सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
तालाबंदी के लंबे अंतराल के बाद आज से खुल रहा है कुछेक प्रतिबंधों पर राहतों का पिटारा। करोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है हमारे देश में हालाँकि इस महामारी के प्रति व्याप्त भय में कमी आई है। लोग सावधानियाँ बरतें और करोना के साथ जीना सीखें।
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शब्द-सृजन- 24 का विषय है-
मसी / क़लम
आप इस विषय पर अपनी रचना
(किसी भी विधा में) आगामी शनिवार (सायं 5 बजे)
तक चर्चा-मंच के ब्लॉगर संपर्क फ़ॉर्म (Contact Form ) के ज़रिये हमें भेज सकते हैं।
चयनित रचनाएँ आगामी रविवासरीय चर्चा-अंक में
प्रकाशित की जाएँगीं।
आइए आज की चुनिंदा रचनाएँ पढ़ते हैं-
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दोहे
"पत्रकारिता दिवस"
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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दायित्व बोध की जगी भावना --
लॉकडॉउन ने विशेषकर शहरी जीवन में
पारिवारिक स्तर पर एक ऐसी क्रांति कासूत्रपात किया है ,
घर में सहायिकाओं की छुट्टी हो जाने से परिवार का युवावर्ग,
विशेष रूप से घरेलूदायित्व के प्रति सजग हुआ है।
जिनमें कॉलेज जाने वाली बेटियां और ऑफिस जाने वाली बहुएं -
रसोई की तरफ बड़े उन्मुक्त भाव से नये -
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माता-पिता बाल मनोविज्ञान का अध्ययन
करते हैं
तो उनको अपने बच्चे को समझने में मदद मिल सकती है.
वे इसे विषय के रूप
में कतई न स्वीकारें,
वे यह धारणा भी न बनायें कि यह किसी तरह का शैक्षिक
पाठ्यक्रम है,
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अब अमेरिका और उसका मिनियापोलिस एक अलग ही आग में जल रहा है.
ये विरोध के स्वर हैं, रोष के स्वर हैं, न्याय की मांग के स्वर हैं.
यह एक ऐसा सामुदायिक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन है
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"बोलीं महतो जी, बड़ी देर से खड़िआइल हई।
पसेना से पूरा देही भींज गइल बा।
एतना घामा में केने चलल बानी?"
यह पूछते हुए सीएसपी संचालक सुभाष ने उन्हें एक नज़र देखा
और लैपटॉप पर नजरें गड़ा दी।
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वह परिवार के लिए ही जीता है।
पिता सब फरमाइशें पूरी करता है
परिवार के लिए हर गम पीता है।
सब कुछ करता, जो जरूरी होता है।
पिता न जाने कहाँ कहाँ होता है,
पिता हमारा सारा जहाँ होता है।
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स्वर्ण रश्मियों की आहट से, खेतों ने अँगड़ाई ली |
हाथ उठे जब सूर्य अर्ध्य को, जीभर जल तुलसी ने पी ||
उषा संगिनी साथ चली है, पंछी राग सुनाते हैं |
भ्रमर निकलते पुष्प दलों से, सूर्यमुखी खिल जाते हैं |
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लिए कलम की धार जो,बनता पहरेदार।
पत्रकार निष्पक्ष हो ,लड़े बिना तलवार ।।
डोर सत्य की थामता,कहलाता है स्तंभ।
शुचिता का संचार हो ,नहीं मिला हो दम्भ।।
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वह जो चला था
कभी परदेस से
अपने गाँव नहीं पहुंचा है,
रास्ते में ही कहीं फंसा है,
न आगे जा सकता है,
न पीछे लौट सकता है.
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साथ चलना आसान न था
हम एक दूसरे को अनुभव करते हुए
कुछ दूर तक साथ चले
आखिरी बार उस शांत झील किनारे
हमने अपने आंसुओं से सुख लिखा
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ससुराल में सभी बड़ों के आगे माथे पर पल्ला रखने का रिवाज था.
यदा - कदा सिर से पल्ला खिसकने पर सास टोक देती। कहती,
"देखो बहू, हमारे सामने भले ही सिर न ढको,
पर पापाजी के सामने जरूर ढक लिया करो।
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कहते हैं कि छोडने वाले, छोड़ जाते हैं।
मुक़ाम कोई भी हो।
पर निभाने वाले, निभा ही जाते हैं।
चाहे हालात कैसे भी हों।
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स्याही से
भरी
दिख रही है
पर
कुछ नहीं
लिख रही है
उँगलियों
से
खेल रही है
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कल कितने मरे,
परसों कितने,
और आज कहाँ की
बारी है,
कालीन पड़े, दरियां हैं
बिछी,
मातम की सब
तैयारी है.
भाषण भी होने
वाले हैं,
नारे भी लगने
वाले हैं,
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
- रवीन्द्र सिंह यादव
सच्चे प्रेम"... की कोई ...
जवाब देंहटाएं"परिभाषा"... नहीं होती.
"प्रेम" बस वही है ...जहाँ
कोई "आशा"...नही होती"..!!
के साथ बहुत सुंदर सार्थक प्रस्तुति आदरणीय रवीन्द्र जी। आज की चर्चा में मेरे लेख ' ये ठहराव जरूरी था ' को स्थान मिला, जिसे लिए आपकी और मंच की आभारी हूँ! साथ रचनाकारों को शुभकामनायें🙏🙏💐💐💐
सुन्दर चर्चा. मेरी कविता शामिल की. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय सर. कुछ लेख पढ़े सराहना से परे.
जवाब देंहटाएंसादर
चर्चा मंच पर आने से अच्छी रचनाओं के लिए भटकना नहीं पड़ता ! हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी आपका आभार।
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंसमसामयिक बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर सूत्रों से सजी चर्चा...ताटंक छंद शामिल करने के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हमारी इस पोस्ट को भी शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएं