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सोमवार, नवंबर 02, 2020

'लड़कियाँ स्पेस में जा रही हैं' (चर्चा अंक- 3873 )

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया साधना वैद जी की रचना से।

 सादर अभिवादन।

आज की प्रस्तुति का आरम्भ कविवर धर्मवीर भारती जी के कवितांश से-

"भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख 
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की 
उस आँगन में भी उतरी होगी 
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी 
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट 
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में"

-धर्मवीरभारती 

--

अतुकान्त 

"अतुकान्त गीत और कुगीत" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

सूरकबीरतुलसीके गीत,
सभी में निहित है प्रीत।
आज
लिखे जा रहे हैं अगीत,
अतुकान्त
सुगीतकुगीत
और नवगीत।
जी हाँ!
हम आ गये हैं
नयी सभ्यता में
--

"यह क्या किया तूने?" अस्पताल में मिलने आयी तनुजा ने अनुजा से सवाल किया। अनुजा का पूरा शरीर पट्टी से ढ़ंका हुआ था उन पर दिख रहे रक्त सिहरन पैदा कर रहे थे। समीप खड़ा बेटा ने बताया कि उसके घर में होती रही बातों से अवसाद में होकर पहले शरीर को घायल करने की कोशिश की फिर ढ़ेर सारे नींद की दवा खा ली.. वह तो संजोग था कि इकलौता बेटा छुट्टियों में घर आया हुआ था।

"तितलियों की बेड़ियाँ कब कटेगी दी?"
--
स्वच्छंद  आसमान तुम्हारा है 
नहीं है पंखों पर बंदिशों की डोर 
हवा ने भी साधी है चुप्पी 
गलघोंटू नमी का नहीं कोई शोर  
व्यथा कहती साहस से
तुम उल्लास बुन सको तो देखो!
--
सुनते हैं
लड़कियों की शिक्षा के मामले में
हमारे देश में खूब विकास हुआ है !
लडकियाँ हवाई जहाज उड़ा रही हैं,
लडकियाँ फ़ौज में भर्ती हो रही हैं,
लड़कियाँ स्पेस में जा रही हैं,
लड़कियाँ डॉक्टर, इंजीनियर,
--
धूल हटाने से नहीं बदलती
चेहरे की त्रिकोणमिति,
उम्र का प्रश्न पत्र
हल करने के
लिए
चाहिए अन्तर्मन का ऐनक,
तुम हो लो अवाक, मैं
ज़िंदा हूँ सम्प्रति,
लोग कहते हैं
युवाओं
का

--

अगम, अगोचर बहे सदा ही

सुर-संगीत की तरणि बहती

है अजस्र वह धार परम की,

निशदिन कोई यज्ञ चल रहा

अगमअगोचर बहे सदा ही !

--

लिखूँगी ऐसा इतिहास कि पढ़ना मुश्किल हो जाएगा।

परिवर्तनशील है सृष्टि 

परिवर्तन लाना ही सीखा है 

अगर किसी और में बदलाव ना आए 

तो इससे हमारा क्या जाएगा ?

--

शाही दावात का न्योता

आओ बच्चों सुनो कहानी,

शेर खान की हो रही शादी!

डुगडुगी बजाकर भालू ने 

शाही संदेश सुनाया है,

शाही दावत का न्योता 

राजा ने सबको भेजवाया है।

--

रिश्ता ही बन चूका है चाँद से ज़िन्दगी का

मोहब्बत तो चाँद से बहुत पुराना है 
बचपन से लेकर आज तक याराना है 
तब देखने को तरसते मचलता था मन 
नयी उमंग उठने लगीं थीं मन में उससे 
पूरे चाँद-रात को ख़ुशी से मचलते थे 
--

बित्तेभर विचारों का पुलिंदा और 
एक पुलकती क़लम लेकर
सोचने लगी थी
लिखकर पन्नों पर 
क्रांति ला सकती हूँ युगान्तकारी
पलट सकती हूँ
मनुष्य के मन के भाव
प्रकृति को प्रेमी-सा आलिंगन कर
जगा सकती हूँ 
--

शरद पूर्णिमा

--

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
रवीन्द्र सिंह यादव 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और पठनीय लिंकों के साथ सन्तुलित चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार आदरणीया रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरे सृजन को स्थान देने हेतु सादर आभार आदरणीय सर।

    जवाब देंहटाएं
  3. धर्मवीर भारती की सुंदर पंक्तियों से सजी भूमिका और एक से बढ़कर एक लिंक्स से सजी चर्चा में मन पाए विश्राम जहाँ को स्थान देने हेतु बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज की चर्चा ! मेरी रचना को आज की चर्चा में स्थान देने के लिए और चर्चा का शार्षक मेरी कविता की पंक्ति से चुन कर रचना का मान बढ़ाने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! सादर वन्दे !

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत आभारी हूँ रवींद्र जी।

    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  6. लिंक्स का चयन उत्तम है.... शुक्रिया अच्छे लिंक्स उपलब्ध कराने हेतु 🙏

    शुभकामनाओं सहित
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
  7. Aapka bahut bahut shukriya meri rachana ko yahan sthan dene ke liye! dhanyavaad

    जवाब देंहटाएं

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