किस का गुमान !!
कौन-सा अभिमान !!
माटी में मिल जानी माटी की ये शान!!
सादर अभिवादन 🙏
-- प्राणी की काया क्षणभंगुर है,वो जानता है फिर भी फँसा रहता है एक जाल में। काल की ठोकर लगते ही मृदा के समान बिखर जाता है। सब यहीं धरा रह जाता है। क्या साथ जाता है? कुछ नहीं बस जाते हैं उसके सत्कर्म।
इसलिए कहते हैं कि "नाम अमर रहता है, मानव चला जाता है
सारी दुनिया ही स्वार्थ के सुयश गाती है।"
तो क्यों न हम माटी की हाँडी जैसे बिखरने से पहले शीतल जल का वरदान बनें।
-कुसुम कोठरी
--
शब्द-सृजन के 26 वें अंक का विषय दिया गया था 'क्षणभंगुर'
'क्षणभंगुर' अर्थात कुछ पल, क्षणभर का जैसे पानी का बुलबुला।
कितना कुछ समेटे हुए है यह एक शब्द।
आदरणीया दीदी के विचारों से स्पष्ट होता है।
आदरणीया कुसुम दीदी के विचार मुझे हमेशा ही प्रभावित करते हैं।
आज उनकी रचनाएँ पढ़ीं तब उनके और विचार पढ़ने का मन हुआ।
मेरे आग्रह पर उन्होंने अपने विचार भूमिका के रुप में व्यक्त किए।
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया दीदी 🙏
-अनीता सैनी
-- आइए पढ़तें हैं शब्द-सृजन का मिला जुला यह अंक।
---
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया दीदी 🙏
-अनीता सैनी
-- आइए पढ़तें हैं शब्द-सृजन का मिला जुला यह अंक।
---
सुन के सब की फिर गुने ,बोले मन की बात ।
अपनी मैं के फेर में , शह बन जाती मात ।।
दर्पण में छवि देख के , मनवा करे गरूर ।
हिय पलड़े गुण तौलिए, जीवन क्षण भंगुर ।।
--
"चुप करो जी ! ऐसा कुछ नहीं होगा और देखो मैंने अच्छे से मुँह ढ़का है
फिर भी नसीब में अभी मौत होगी तो वैसे भी आ जायेगी....
चक्की बन्द कर देंगे तो खायेंगे क्या? कोरोना से नहीं तो भूख से मर जायेंगे ....
तुम जाओ जी! बैठो घर के अन्दर! मुझे मेरा काम करने दो"!.
--
क्षणभंगुर नहीं थे वे
सत्ता की भूख से
भरी थी वह मिट्टी
तब खिले थे
परोपकार के सुंदर सुमन।
सेकत गढ़ती उन्हें
हरसिंगार स्वरुप में।
विलक्षण प्रभाव देख
दहलती थी दुनिया।
क्षणभंगुर नहीं थे वे
--
कैसे कागज रोता है शब्दों से गले लगने को,
कैसे प्रेमी की आँखों में रात होती है,
कैसे सपने मुरझाकर आकाश की हथेली पर हल्दी रखते हैं
सूरज वाली कैसे देख सकते हो आसमान में लाल रंग उतरना,
सियाह रात में धनक का खिल जाना, खिलती होगी पलाश से जंगल की आग
कैसे प्रेमी की आँखों में रात होती है,
कैसे सपने मुरझाकर आकाश की हथेली पर हल्दी रखते हैं
सूरज वाली कैसे देख सकते हो आसमान में लाल रंग उतरना,
सियाह रात में धनक का खिल जाना, खिलती होगी पलाश से जंगल की आग
--
मैं भी तो ....
“ओह ! बिन माँ की बच्ची .” –मेरी आह निकल गई .
अभी तो उसकी उम्र गुड़िया से खेलने की है .
झूले पर झूलने की है ..चिड़िया की तरह चहकने--उड़ने की है
..पर उसके लिये कोई आकाश नहीं..उसकी माँ होती तो..
“उसे मैं दूँगी एक आकाश .”—मैंने निश्चय किया .
दूसरे बच्चों की तरह वह मेरे पास पढ़ने तो आती ही है
--
नब्बे की अम्मा
नींबू,आम ,अचार मुरब्बा
लाकर रख देती हूँ सब कुछ
लेकिन अम्मा कहतीं उनको
रोटी का छिलका खाना था
दौड़-भाग कर लाती छिलका
लाकर जब उनको देती हूँ
नमक चाट उठ जातीं,कहतीं
हमको तो जामुन खाना था।।
--
101
फगुनाई में गातीं कजरी
हँसते हँसते रो पड़ती हैं
पूछो यदि क्या बात हो गई
अम्मा थोड़ा और बिखरती
पाँव दबाती सिर खुजलाती
शायद अम्मा कह दें मन की
बूढ़ी सतजुल लेकिन बहक
धीरे-धीरे खूब बिसुरती
--
मूंछों पर कोरोना की मार --
कोई छेड़ दे मूंछों की बात ,
फरमाते लगा कर मूछों पर तांव।
भई मूंछें होती है मर्द की आन ,
और मूंछ्धारी , देश की शान ।
जिसकी जितनी मूंछें भारी ,
समझो उतना बड़ा ब्रह्मचारी ।
--
पवन शर्मा की लघुकथा - '' फाँस ''
‘ सागर चले गए | '
‘ चले गए ! ... कब ? ' बह बुरी तरह चौंका ,
‘ सुबह तक तो जाने को कोई प्रोग्राम नहीं था उन लोगों का | '
‘ दोपहर में | ‘
‘ उन्हें आए तीन दिन ही तो हुए थे ...इतनी जल्दी ! '
अम्मा कुछ नहीं कह्र्तीं |
‘ कुछ हुआ क्या ? ‘ वह पूछता है |
--
पापा
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
--
मैं भी तो ....
