सादर अभिवादन
मंगलवार की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है
(शीर्षक आदरणीय शास्त्री सर जी की रचना से)
बिना किसी भूमिका के..
आज की कुछ खास रचनाओं का आनंद उठाए...
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गीत "जनता का तन्त्र कहाँ है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बाग़ में डाल पर
सोचता रहा
उसके जीवन की
क्या कहती कहानी
कभी कली रही थी
पत्तों में छुपी
पत्तियों के कक्ष से
झांकती कली
खिली पंखुड़ी सारी
फूल खिला है
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यह सही है कि स्त्री-दमन और स्त्री-शोषण, विश्व-इतिहास का, ख़ास कर भारतीय इतिहास का, सबसे कलुषित अध्याय है लेकिन इसके खिलाफ़ हम पूरी तरह से उल्टी गंगा बहा कर एक स्त्री-प्रधान समाज को स्थापित कर न तो स्त्रियों को समाज में यथोचित अधिकार दिला सकेंगे और न ही उन्हें निर्बाध उन्नति करने का अवसर प्रदान करा पाएंगे.
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शाम की लहर-लहर
मन्द सी डगर-डगर
कुछ अनछुए अहसास हैं
जो ख़ास हैं, वही पास है
साल इक सिमट गया
याद बन लिपट गया
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रंग चुरा लूँ धूप से, संग नीर की बूँद।
इंद्रधनुष हो द्वार पर, देखूँ आँखे मूँद।।
तम के बादल छट रहे, दुख की बीती रात।
इंद्रधनुष के रंग ले, सुख की हो बरसात।।
रंगों के इस मेल में, छुपा सुखद संदेश।
इंद्रधनुष बन एक हों, उत्तम फिर परिवेश।।
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आज के राम का काम ज़रा मुश्किल है,
अब दस सिर वाला एक रावण नहीं,
अलग-अलग सिर वाले हज़ारों रावण हैं,
अब रावणों को मारना है,
तो तीर कई होने चाहिए
और निशाना होना चाहिए अचूक.
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वो जोर से हँसने लगी अब देखकर चहरा मेरा
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आज का सफर यही तक, अब आज्ञा देआप का दिन मंगलमय होकामिनी सिन्हा
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी मेरी रचना को यहाँ चर्चा मंच पटल पर स्थान देने के लिए |
सुप्रभात 🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति..
आभार 🙏
बहुत सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार कामिनी सि्हा जी।
बेहतरीन चर्चा.आभार
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत चर्चा संकलन
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