स्नेहिल अभिवादन।
रविवासरीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है।
--
शब्द-सृजन-29 के लिए विषय दिया गया था-
'प्रश्न'
जिज्ञासा जीवन का आधार है।
साथ ही मानव की मूल प्रवृत्ति भी
पृथ्वी पर नाना प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं।
बदलाव की यही प्रवृत्ति ही पृथ्वी पर हो रहे प्रत्येक महान अन्वेषण का कारण भी है।
जब जिज्ञासा बाहर की ओर निर्देशित होती है तब,
"यह क्या है?",
"यह कैसे हुआ?",
"कब हुआ?",
"कहाँ हुआ?",
और "क्यों हुआ?",
विचारों के भँवर में उठे इन्हीं प्रश्नों को हम विज्ञान कहने लगते हैं।
जब यही प्रश्न अंतरमन में स्वयं से निर्देशित करने लगें जैसे-
"मैं कौन हूँ?",
"मैं यहां क्यों हूँ?",
"मैं वास्तव में स्वयं से क्या चाहता हूँ?",
"मेरे जीवन का मक़सद क्या?"
आदि प्रश्न उठते हैं
तब यही प्रश्न अध्यात्म कहलाने लगतें हैं।
-अनीता सैनी
--
आइए पढ़ते है मेरी पसंद की रचनाओं के कुछ लिंक-
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कौन थे? क्या थे? कहाँ हम जा रहे?
व्योम में घनश्याम क्यों छाया हुआ?
भूल कर तम में पुरातन डगर को,
कण्टकों में फँस गये असहाय हो,
कोटि देव कभी यहाँ पर वास करते थे,
देवताओं के नगर का नाम आर्यावर्त था,
--
रटारटाया उत्तर
सुन-सुनकर
मन भर गया है
वह इतना कायर है
कि प्रश्न से डर गया है
खोखले आदर्शों की नींव
इतनी उथली
कि मंसूबों की इमारत
भरभराकर
ढह गई है
--
"अरे सर जी!आपने कुछ लिया क्यों नहीं"...
(नाश्ते की ट्रे बैंक कर्मचारी की ओर बढ़ाते हुए )
तभी उनकी आठ वर्षीय बेटी सैनीटाइजर की
बोतल लेकर बैंक कर्मचारी के पास आती है,
और प्रश्न भरे नेत्रों से टुकर-टुकर ताकती है
कभी बैंक कर्मचारी को तो कभी बाहर खड़े कूड़ेवाले को....।
--
यकीनन, अपने "प्रश्नों" से किसी के आस्था-विश्वास को,सम्मान और मर्यादा को छलनी करना
ज्ञानियों का काम तो नहीं होता ये तो बस तार्किक प्रवृति के दंभी लोग ही
कर सकते हैं जिन्हें सिर्फ प्रश्न करना आता है और उत्तर की जिम्मेदारी वो दूसरों पर डाल देते हैं।
ऐसे लोग समाज के लिए खुद भी एक "प्रश्नचिन्ह" ही होते हैं।
--
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कल बादल का एक छोटा सा टुकड़ा
बहती हवाओं के संग
पतझड़ में राह भटके सूखे पत्ते की
मानिन्दआ गिरा
मेरी छत पर छुआ तो हल्का ..
नरम मन को गीला करता
रूह का सा अहसास लिए
रूह इसलिए…..,
क्योंकि वह भी दिखती कहाँ है ?
बस होने का अहसास भर देती है
--
" बड़ी बहू वो शगुन तो लाना ही भूल गई मैं ...
हूँ कुछ देर में दोबारा।"
गोमती भाभी दर्दभरी मुस्कान बड़ी बहू को थमा जाती है
फिर आने का वादा करके एक अनुत्तरित प्रश्न के साथ...
--
आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
आगामी अंक में🙏
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स्नेहिल अभिवादन।
रविवासरीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है।
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शब्द-सृजन-29 के लिए विषय दिया गया था-
'प्रश्न'
जिज्ञासा जीवन का आधार है।
साथ ही मानव की मूल प्रवृत्ति भी
पृथ्वी पर नाना प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं।
बदलाव की यही प्रवृत्ति ही पृथ्वी पर हो रहे प्रत्येक महान अन्वेषण का कारण भी है।
जब जिज्ञासा बाहर की ओर निर्देशित होती है तब,
"यह क्या है?",
"यह कैसे हुआ?",
"कब हुआ?",
"कहाँ हुआ?",
और "क्यों हुआ?",
विचारों के भँवर में उठे इन्हीं प्रश्नों को हम विज्ञान कहने लगते हैं।
जब यही प्रश्न अंतरमन में स्वयं से निर्देशित करने लगें जैसे-
"मैं कौन हूँ?",
"मैं यहां क्यों हूँ?",
"मैं वास्तव में स्वयं से क्या चाहता हूँ?",
"मेरे जीवन का मक़सद क्या?"
