जैसे ही मंगलवार आता है चर्चा मंच पर बहन संगीता स्वरूप के साप्ताहिक काव्य मंच को देखने के लिए सब बेताब हो जाते हैं! ऐसा ही कुछ मेरा भी हाल है! लेकिन साप्ताहिक काव्य मंच का यह इन्तजार शायद अगले सप्ताह पूरा हो जायेगा और संगीता जी फिर से अपने अलग अन्दाज में इसको सजायेंगी! तब तक मैं ही अपने घिसे-पिटे लहज़े में पेश करने की जिम्मेदारी निभाने को आपके बीच आ पहुँचा हूँऔर दिल की हिफ़ाजत मैं करने लगा हूँ.. ! एक श्वेतवसना तरुणी को, जो असंख्य वर्षों की है, पर लगती है षोडशी इस रूपबाला को देखे हुए बहुत दिन हो गए... गुमशुदा ...! ज्ञानचंद मर्मज्ञ से पानी में मछलियों का पता पूछते हैं लोग,आंसू से सिसकियों का पता पूछते हैं लोग... मनोज जी लेकर आये हैं कि एक कविता - पता पूछते हैं लोग ! कौन सा पोस्ट पढूँ झट से घूंघरारी लटें समरूप दिखें कविता ग़ज़लें लगि झूलन सी...ब्लाग दुआरे सकारे गई, उहाँ पोस्टन देखि के मन हुलसे! मगर बड़ी उलझन है कि- आज उसने ना पूछा हाल मेरा.....! मुसीबत यह है कि ग़ज़लकार कुवंर कुसमेश के स्वर में - हर शाम छलकते हैं पियाले कहीं-कहीं! इस पर अफसोस करनेकी हालत में पहुँचने से पहले पहले दिनों जैसा प्यार... कहीं नज़र नहीं आता है! साधना वैद्य जी अपनी माताश्री ज्ञानवती सक्सेना "किरण" की रचना से रूबरू करा रही है- यह कोई भगवान नहीं है ! परन्तु प्रीतम तुम लौट आये ! भर ख़ुशियों से चहक उठा मन मेरा भी महक उठा सूरज ने जब डाले पर्दे धूप न जाने कहाँ चली बाँधे गाँठ हवाओं के सँग मौसम महके...! अब रहे न कोई दूरी “… ..मंजिल पूरी!” रूखा रूखा सा चाँद, एक फीकी सी शब् बुझी बुझी सी मैं, एक रूठा सा रब..... मैं औरत..... वो बरदग.... ....तहज़ीब की मिट्टी में गडी हूँ गहरी...बातें...एक रूठा सा रब.... इसीलिए तो- .... , चैट कर लेती है गाहे-बगाहे! किन्तु करवाजौथ के मौके पर भी चाँद है मेरा परदेस में! गीत गाने मचलती रही रागिनी शब्द पर होंठ पर छटपटाता रहा रात के चित्र में रंग भरते हुये चाँद के हाथ से गिर गई तूलिका कोई तारा प्रकाशित नहीं हो सका ...होंठ पर कुछ यूँ ही थरथराता रहा! - .रात की चादर जब उतरने लगी. ...सुबह की तरफ सरकने लगी... ......तारे सारे जगमगा उठे........ ...और ख्वाब सारे धुंधला गए... .रात जाते-जाते....! *सुन्दर ये मुखड़ा** **चाँद का टुकडा** **नयन विशाल है** **अधर कोमल** **————–** **कटिबंध अनुपम** **वलय निरूपम** **कही है हीरक** **कही कंचन....! हो सकता है : ओरहान वेली की कविता का यह अनुवाद तो डॉ. सिद्धेश्वर सिंह का ही है-.. ..पहाड़ी पर बने. ..उस घर की बत्ती...क्यों जली हुई है..आधी रात के बाद भी?...! घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो...जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से! तेरा दीदार पूर्णिमा की रात, होगा बेशक तेरा दीदार किसी तरह...! सपने.... होश संभाले तो मां बाप ने सजाये, बचपन से ही घोट घोट के पिलाये, स्कूल में सब से अव्वल ही रहना, ध्यान से पढना किसी से न कहना,...! गीत-ग़ज़ल नहीं इसका नाम ! - ** *हर आहट को समझा उसका पैगाम हर मन्जर को किया मैंने सलाम कितने ही पिये उम्मीद के जाम कैसी है आहट , कैसे अन्जाम अँगना में ठहरी है वो ही शाम ....! राह तीर पनघट पे गागर को धोय माँज, सीस साधि इँडुरी जल धारि पनिहारिया पंथी से पूछि रही कौन गाम तेरो , तोर नाम-काम कौन, कहाँ जात रे बटोहिया ! रात के चेहरे पर रोशनी की लकीर खींचते से आ लगे किनारे तुम्हारे ख़याल आकाश की जाजम पर होने लगी चाँद की ताजपोशी तारों की जयकार घुटने लगी एक पुरानी नदी यादों की....रात की कहानी! याद करूँ बचपन को जब जब बेड़ी लगती पाँव में। जो कुछ मैंने शहर में देखा वो दिखते हैं गाँव में।। घूँघट में सिमटी दुल्हन अब बीते दिन की बात है।..... यही तो है- बदलाव ! 'कमलेश'क्या बदला है जमाने ने अपना रंग , जिनको जाना था 'कल'वो आज ही निकल गए ॥.. वाह जनाब क्या ??जमाना बदल गया ..? सूरज से ज़रा दूर खुले आसमाँ की चमक के मानिंद तुम्हारा ये साफ साफ सा चेहरा मेरे तमाम हौसलों को और बढ़ाता गया है....हमारी तुम्हारी बातें | उर्दू के कुछ शब्द सीखे थे, उन्ही में से एक शब्द था गोर -कब्र , शायद इसे ही प्रयोग करने के लिए एक शेर लिखा था....उम्मीद इन्तज़ार को लंबा किये रही, खत्म इंतज़ार हुआ, जब गोर-ए-दफ्न हुए | जहाँ बैठ कर मैं रोया था. वहां अभी तक. तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे..! विवाई भरे पैर...दिख भी जाते हैं...नहीं दिखता...पैरों में लगा हुआ पानी ....चुपचाप लिपटा रहता है पानी.... यही तो हैं "पानी लगे पैर"!
जीवन की राहें. बहुत हैं पथरीली ..तुम्हें गिर कर..फिर संभलना होगा....तुम्हें बदलना होगा ! ज़िंदगी में इम्तहान तो. हर घड़ी चला करते हैं. कुछ स्वयं आ जाते हैं सामने. तो कुछ हम खुद चुन लिया करते हैं. और जो बचते हैं वो. हम पर थोप दिए जाते हैं..........। एक दिन एक व्रत लिया , दिन भर खड़े रहने का , सारे दिन मौन रहने का , सोचा दिन भर चुप रहूंगी , एक भी शब्द ना कहूंगी , पर जैसे ही सुबह हुई , ..............................! इंसान चला जाता है मगर अपने पीछे छोड़ जाता है अनगिनत यादें अपार शून्य असह्य वेदना और अनुपम यात्रा की शुरूआत........एक अंतहीन मौन! शायद यही तो है...सभी की मंजिल!
जीवन की राहें. बहुत हैं पथरीली ..तुम्हें गिर कर..फिर संभलना होगा....तुम्हें बदलना होगा ! ज़िंदगी में इम्तहान तो. हर घड़ी चला करते हैं. कुछ स्वयं आ जाते हैं सामने. तो कुछ हम खुद चुन लिया करते हैं. और जो बचते हैं वो. हम पर थोप दिए जाते हैं..........। एक दिन एक व्रत लिया , दिन भर खड़े रहने का , सारे दिन मौन रहने का , सोचा दिन भर चुप रहूंगी , एक भी शब्द ना कहूंगी , पर जैसे ही सुबह हुई , ..............................! इंसान चला जाता है मगर अपने पीछे छोड़ जाता है अनगिनत यादें अपार शून्य असह्य वेदना और अनुपम यात्रा की शुरूआत........एक अंतहीन मौन! शायद यही तो है...सभी की मंजिल!
आखिरी पडाव पर डोली से.. अर्थी तक के सफर मे ...अग्नि के समक्ष लिये सात वचनो को... हमने निभाया... ज़िन्दगी के तीन पडाव तक ...सात वचनो को पूरा करते हुये... आज हम जीवन के आखिरी पडाव पर. .!
घिसा-पिटा लहजा मस्त है.....(सिर्फ़ आलेख ही पढ़ पाई हूँ)...फ़िलहाल "दिल की हिफ़ाजत कर रही हूँ" "चेट कर लेती हूँ"...."हो सकता है:" समय मिलने पर बाकी पढ़ूँ....
जवाब देंहटाएंआभार....
nice
जवाब देंहटाएंमजा आ गया!!
जवाब देंहटाएंआज के चर्चा के लिंक्स तो खुद एक गीत बन गए हैं , अंत में जीवन का दर्शन भी समझा दिया है , शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर मेरी ग़ज़ल लगाने के लिए धन्यवाद.मेरे नाम में (कुँवर कुसमेश) छपा है ,कृपया इसे (कुँवर कुसुमेश) करके सही कर दें.मेरा संक्षिप्त परिचय मेरे ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com पर देखा जा सकता है.
कुँवर कुसुमेश
आदरणीय शास्त्री जी .... बहुत बहुत धन्यवाद इतने सारे और अच्छे लिनक्स देने के लिए ...
जवाब देंहटाएंमेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद ...
शुभकामाएं ...
kab poorn ho gaya pata hi nahi laga.charcha manch se lekhak ke taur par kaise judun bataien.
जवाब देंहटाएंshashtri ji
जवाब देंहटाएंchrcha manch me mere pryas ko sthan dene ke liye bhut bhut dhnywad .
koshish krti rhungi apekshao ki sarthkta ko jivnt bnaye rkhne ki .
punhshch ;
bhut bhut dhnywad .
chrcha manch vastav me bhut hi behtreen manch hai . kai bar aisa ho jata hai ki bhut kuchh janna smjhna rh jata hai vyvshtao ki vjh se . aise me aap chrchakaro ki abhootpurv mehnat dekh kr apneaap pe bhut shrmindgi hoti hai our sfai dena bhi bemani lgne lgta hai .
जवाब देंहटाएंbhrhal aap chrchakaro ko ek sath itni pthneey samgri uplbdh krane ke liye sadhuwad .
charcha ke aalekh mein samet liya sundarta se sakal bhaavon ke rang!!!
जवाब देंहटाएंsundar!
regards,
3/10
जवाब देंहटाएंसामान्य चर्चा
लचर प्रस्तुति
shastri ji ,
जवाब देंहटाएंaaj ki saaptahik kavy charcha bahut achchhe se sajayi hai ...aur yah ghisa-pita kahan ? ek alag aur naya andaaz hai ...bahut saare links mile ..aabhaar
अच्छे लिनक्स देने के लिए ...धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंआज तो बहुत ही बढिया चर्चा की है………………काफ़ी लिंक्स पर हो आई हूँ……………………यही तो आपकी खूबी है कैसे भी करें पाठकों को बाँध लेते हैं……………आभार्।
जवाब देंहटाएंआज तो बहुत सारे लिंक्स मिले.आभार.
जवाब देंहटाएंकमाल की चर्चा। ढेर सारे लिंक।
जवाब देंहटाएंaadarneey shastri ji...meri kavita ka link is charcha me dene ke liye dhanyawad..
जवाब देंहटाएंhttp://shekhawatchain.blogspot.com
आपकी सराहनीय कार्य प्रणाली है,
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच की छटा निराली है,
बहुत बहुत साधुवाद!
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
बहुत सुन्दर चर्चा ! कुछ नए लिंक मिले !
जवाब देंहटाएंis manch par mujhe sthan dene ke liye dhanyavad..........baki sare blogs bhi bahut achchhe hai .......badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सारे लिंक्स मिले इस चर्चा में .. आभार !!
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स के लिए, आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
डोरोथी.
बहुत सुन्दर चर्चा
जवाब देंहटाएंकरवा चौथ के कारण अधिक व्यस्तता रही | अच्छी चर्चा के लिए बधाई और मेरी रचना इस में शामिल करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंआशा
अच्छे लिंक्स ...रोचक चर्चा ..!
जवाब देंहटाएंbahut khub likha hai .ek sath kitni hi achchhi rachnayen padhne ko mili
जवाब देंहटाएंdhnyavad
saader
rachana