सादर अभिवादन !
शुक्रवार की चर्चा में आप सब विज्ञजनों का हार्दिक स्वागत। आज की चर्चा का आरम्भ कुँअर बैचेन जी द्वारा सृजित "बेटियाँ" कवितांश से -
बेटियाँ -
पवन-ऋचाएँ हैं
बात जो दिल की,
कभी खुलकर नहीं कहतीं
हैं चपलता तरल पारे की
और दृढ़ता ध्रुव-सितारे की
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इसी के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत है आज की प्रस्तुति के चयनित सूत्रों की झलकियां-
"बदन काँपता थर-थर-थर"-डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कुदरत के हैं अजब नजारे,
शैल ढके हैं हिम से सारे,
दुबके हुए नीड़ में पंछी,
हवा चल रही सर-सर-सर।
सरदी से जग ठिठुर रहा है,
बदन काँपता थर-थर-थर।।
***
प्रेम की पगडंडियों से परे हम
पहुँच गए हैं पथरीले रास्तों पर
झंझावातों के काँटे कुरेदते-कुरेदते
उलझनों के घने कोहरे में विलीन
चलने लगे हैं नींद के पैरों से
समझौते की सड़क के किनारे-किनारे।
***
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया कश्मीर को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों में वर्णन असम्भव।
***
अक्सर मन,सब्र और प्यार से उन धागों के उलझनों को तो सुलझा भी लेता है मगर खुद को कही खोता चला जाता है। दूसरों के वजूद को सँवारते-सँवारते खुद का वजूद कही गुम सा हो जाता है।सारी गाँठें तो खुल जाती हैं मगर मन खुद अनदेखे बंधनो में बांध जाता है। ये बंधन कभी तो सुख देता है और कभी अथाह दुःख।
***
मोह तमस का जाल बिछा है
हंस बना है उसका कैदी,
सुख के दाने कभी-कभी हैं
उहापोह है घड़ी-घड़ी की !
***
मछुआरे,
तुम मझधार में गए थे,
तुम्हें तो लौट आना था,
पर तुम उस पार चले गए.
अब कभी नहीं लौटोगे तुम इस पार,
***
कहूं किससे ये जज़्बात अपने
गर्भ में ही जब मौत के घाट उतारी गई मैं
अभी तो बीज से अंकुरित ही हुई थी मैं
जड़ सहित दोनो हाथों से उखारी गई मैं
***
कवि मन यूं विचलित न होना
चित्त विकल हो,नेत्र सजल हो
दर्द अनंत हो ढोना,
कवि मन यूं विचलित न होना....
***
सच तो ये है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह
रेशमी फूल हवा भी ताज़ा
ख़त मेरे नाम क्यों नहीं आया
झील में अक़्स देखना मुश्किल
इस तरफ हैं शजर, उधर छाया
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उम्र भर संघर्ष करके
रोटियाँ अब कुछ कमाई
झोपड़ी मे खाट ताने
नींद नैनों जब समायी
***
डॉ.कलीम आजिज़: तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो”
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम,
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो.
हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है,
हम और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो.
***
मेरे ख़्वाबों की दौलत तुम,
नींद पे पहरा फिर क्यों है,
रोज तुम्हें मैं याद हूँ करती,
ज़ख्म ये गहरा फिर क्यों है
***
आज का सफर यहीं तक…
आपका दिन मंगलमय हो..
धन्यवाद ।
"मीना भारद्वाज"
उम्दा लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
सुन्दर चर्चा. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिंक्स। मेरी रचना को स्थान देने के लिए विशेष धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात ! सुंदर भूमिका के साथ मनमोहक रचनाओं के सूत्रों से सजा चर्चा मंच ! आभार !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंक्स के साथ मेरी पोस्ट को भी शामिल करने हेतु हार्दिक आभार 🙏⭐🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंपठनीय लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा अंक,सभी लिंक सुंदर खोज,सभी रचनाकारों को बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
सादर।
बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय मीना दी।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने हेतु दिल से आभार।
सादर
लाजवाब चर्चा प्रस्तुति उम्दा लिंक संकलन...।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं
मेरी रचना को स्थान देने हेतु तहेदिल से आभार एवं धन्यवाद।
अर्थपूर्ण प्रस्तावना। सुन्दर संकलन व प्रस्तुति, मंत्र मुग्ध करता चर्चा मंच, मुझे स्थान देने हेतु आपका ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर भुमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति मीना जी, मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद, सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तावना के साथ, सुन्दर संकलन एवं सुन्दर संयोजन से, चर्चा अंक को प्रकाशित करने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई..मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार..सादर अभिवादन आदरणीय मीना जी.. ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भूमिका के साथ खूबसूरत लिंक्स का संचयन...
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