मित्रों
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जन्म-
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।जीवन धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था...
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चीन यात्रा १
ब्लॉगजगत से पिछले ४ सप्ताहों से अनुपस्थित था। रेलवे द्वारा एक सेमिनार के लिये चीन भेजा गया था। गूगल, फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर आदि कितनी ही साइटें जिन पर हम यहाँ व्यस्त रहते हैं, वहाँ पर ध्वस्त थीं। मन में व्यक्त करने को बहुत कुछ था पर चाह कर भी कुछ लिख न सका। यदि इसके बारे में ज्ञात होता तो सततता बनाये रखने के लिये पहले से कुछ लिखकर डाला सकता था। कुछ लिखा तो न गया पर इस यात्रा में दिखा बहुत कुछ। चीन का संदर्भ आते ही मन में क्या कौंधता है...
Praveen Pandey
सिफ़र से ज़ियादा
इस मोड़ से आगे है सिर्फ़ अंतहीन ख़ामोशी,
और दूर तक बिखरे हुए सूखे पत्तों के ढेर,
फिर भी कहीं न कहीं तू आज भी है शामिल
इस तन्हाइयों के सफ़र में...
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'कमाल' की बात
... उपज्यो पूत 'कमाल'
अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में आए कमाल के डीएनए में इसी पूर्णता का भाव है। कबीर ताउम्र इन्सानियत की बात करते रहे। वे सन्त थे। ज्ञानमार्गी थे जिसका मक़सद सम्पूर्णता की खोज था। आख़िर क्यों न वे अपने पुत्र का नाम कमाल रखते ! कमाल अपने पूरे कुनबे के साथ उर्दू में है और कुछ संगी साथी हिन्दी में भी नज़र आते हैं। कमाल کمال बना है अरबी की मूलक्रिया कमल کمل से जो मूलतः क-म-ल है, अर्थात काफ़(ک) मीम( م ) लाम (ل) से जिसमें पूर्ण होने, पूर्ण करने का भाव है...
शब्दों का सफर पर अजित वडनेरकर
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संयोग ऐसे भी होते हैं .
26 जुलाई को मैं दिल्ली होते हुए बैंगलोर आ रही थी . हवाईयात्रा समय की दृष्टि से एक तरह का चमत्कार ही होती है . चालीस-बयालीस घंटे का सफर मात्र ढाई घंटे में ! जिनके पास पैसा है पर समय नहीं है उनके लिये तो हवाई यात्रा एक वरदान ही है ,लेकिन हवाई यात्रा के बाद ऐसा लगता है मानो किसी ने आँखों पर पट्टी बाँधकर गन्तव्य तक पहुँचा दिया हो . कैसा रास्ता ,कौनसा मोड़ ,कुछ पता नहीं . धरती से हजार किमी ऊपर चारों ओर सिर्फ शून्य होता है या फिर बादलों की तैरती जमीन अस्थिर आधारहीन बेरंग...
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
हंगामा है क्यों बरपा
जाने कितने सच इंसान अपने साथ ही ले जाता है .
वो वक्त ही नहीं मिलता उसे
या कहो हिम्मत ही नहीं होती उसकी
सारे सच कहने की .
यदि कह दे तो जाने कितना बड़ा तूफ़ान आ जाए
फिर वो रिश्ते हों , राजनीति हो
या फिर साहित्य ....
vandana gupta
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सर्वदा होती हो तुम माँ
सर्वदा होती हो तुम माँ
हाँ
भाव के प्रभाव में नहीं
वरन सत्य है मेरा चिंतन
तुम सदा माँ हो ... माँ हो माँ हो...
मिसफिट Misfit पर गिरीश बिल्लोरे मुकुल
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आपका फेसबुक प्रोफाइल कौन सबसे ज्यादा देख रहा है -
जानिये?
Kheteshwar Boravat
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व्यंग्य :
अगले जनम मोहे ‘लेखक’ न कीजो
मैं तो यही कहूँगा । जो देखा और देख रहा हूँ उससे यही नतीजा निकाला है कि -गर खुदा मुझसे कहे, कुछ मांग ले बन्दे मेरे । मैं ये मांगू-प्लीज मेरी सात पुश्तों तक किसी की जीन में ‘लेखक’ के जर्म (कीटाणु) मत डालना-। यह एक ऐसी दाद है कि प्राणी अपनी खाल नोच कर खुश होता है । ऐसा अभिशाप है कि आत्मा शरीर में रहते हुये भी विधवा बनी रहती है । ऐसा टैलेंट है जो ‘कब्र’ के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता...
SUMIT PRATAP SINGH
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द्वार दिल के
जिसे भूले, तुमको, वही ढूँढती है।
तुम्हें गाँव की हर खुशी ढूँढती है।
सुखाकर नयन जिसके आए शहर को
वो ममता तुम्हें हर घड़ी ढूँढती है...
कल्पना रामानी
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मगर जाता है
क्यूँ बताता है नहीं दोस्त किधर जाता है
और जाता है तो किस यार के घर जाता है
पास आ मेरे सनम जा न कहीं आज की रात
या मुझे लेके चले साथ, जिधर जाता है...
अंदाज़े ग़ाफ़िल पर
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
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ठूंठ
मुझे बहुत भाते हैं वे पेड़,
जिन पर पत्ते, फूल, फल कुछ भी नहीं होते,
जो योगी की तरह चुपचाप खड़े होते हैं -
मौसम का उत्पात झेलते...
कविताएँ पर Onkar
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काल्पनिकता का सच
इस फ़िल्म की कहानी काल्पनिक है..किसी भी पात्र का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से सम्बंध मात्र संयोग है..इस तरह के जो डिस्क्लेमर फ़िल्म की शुरुआत में आते हैं लोग उसे वैसे ही नज़र अन्दाज़ कर देते हैं जैसे फ़िल्म से पहले आने वाले धूम्रपान ना करने वाले विज्ञापन को..।लोग ना तो धूम्रपान करना छोड़ते हैं और ना ही फ़िल्मों में दिखायी काल्पनिक कहानी को सच करने की कोशिश करना...
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ग़ज़ल
"मन को न हार देना"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
फूलों को रहने देना, काँटे बुहार लेना।
जीवन के रास्तों को, ढंग से निखार लेना।
सावन की घन-घटाएँ, बरसे बिना न रहतीं,
बारिश की मार से तुम, मन को न हार देना...
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