शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर
तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर
बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर
आ भी जा अब जाने वाले कुछ इनको भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत, आंगन, दीवार-ओ-दर
जिस की बातें अम्मा-अब्बू अक़्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर
(साभार : जतिंदर परवाज)
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मैं, राजीव कुमार झा,
चर्चामंच : चर्चा अंक :1447 में, कुछ चुनिंदा लिंक्स के साथ, आप सब का स्वागत करता हूँ. --
एक नजर डालें इन चुनिंदा लिंकों पर...
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मेरे गीत " पर, २४ मई २००८ को पहली कविता "पापा मुझको लम्बा कर दो " प्रकाशित की गयी थी, जिसकी रचना ३०-१०-१९८९ को हुई जब मेरी ४ वर्षीया बेटी के मुंह के शब्द कविता बन गए !
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वो नाम अब लबों पर आता नही है
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तुमसे ही सुबह होती है ..
तुमसे ही शाम ...
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रविकर
दीखे पीपल पात सा, भारत रत्न महान |
त्याग-तपस्या ध्यान से, करे लोक कल्याण |
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किरण आर्या
स्तब्ध हर सांस है
रो रहा आकाश है
हर तरफ विनाश है
मानवता का ह्रास है !
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कभी कभी लगता है सब एकदम खाली है. निर्वात है. कुछ ऐसा कि अपने अन्दर खींचता है, तोड़ डालने के लिए. और फिर ऐसे दिन आते हैं जैसे आज है कि लगता है लबालब भरा प्याला है.
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1. जब शैंपू की बॉटल खत्म हो जाए तो उसमें पानी डालकर एक बार और शैंपू कर लो.
2. टूथपेस्ट तब तक करो जब तक कि उससे पूरा पेस्ट निचुड़ न जाए.
3. घर के शो केस में चाइना का क्रॉकरी बस मेहमानों को दिखाने के लिए लगाओ.
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क्षमा करो सरदार
कहाँ से
लोहा लाएँ हम !
वर्षों पहले
बेच चुके हम
बाबा वाले बैल,
आज किराये
के ट्रैक्टर से
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Monali
Once upon a time;
There was a girl... Lost but happy.. mature and crazy... |
बहुत दिनों से कोई न आया
आंगन रहा उदास
सुने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास ..
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बिन कहे
आनंद कुमार द्विवेदी
तुम हमेशा कहते हो
"बातें तो कोई तुमसे ले ले"
शब्द बुनना तुम्हारा काम है
पर तुम्हीं देखो
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कविता रावत
गया दिल अपना पास तेरे जिस दिन तूने मुझे अपना माना है
आया दिल तेरा पास अपने जिस दिन मैंने प्यार को जाना है।
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सपने झूठे होते हैं सुबह के.........
नीलिमा शर्मा माँ !! रात मैंने एक सपना देखा |
वंदना गुप्ता
तुम और मैं
दो शब्द भर ही तो हैं बस इतना ही तो है हमारा वज़ूद |
कैलाश शर्मा
तलाश करो स्वयं
अपने स्वयं का अस्तित्व
अपने ही अन्दर
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धानी धरती ने पहना नया घाघरा।
रूप कञ्चन कहीं है, कहीं है हरा।।
पल्लवित हो रहा, पेड़-पौधों का तन,
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उपासना सियाग
कभी- कभी कुछ नाम
कुछ कमजोर दीवारों पर उकेर कर मिटा दिये जाते हैं |
सरस
देखे हैं कई समंदर
यादों के - प्यार के - |
नीरज पाल
तुम यूँ ही बरसते रहो
मैं पानी को छूते ही
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"दोहे-अन्धा कानून" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
खौफ नहीं कानून का, इन्सानों को आज।
हैवानों की होड़ अब, करने लगा समाज।।
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लोकतन्त्र में न्याय से, होती अक्सर भूल।
कौआ मोती निगलता, हंस फाँकता धूल।।
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क्या वारिस कभी बन पाएंगी मासूम बेटियां ?
कब तक कत्ल की जाएँगी मासूम बेटियां ? कब हक़ से जन्म पाएंगी मासूम बेटियां ? WORLD's WOMAN BLOGGERS ASSOCIATION पर shikha kaushik |
कभी होता है पर ऐसा भी होता है
मुश्किल हो जाता है कुछ कह पाना उस अवस्था में जब सोच बगावत पर उतरना शुरु हो जाती है सोच के ही किसी एक मोड़ पर भड़कती हुई सोच निकल पड़ती है ... उल्लूक टाईम्स पर सुशील कुमार जोशी |
(1) भुट्टा lutein से भरा हुआ रहता है। नेत्रों को स्वस्थ रखता है। धमनियों की दीवारों को अंदर से कठोर और खुरदरी पड़ने से बचाता है। सेहतनामा (2) एहसास बैठा था इंतज़ार में पागलों कि तरह चुप चाप तुम्हारी राहों में; सोचा था एक झलक मिल जायेगी पर दूर -दूर तक तुम नजर नहीं आई न तुम्हारी परछांई... (3) उद्घोष सुनना होगा .... अन्नपूर्णा बाजपेई नवयुवा तुम्हें जागना होगा उद्घोष फिर सुनना होगा नींद न ऐसी सोना तुम कर्म न ऐसे करना तुम... |