“ओह ! बिन माँ की बच्ची .” –मेरी आह निकल गई .
अभी तो उसकी उम्र गुड़िया से खेलने की है .
झूले पर झूलने की है ..चिड़िया की तरह चहकने--उड़ने की है
..पर उसके लिये कोई आकाश नहीं..उसकी माँ होती तो..
“उसे मैं दूँगी एक आकाश .”—मैंने निश्चय किया .
दूसरे बच्चों की तरह वह मेरे पास पढ़ने तो आती ही है
--
नब्बे की अम्मा
नींबू,आम ,अचार मुरब्बा
लाकर रख देती हूँ सब कुछ
लेकिन अम्मा कहतीं उनको
रोटी का छिलका खाना था
दौड़-भाग कर लाती छिलका
लाकर जब उनको देती हूँ
नमक चाट उठ जातीं,कहतीं
हमको तो जामुन खाना था।।
--
101
फगुनाई में गातीं कजरी
हँसते हँसते रो पड़ती हैं
पूछो यदि क्या बात हो गई
अम्मा थोड़ा और बिखरती
पाँव दबाती सिर खुजलाती
शायद अम्मा कह दें मन की
बूढ़ी सतजुल लेकिन बहक
धीरे-धीरे खूब बिसुरती
--
मूंछों पर कोरोना की मार --
कोई छेड़ दे मूंछों की बात ,
फरमाते लगा कर मूछों पर तांव।
भई मूंछें होती है मर्द की आन ,
और मूंछ्धारी , देश की शान ।
जिसकी जितनी मूंछें भारी ,
समझो उतना बड़ा ब्रह्मचारी ।
--
पवन शर्मा की लघुकथा - '' फाँस ''
‘ सागर चले गए | '
‘ चले गए ! ... कब ? ' बह बुरी तरह चौंका ,
‘ सुबह तक तो जाने को कोई प्रोग्राम नहीं था उन लोगों का | '
‘ दोपहर में | ‘
‘ उन्हें आए तीन दिन ही तो हुए थे ...इतनी जल्दी ! '
अम्मा कुछ नहीं कह्र्तीं |
‘ कुछ हुआ क्या ? ‘ वह पूछता है |
--
पापा
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
--
आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
आगामी अंक में🙏
उम्मीद है आप को
शब्द-सृजन का मिला-जुला यह अंक
अवश्य ही पसंद आएगा।
- अनीता सैनी
--
--
कल आ रहे हैं
आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी
अलग अंदाज़ में एक शानदार प्रस्तुति के साथ।
--
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअनीता सैनी ji
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक और अपनी और खींचने वाली भूमिका
शास्त्री जी के दोहे हमेशा की तरह बहुत अच्छे और सार्थक कुसुम जी की भाषा शैली से तो मैं हमेशा से ही बहुत प्रभाहित हुई हूँ
सभी लिंक्स बहुत ही असरदार , अच्छी प्रस्तुति
सभ रचनाकारों की शुभकामनाएं
आभा
बहुत बहुत स्नेह आभार ज़ोया जी, आपके प्रशंसा के बोल आल्हादित कर गये।
हटाएंसस्नेह।
बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता सैनी जी।
सभी पाठकों को योगदिवस और पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सशक्त भूमिका के साथ लाजवाब सूत्रों से सजी पुष्पगुच्छ सी प्रस्तुति । बहुत बहुत आभार आनीता जी कुसुम जी के चिन्तन युक्त विचारों के मध्य सृजन को सम्मिलित करने हेतु ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका मीना जी आपकी, सराहना सदा लेखनी को उर्जा प्रदान करती है ।
हटाएंसस्नेह।
सुंदर अंक हेतु बधाई!
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना को स्थान देने के लिए ��
सभी रचनाएं जीवन मर्म को स्पष्ट करती हे
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संग्रह अनीता जी
क्षणभंगुर है जीवन,गूढ रहस्य को उजागर करती है, बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंइस चर्चा में चयनित सभी रचनाएं पढ़ीं . लगभग सभी ने बहुत प्रभावित किया . मेरी पोस्ट भी शामिल हुई है धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशब्द-सृजन - 26 का अंक अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से बेहतरीन बन पड़ा है.. मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए आपका आभार और धन्यवाद 🙏
जवाब देंहटाएंसब यहीं धरा रह जाता है। क्या साथ जाता है? कुछ नहीं बस जाते हैं उसके सत्कर्म।
जवाब देंहटाएंवाह!!!
कुसुम जी के उत्कृष्ट विचारों से सजी भूमिका के साश शानदार चर्चा प्रस्तुति एवं उम्दा लिंक्स।
मेरी रचना को स्थान देने हेतु तहेदिल से धन्यवाद।
सस्नेह आभार आपका सुधा जी, मेरे लेखन पर आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धक है ।
हटाएंसादर अभिवादन!
जवाब देंहटाएंभूमिका में मेरे द्वारा लिखी पंक्तियां मेरे भावों को रख कर मुझे जो सम्मान दिया है उसके लिए मैं अभिभूत हूं प्रिय अनिता जी,और साथ ही अनुग्रहित भी ।
आपकी रचनात्मक भूमिका बहुत सार्थक है।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई,सभी रचनाएं बहुत आकर्षक सुंदर ।
सुंदर प्रस्तुति सुंदर चर्चा अंक।
मेरी रचना को शामिल करने केलिए हृदय तल से आभार।
प्रभावपूर्ण भूमिका के साथ सुंदर सूत्र संयोजन
जवाब देंहटाएंआपको साधुवाद
सभी सम्मिलित रचनकारों को बधाई
मुझे सम्मिलित करनें का आभार
सादर