सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
तू इधर चले
या उधर चले
हवा बहे तो
महक साथ चले।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आइए पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित चंद ताज़ा रचनाएँ-
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दोहागीत
"मेरी छोटी पुत्रवधु का जन्मदिन"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुएँ घर की स्वामिनी, हैं जगदम्बा-रूप।
अपने को खुद ढालतीं, रिश्तों के अनुरूप।।
सुन कर कड़वी बात भी, बहू न होती रुष्ट।
रहती हर हालात में, शान्त और सन्तुष्ट।।
बहुओं पर मत कीजिए, हिंसा-अत्याचार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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उधर हमारा मच्छर, अदना सा, नश्वर, वंश युक्त, साकार, सामाजिक, क्षुद्र कीट ! पर जिसका अस्तित्व प्राचीन काल से ही इस धरा पर बना हुआ है ! जिसको रामायण की रचना के दौरान महर्षि वाल्मीकि भी नजरंदाज नहीं कर पाए, ''मसक समान रूप कपि धरी, लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी !'' जो लाखों सालों से मानव का सहगामी रहते हुए भी उसके खून का प्यासा है ! जिसके कारण हर साल तकरीबन दस लाख लोगों की मौत हो जाती है ! जिसका आंकड़ा दुनिया के इतिहास में हुए युद्धों में हताहत लोगों से भी कई गुना ज्यादा है ! उस पर कभी भी काबू नहीं पाया जा सका है, और ना हीं आशा है ! तो डरना किससे है ? कौन ज्यादा खतरनाक है ? कौन ज्यादा मारक है ?
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धड़कनों ने पहनी है ख़ुशी की पायल
प्रतीक्षा में मैं चौखट निहारने लगी हूँ
कोना-कोना प्रीत से सजाऊँगी
कोमल पैरों को मै हाथों पर रखूँगी
स्नेह की मिट्टी से महकेगा आँगन
मैं तुझे माँ कहकर बुलाऊंगी ।
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है कठिन ये काल
जीत निश्चित ही मिलेगी
प्रश्न ये तनकर खड़ा है
हार कर यूँ बैठ जाना
प्रश्न ये उससे बड़ा है
उलझनों के दौर सुलझे
कर्म कर क्यों है विलग सा
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विश्व के छाले सहला दो
विश्व के छाले सहला दो!ओ चाँद कहां छुप बैठे हो
ढ़ूंढ़ रही है तुम्हें दिशाएं
अपनी मुखरित उर्मियाँ
कहाँ समेट कर रखी है
क्या पास तुम्हारे भी है
माँ के जैसा कोई प्याला
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राख के तले
दब सोयी है चिंगारी
अपने आप में
सुलगती सी..
मत मारो फूंक !
सुनते हैं..एक फूंक से
वह दावानल भी
बन जाया करती ह
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होंठों के दोनों किनार - -
वसंत आए गए बहुबार, झरे पल्लव
समय के शाख से बेशुमार, फिर
भी मीठी लम्हों का स्वाद
अभी तक है गीले
होंठों के दोनोँ
किनार,
बांध के रखने की चाह में अक्सर - -
दूर होता जाए अपनापन,
जितना क़रीब जाएँ
उतना ही छूने
की इच्छा
बढ़े,
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ऐ पुरूष !
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लुटा रहा वह धार प्रीत की
जीवन के इस महाविटप पर
दो खग युगों-युगों से बसते,
एक अविचलित सदा प्रफ्फुलित
दूजे के पर डोला करते !
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बुद्धि बनी गांधारी
पतलून बेचती नारी जब
बिक्री दौड़ लगाती
उजली रहें कमीजें किसकी
साबुन बहस छिड़ाती
त्योहारों की धमाचौकड़ी
किश्तें करें उधारी।।
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बड़ी उदासी
थी कल मन में
क्यों हमने घर छोड़ दिया !
रीति कौन बताए मुझको,
संध्या गीत सुनाए मुझको
कौन पर्व है कौन तिथि पर
इतना याद दिलाए मुझको
गाँव की छोटी पगडंडी को
हाईवे से जोड़ दिया .......
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लाओ रे डोली उठाओ कहा
बेशक आज हम जहाँ रहते हैं वहाँ साधारणतया ऐसी छवियाँ देख पाना बड़ा मुश्किल का विषय बन गया है लेकिन मेरे मन के एक गलियारे में मेरा गाँव अभी भी जिंदा है, ज्यों का त्यों और ज़िंदा है उसमें किल्लोनें करता हुआ मेरा सुआपंखी बचपन
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाह,बहुत बढ़िया🌻
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति । मंच पर मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार आ. रविंद्र सिंह जी ।
जवाब देंहटाएंजीवन में सुविचारों की महक साथ चले तो जीवन का पथ कितना सरल हो जाता है. सुंदर भूमिका के साथ पठनीय रचनाओं की खबर देते सूत्रों से सजी चर्चा में मुझे भी शामिल करने हेतु आभार !
जवाब देंहटाएंमन्त्रमुग्ध करती सुन्दर प्रस्तुति एवं संकलन, मेरी रचना को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंश्रम के साथ लगाई गई,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
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आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।
रवीन्द्र जी
जवाब देंहटाएंसम्मिलित कर मान देने हेतु हार्दिक आभार
सुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई और आभार!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति,सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं,मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
जवाब देंहटाएंvery beutiful imagination keep it nice work
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंभूमिका की चंद पंक्तियां सुंदर मनमोहक।
जवाब देंहटाएंशानदार लिंक चयन सभी रचनाएं बहुत आकर्षक सुंदर।
सभी रचनाकारों को बधाई।
मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
सादर।