डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी
सादर अभिवादन।
शनिवासरीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
आइए पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ रचनाएँ-
हिन्दी साहित्य में दोहा छन्द का अपना गौरवशाली इतिहास है। सन्तों की वाणी से निकले संदेश आज भी सतत रूप से लोक में व्याप्त हैं और उनका माध्यम दोहा छंद ही बना है। दोहा अर्द्ध सम मात्रिक छन्द है, जिसमें तेरह-ग्यारह, तेरह-ग्यारह अर्थात एक दोहे में 48 मात्रओं वाले इस छोटे से छंद की शक्ति मर्म को छूने तथा लक्ष्य भेदन में पूर्ण रूप से सफल होती है। क्योंकि एक दोहे में सीमित शब्दों में पूरी बात कहना कवि का धर्म होता है अगर एक बात एक दोहे में पूरी नहीं हुई तो फिर वह दोहा दोहे के रूप में स्थापित नहीं हो सकता।
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आस्था का चेहरा, जिसको हम तमाम उम्र देखते, सुनते और ढोते तो हैं लेकिन आस्था शब्द के दो साबुत और एक आधे अक्षर के मतलब को समझ तक नहीं पाते। मन में रह-रहकर सवाल उठता है कि आस्था का चेहरा क्या इससे भी सुंदर हो सकता है? या यही अल्टीमेट है। आस्था शब्द का जन्म किन परिस्थियों में हुआ होगा? क्या हमारे भीतर आस्था के बीज गढ़े होते हैं ? या इसको बोया जाता है ? यदि बोया जाता है तो क्या बोने वालों का मन भी सुंदरता का मतलब जानता होगा ? क्या जितनी आस्था वह हमें सिखा रहा है, उतनी उसने भी अपने जीवन में की होगी? आख़िर आस्था क्यों की जाती है किसी पर? क्याया आस्था का भी शरीर होता है? क्यों की जानी चाहिए?
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वक्त बीतता गया लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जीतता गया
कुछ भीतर रीतता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जोड़ता गया
कुछ पीछे छोड़ता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जुटाता गया
कुछ यूं ही लुटाता गया
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लब-ए-शाम पे मुस्कुराहट है आ रहे हैं वो,
धड़कनों में थरथराहट ह
आ रहे हैं वो।
वही खुशबु लिए आगोश में
सबा रक्स करती आ गयी
शजरे अँगनाई में सरसराहट
आ रहे हैं वो।
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भारत रत्न, भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है। इस सम्मान की स्थापना 2 जनवरी 1954 में की गई थी। इसके लिए चयनित व्यक्ति विशेष का चयन ज्यादातर सर्वमान्य रहा, पर कुछेक बार अनुत्तरित प्रश्न भी खड़े हुए, इसकी चयनित शख्सियत को ले कर ! इधर भी एक चलन कुछ ज्यादा ही देखने में आने लगा है, कोई भी अपनी जाति-बिरादरी, धर्म-पंथ के नेता के लिए इसकी मांग उठाने लग पड़ा है ! यदि इसकी रेवड़ी बंटने लगी तो फिर भविष्य में इसकी महत्ता का सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है !
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ना चाह ना किसी की आस की
जब देखा आसपास बड़ी निराशा हुई
मन पर गिरी गाज जब भी
पंख फैला उड़ना चाहा |
चेहरा बुझा बुझा सा हुआ
अरमानों का निकला जनाजा
आशा निराशा में बदली
किसी खोज का अंत न हुआ |
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पेंशन
धूर्त फ़िल्मकार
दिखने
होंठो पे
आपका प्रयास अति उत्तमहै।रचनाओं को एक दूसरे तक पँहुचाने के लिए चर्चामंच का कार्य उल्लेखनीय है
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी।
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, सभी सुंदर लिंक्स दिए है जिसमें मुझे शामिल करने के लिए
दिल से आभारी हूँ !
धन्यवाद मेरी रचना को स्थान देने के लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए शुक्रिया
जवाब देंहटाएंउपयोगी और पठनीय लिंकों से साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार अनीता सैनी जी।
आदरणीया अनीता जी सार्थक चर्चा हेतु आभार🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर श्रमसाध्य सराहनीय चर्चा प्रस्तुति। सभी लिंक बेहद उम्दा।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना कौ चर्चा मे सम्मिलित करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे ब्लॉग को यहां सम्मिलित करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद ।
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