आदि प्रश्न उठते हैं
तब यही प्रश्न अध्यात्म कहलाने लगतें हैं।
-अनीता सैनी
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साथ ही मानव की मूल प्रवृत्ति भी
पृथ्वी पर नाना प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं।
बदलाव की यही प्रवृत्ति ही पृथ्वी पर हो रहे प्रत्येक महान अन्वेषण का कारण भी है।
जब जिज्ञासा बाहर की ओर निर्देशित होती है तब,
"यह क्या है?",
"यह कैसे हुआ?",
"कब हुआ?",
"कहाँ हुआ?",
और "क्यों हुआ?",
विचारों के भँवर में उठे इन्हीं प्रश्नों को हम विज्ञान कहने लगते हैं।
जब यही प्रश्न अंतरमन में स्वयं से निर्देशित करने लगें जैसे-
"मैं कौन हूँ?",
"मैं यहां क्यों हूँ?",
"मैं वास्तव में स्वयं से क्या चाहता हूँ?",
"मेरे जीवन का मक़सद क्या?"
आदि प्रश्न उठते हैं
तब यही प्रश्न अध्यात्म कहलाने लगतें हैं।
-अनीता सैनी
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आइए पढ़ते है मेरी पसंद की रचनाओं के कुछ लिंक-
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कौन थे? क्या थे? कहाँ हम जा रहे?
व्योम में घनश्याम क्यों छाया हुआ?
भूल कर तम में पुरातन डगर को,
कण्टकों में फँस गये असहाय हो,
कोटि देव कभी यहाँ पर वास करते थे,
देवताओं के नगर का नाम आर्यावर्त था,
--
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रटारटाया उत्तर
सुन-सुनकर
मन भर गया है
वह इतना कायर है
कि प्रश्न से डर गया है
खोखले आदर्शों की नींव
इतनी उथली
कि मंसूबों की इमारत
भरभराकर
ढह गई है
सुन-सुनकर
मन भर गया है
वह इतना कायर है
कि प्रश्न से डर गया है
खोखले आदर्शों की नींव
इतनी उथली
कि मंसूबों की इमारत
भरभराकर
ढह गई है
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"अरे सर जी!आपने कुछ लिया क्यों नहीं"...
(नाश्ते की ट्रे बैंक कर्मचारी की ओर बढ़ाते हुए )
तभी उनकी आठ वर्षीय बेटी सैनीटाइजर की
बोतल लेकर बैंक कर्मचारी के पास आती है,
और प्रश्न भरे नेत्रों से टुकर-टुकर ताकती है
कभी बैंक कर्मचारी को तो कभी बाहर खड़े कूड़ेवाले को....।
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यकीनन, अपने "प्रश्नों" से किसी के आस्था-विश्वास को,सम्मान और मर्यादा को छलनी करना
ज्ञानियों का काम तो नहीं होता ये तो बस तार्किक प्रवृति के दंभी लोग ही
कर सकते हैं जिन्हें सिर्फ प्रश्न करना आता है और उत्तर की जिम्मेदारी वो दूसरों पर डाल देते हैं।
ऐसे लोग समाज के लिए खुद भी एक "प्रश्नचिन्ह" ही होते हैं।
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कल बादल का एक छोटा सा टुकड़ा
बहती हवाओं के संग
पतझड़ में राह भटके सूखे पत्ते की
मानिन्दआ गिरा
मेरी छत पर छुआ तो हल्का ..
नरम मन को गीला करता
रूह का सा अहसास लिए
रूह का सा अहसास लिए
रूह इसलिए…..,
क्योंकि वह भी दिखती कहाँ है ?
बस होने का अहसास भर देती है
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" बड़ी बहू वो शगुन तो लाना ही भूल गई मैं ...
हूँ कुछ देर में दोबारा।"
गोमती भाभी दर्दभरी मुस्कान बड़ी बहू को थमा जाती है
फिर आने का वादा करके एक अनुत्तरित प्रश्न के साथ...
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आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
आगामी अंक में🙏
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बहुत सुन्दर शब्द-सृजन प्रस्तुति । आभार अनीता जी मेरी रचना को शामिल करने के लिए । सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को शुभकामनाएं बहुत सहज और सुन्दर चर्चा
जवाब देंहटाएंशब्द सृजन के अन्तर्गत बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार अनीता सैनी जी।
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसार्थक भूमिका के साथ शानदार प्रस्तुति... शब्दसृजन में सभी रचनाएं बेहद उम्दा।सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने हेतु अत्यंत आभार अनीता जी!
शब्द-सृजन का एक और बेहतरीन अंक।प्रिये अनीता, भूमिका में जो आपने "प्रश्न' का वैज्ञानिक और अध्यात्मिक जो व्याख्या की हैं वो सराहनीय है। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं,मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार एवं स्नेह
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