सादर अभिवादन
रविवार की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है
( शीर्षक आदरणीय ब्रजेंद्रनाथ जी की रचना से)
अंतरतम जब डूब गया हो
अखंड ब्रह्मण्ड विस्तार बनो तुम।
बून्द नहीं तुम बनो किसीकी
खुद की ही जलधार बनों तुम।
इन बेहतरीन पंक्तियों को आत्मसात करते हुए
चलते हैं आज की कुछ खास रचनाओं की ओर....
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ग़ज़ल "आपका एहतराम करते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
सुबह करते हैं, शाम करते हैं
हर खुशी तेरे नाम करते हैं
ओढ़ करके ग़मों की चादर को
काम अपना तमाम करते हैं
जब भी दैरो-हरम में जाते हैं
आपका एहतराम करते हैं
ओढ़ करके ग़मों की चादर को
काम अपना तमाम करते हैं
जब भी दैरो-हरम में जाते हैं
आपका एहतराम करते हैं
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तुमने जीवन पथ में कितने
चट्टानों को पार किया है।
तुमने कर्म तीरथ में कितने
तूफानों को पार किया है।
अब तो बन जा साथी अपना
मन - वीणा की झंकार बनो तुम।
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इस रात का कोई किनारा नज़र नही आता,सांची को आंच क्या (लघुकथा)धीरु नामक एक मूर्तिकार था। पत्थरों को तराश कर अनेक प्रकार की मूर्तियां एवं खिलौने बनाता और बाजार में बेचा करता। उसकी मूर्तियां काफी खूबसूरत और आकर्षक होती थी, इसलिए उसे उन मूर्तियों के अच्छे दाम मिल जाते।रोज की इस आमदनी से वह अपने परिवार का भरण-पोषण भलि प्रकार से कर लेता था।इस प्रकार उसके दिन सुख पूर्वक बीत रहे थे।-------- क्षितिज पार के पथिक - -
कोई रोशनी कोई सितारा नज़र नही आता,
इस रात का कोई किनारा नज़र नही आता,
ना चाँद की थी ख़्वाहिश ना बहारों के सपने,
दो क़दम साथ चलने ही का सहारा नज़र नही आता,
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दो दुरुस्त किए गए चुनावी अशआरशमा के सामने जलने वाले परवानों का ज़िक्र कर
दाग देहलवी कहते हैं-
शब-ए-विसाल (मिलन की रात) है गुल कर दो इन चराग़ों को
ख़ुशी की बज़्म (महफ़िल) में क्या काम जलने वालों का
और हम आने वाले चुनाव को ध्यान में रख कर कहते हैं -
अभी चुनाव है गुल कर दें शोर-ए-सच को सभी
ज़मानतें ज़ब्त हुआ करतीं हरिश्चंद्रों की
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------- एक कहानी मार्मिक सी - इतिहास के पन्नों में सरस्वती (मदीहा खान) का नाम नहीं
1904 का सन् था, बरसात का मौसम और मदरसे की छुट्टी हो चुकी थी। लड़कियाँ मदरसे से निकल चुकी थी। अचानक ही आँधी आई और एक लड़की की आंखों में धूल भर गई, आँखें बंद और उसका पैर एक कुत्ते पर जा टिका। वह कुत्ता उसके पीछे भागने लगा। लड़की डर गई और दौड़ते हुए एक ब्राह्मण मुरारीलाल शर्मा के घर में घुस गई। जहाँ 52 गज का घाघरा पहने पंडिताइन बैठी थी।------बलात्कार का आनंद लेता पितृसत्तात्मक समाज
बेटी स्वतंत्र नहीं सोच सकती
बेटी स्वतंत्र आगे नहीं बढ़ सकती
बेटी खोंख नहीं सकती
बेटी बोल नहीं सकती
बेटी प्रेम नहीं मांग सकती
बेटी नापसंद नहीं कर सकती
बेटी ना नहीं कर सकती
बेटी बाहर नहीं निकल सकती
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इन पंक्तियों पर मंथन करना बेहद जरूरी है
इन्हीं विचारों के साथ...
आज का सफर यही तक, अब आज्ञा देआप का दिन मंगलमय होकामिनी सिन्हा
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंकहानी कविता नज़्म हर तरह से सजे मंच का अलग आनंद है।
आभार
बहुत सुन्दर और सार्थक अद्यतन लिंंकों की चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार कामिनी सिन्हा जी।
आदरणीया कामिनी जी, आ0ने उतकृष्ट रचनाओं का चयन किया है। इससे चर्चा मंच जीवंत और सार्थक हो गया है। ऐसे आयोजनों की निरंतरता बनी रहे, यही मेरी इच्छाएं हैं। हार्दिक शुभेच्छाएँ। --ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा प्रस्तुति
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