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रविवार, नवंबर 01, 2020

"पर्यावरण बचाना चुनौती" (चर्चा अंक- 3872)

 मित्रों!
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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आज की शीर्ष पंक्ति  
आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी के ब्लॉग से 

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गीत  

"नारी की तो कथा यही है"  
अपने छोटे से जीवन में 
कितने सपने देखे मन में
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नारी की तो कथा यही है 
आदि काल से प्रथा रही है 
पली कहीं तोफली कहीं है
दुनिया के उन्मुक्त गगन में 
कितने सपने देखे मन में
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  • बने दिवाली  
  • प्रयास करो
    दीप से दीप जले
    बने दिवाली
    रोशनी से नहाए
    हर घर आँगन । 
दिलबागसिंह विर्क, Sahitya Surbhi  
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वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध  (१२) 

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (झ )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

अंतिम शाखाएँ 

भारोपीय भाषाओं की दस अन्य शाखाओं से अलग हो जाने के बाद भी भारतीय-आर्य और ईरानी भाषाओं के आपस में गहरे संबंध के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं।

इस बात को सही ठहराने के लिए भाषा-शास्त्रियों ने कल्पित मूलभूमि दक्षिण रूस में अन्य शाखाओं से भारतीय-ईरानी शाखा के एक साथ अलग होने की परिकल्पना विकसित की है।इसी आधार पर उन्होंने मध्य एशिया में प्राक-वैदिक काल में एक साझी भारतीय- ईरानी संस्कृति के विकसित  होने की अवधारणा गढ़ ली है। ग़ौरतलब है कि मध्य एशिया दक्षिण रूस से इन दोनों शाखाओं, भारतीय-आर्य और ईरानी, की अपनी ऐतिहासिक बसावट वाली भूमि के रास्ते में पड़ता है।

फिर भी, जैसा कि हमने पहले देखा है कि ऋग्वेद और अवेस्ता के जो भी साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, उनके बीज हमें नए  मंडलों के  रचना-काल में हरियाणा और अफ़ग़ानिस्तान के  बीच के भूभाग में मिलते हैं। भारतीय और  ईरानी इतिहास के इन साझे सांस्कृतिक तत्वों के प्रचुर साक्ष्य की चर्चा तलगेरी की पुस्तक (तलगेरी २०००:१६३-२३१; २००८:२५८-२७७ आदि) में विस्तार  से उपलब्ध हैं। पुरु और अणु अर्थात  वैदिक और ईरानी तत्वों के संघर्ष और उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के किस्से पुराण और अवेस्ता में देवासुर संग्राम या देव-अहुर संग्राम के रूप में तथा अंगिरा और भृगु या अथर्व  या फिर अंगिरा और अथर्वों  की पारम्परिक प्रतिद्वंद्विता में संजोये हुए हैं। 

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सिर्फ़ सिर हिलाते जाएँ 
हाथों में लिए छाता, ये हैं
मशहूर भविष्यवेत्ता,
लेके आए हमें
शून्य में
इन्द्र -
धनुष को दिखलाने, टूटे बटन छोड़
गए धागों के ठिकाने। 
शांतनु सान्याल, अग्निशिखा 
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शरद पूर्णिमा 

रात की ठंडक बढी
आसमान में जब  चन्दा चमकता
कभी छोटा कभी बड़ा वह बारबार रूप बदलता
पन्द्रह दिन में पूर्ण चन्द्र होता |
नाम कई  रखे  गए उसके
कभी गुरू पूर्णिमा कभी शरद पूर्णिमा 

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प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है... 

एक साथ, क्या-क्या चलता है दिमाग़ में ज़ाहिर कर दें तो मुसीबत, न करें तो ऐसा लगे कि ख़ुद के साथ ही धोखा। कई बार लगता है कि जिस रास्ते से गुज़र रहे हैं, सही नहीं है। न हो सकता है। क्योंकि आस पास किसी को उस रास्ते से गुज़रकर मंज़िल नहीं मिली। सबने ख़ुद को खो दिया है। एक क़रार कर लिया है, ज़िन्दगी के साथ कि अब जो चल रहा है, चलने दो। आधे रास्ते में हैं, आधा ही तो पार करना है।

पर पता नहीं क्यों लगता है कि उसी आधे रास्ते में गड्ढा है, जिसमें से गिरेंगे आंख मूंदकर एक रास्ते पर चलने वाले। 

अभिषेक शुक्ल, वंदे मातरम् 
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वर्ण पिरामिड 

जी! 
ख़्याली 
वाताली 
प्रेम पगी 
रची पत्राली 
थामी चाय प्याली  

कथा तान दे डाली। 

विभा रानी श्रीवास्तव, "सोच का सृजन"  
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आज के लिए बस इतना ही...।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. वन्दन आदरणीय
    हार्दिक आभार व साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात
    उम्दा चर्चा आज की |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद |

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर संकलन।अत्यंत आभार और बधाई!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. उम्दा सूत्रों से सुसज्जित सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति । सभी रचनाकारों को सुन्दर सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  5. सार्थक चर्चा. मेरी रचना को शामिल करने के लिए शुक्रिया सर.

    जवाब देंहटाएं

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