को, और उल्टा-सीधा पहनाने को, मजबूर हुआ करती थीं क्यों कि उनके पतिदेव ‘कस्टेम्परों’ से दान में मिले दान में मिले कपड़े, मिठाइयाँ फल,दक्षिणा में मिले कपड़े, मिठाइयाँ, फल, मेवे आदि को घटी दरों पर कीर्ति नगर की विभिन्न दुकानों पर बेच कर, खाली हाथ लेकिन भरी जेब, ले कर ही घर में प्रवेश करते थे.
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आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी आभार
सुंदर, सार्थक चर्चा प्रस्तुति। मेरे सृजन को चर्चा में शामिल करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंवाह! शानदार प्रस्तुति इतनी सुंदर रचनाओं के साथ!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाओं का सुंदर संयोजन, सार्थक चर्चा !
जवाब देंहटाएंअलग अलग रचनाकारों की रचना से सजी ये प्रस्तुति,
जवाब देंहटाएंमानों मोतियों को माला में पिरो दिया हो..
अनीता जी मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार!!
सुंदर चर्चा.मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर चर्चा संकलन
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