सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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चर्चा मंच पर प्रतिदिन अद्यतन लिंकों की चर्चा होती है।
आश्चर्य तो तब होता है जब वो लोग भी चर्चा मंच पर
अपनी उपस्थिति का आभास नहीं कराते है,
जिनके लिंक हम लोग परिश्रम के साथ मंच पर लगाते हैं।
अतः आज के बाद ऐसे धुरन्धर लोगों के ब्लॉग का लिंक
चर्चा मंच पर नहीं लगाया जायेगा।
आश्चर्य तो तब होता है जब वो लोग भी चर्चा मंच पर
अपनी उपस्थिति का आभास नहीं कराते है,
जिनके लिंक हम लोग परिश्रम के साथ मंच पर लगाते हैं।
अतः आज के बाद ऐसे धुरन्धर लोगों के ब्लॉग का लिंक
चर्चा मंच पर नहीं लगाया जायेगा।
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दोहे
"सबका अटल सुहाग"
मेरी माता जी रहीं, जब तक मेरे साथ।
रहता था मेरे सदा, सिर पर उनका हाथ।१।
माता ने सिखला दिये, बहुओं को सब ढंग।
सीख गयीं बहुएँ सभी, त्यौहारों के रंग।२।
करवा पूजन की कथा, जब भी आती याद।
पति की लम्बी उमर की, वो करती फरियाद।३।
जन्म-ज़िन्दग़ी भर रहे, सबका अटल सुहाग।
बेटे-बहुओं में रहे, प्रीत और अनुराग।४।
चन्दा-करवा का रहा, युगों-युगों से साथ।
नारी के सौभाग्य पर, चन्दा का है हाथ।५।
सजना का उसके रहे, सुन्दर-स्वस्थ शरीर।
करती सजनी कामना, लिए कलश में नीर।६।
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राष्ट्रप्रेम है तो महसूस करो विकास को
हर चीज़ जो होती है वो दिखे भी- ऐसा तो कतई ज़रूरी नहीं है. आप ही देखें कि हवा होती तो है लेकिन दिखती कहाँ है? खुशबू होती तो है मगर दिखती कहाँ है? मोहब्बत होती तो है मगर दिखती कहाँ है? यह सब बस अहसास करने की, महसूस करने की बातें हैं. संभव है कि एक स्थान पर खड़े सभी लोग हवा एक साथ अहसास लें मगर देख तो कोई भी नहीं पायेगा. ऐसा भी संभव है कि एक ही दायरे में खड़े सभी लोगों को फिज़ा में खुशबू का अहसास हो मगर उन्हीं में से कोई एक, जिसे तगड़ा जुकाम हुआ हो वो नाकबंदी के चलते खुशबू न अहसास पाये या फिर उन्हीं में से कोई एक जो महीनों से नहाया न हो, जिसे स्वच्छता का तनिक भी अंदाजा न हो...
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करवा चौथ
कार्तिक-कृष्णपक्ष चौथ का चाँद देखती हैं सुहागिनें आटा छलनी से.... उर्ध्व-क्षैतिज तारों के जाल से दिखता चाँद सुनाता है दो दिलों का अंतर्नाद। सुख-सौभाग्य की इच्छा का संकल्प होता नहीं जिसका विकल्प एक ही अक्स समाया रहता आँख से ह्रदय तक जीवनसाथी को समर्पित निर्जला व्रत चंद्रोदय तक। छलनी से छनकर आती चाँदनी में होती है सुरमयी सौम्य सरस अतीव ऊर्जा शीतल एहसास से हिय हिलोरें लेता होता नज़रों के बीच जब छलनी-सा पर्दा...
कविता मंच पर
Ravindra Singh Yadav
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हम आधुनिकाएं
जानती हैं , मानती हैं
फिर क्यों संस्कारगत बोई रस्में उछाल मारती हैं
प्रश्न खड़ा हो जाता है विचारबोध से युक्त
संज्ञाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा जाता है
हम आधुनिकाएं निकल रही हैं
शनैः शनैः परम्पराओं के ओढ़े हुए लिहाफ से ...
vandana gupta
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शुभप्रभात आदरणीय,
ReplyDeleteसराहनीय, सुंदर लिंकों का संयोजन,मेरी रचना को मान देने के लिए अति आभार आपका।
शुभ प्रभात
ReplyDeleteआभार
सादर
सुप्रभात ।
ReplyDeleteअच्छी चर्चा ।।
धन्यवाद
ReplyDeleteप्रणाम गुरू जी! करवाचौथ विशेषांक इस अंक की चर्चा बहुत पसंद आई।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग को स्थान देने के लिए आभार।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
ReplyDeletebadhiya charcha-
ReplyDeleteबहुत बढ़िया चर्चा
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