आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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उच्चारण: दोहे "जाने वाला साल"
बाहरवालों की कभी, मत करना मनुहार।
सुख-दुख दोनों में करें, घरवाले ही प्यार।।
देश और परदेश हो, या अपनी सरकार।
सभी जगह कर्तव्य से, मिलते हैं अधिकार।।
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फर्स्ट एड का रुप धर
बुहार देती है मार्ग के
कंटक…,
कोई नाम नहीं
न ही कोई उपमा
अहं की सीमाएँ लांघ
निर्बाध बहता
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श्रेष्ठ कविता / सीमा बंगवाल
कवि कहता है
श्रेष्ठ कविता कभी नहीं लिखी जाती
इस उम्मीद के साथ कि वो
कभी न कभी लिखी जाएगी
जब कवि अचानक से
ख़ामोश हो दूर चला जाता है
कविता कवि का पीछा करती है
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देखा है मैंने
उदासी के बबंडर में
मनोरथों को उड़ते।
देखा है
उदासी के सैलाब में
इच्छाओं को बहते।
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रंग और कैनवास | कविता | डॉ शरद सिंह
खाली कैनवास को
आसान है
रंगों से भरना
मगर
आसान नहीं
रंगों में
खाली कैनवास को रखना
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उम्र के सारे वसंत वार दिए
रेगिस्तान में फूल खिला दिए
जद्दोजहद चलती रही एक अदद घर की
रिश्तों को सँवारने की
हर डग पर चाँदनी बिखराने की
हर कण में सूरज उगाने की
अंततः मकान तो घर बना
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कहते हैं लोग कि
बीती ताहि बिसार दे
लेकिन --
क्या हो सकता है ऐसा ?
विगत से तो आगत है।
हर माता- पिता ये चाहते है कि उनके बच्चे उनका सम्मान करें,उन्हें हमेसा यूं ही प्यार करे...पर एक बहुत गौर करने वाली है,कि वही माता-पिता उन्ही बच्चो के सामने अपने माता-पिता की बुराई करते है...उन्हें समनं नही देते है...जब हम एकल परिवार में रहने लगे,तब से ना तो हम अपने माता-पिता को याद करते है..ना ही बच्चो को ही पता है कि उनके दादा-दादी या नाना-नानी ने उनके माता-पिता को कैसे संघर्षों के साथ पालन-पोषण किया है...
"माँ फिल्मों में सावन के रिमझिम पर इतने सारे गीत क्यों बने है.....क्या ख़ासियत थी इस महीने की....हमने तो कभी इसे इतना बरसते नही देखा.....हमारे लिए तो ये आग उगलता घुटन भरा मौसम ही होता है।" हाँ , बेटा तुम लोग कैसे देखोगे...हमने ऋतुओं का रंग-रूप जो बिगाड़ दिया....बारिश का होना बृक्षों के होने ना होने पर निर्भर करता है और हमने तो धरती को वृक्ष विहीन ही करने की ठान रखी है। पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर हमने ऋतुओं को भी अपना स्वभाव बदलने पर मजबूर कर दिया है।
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इधर भोर होते ही स्मिथ की फ़ौज में युद्ध का बिगुल बज गया. स्मिथ ने एक भाग को रिजर्व में छोड़ा और अन्य के साथ आगे बढ़ा. उसका दल ४०० या ५०० कदम आगे बढ़ा था कि क्रांतिकारी सेना के गोलों की बौछार होने लगी. पीछे हट कर उसने अपने घुड़सवार दस्ते को आगे बढ़ाया और पीछे से गोलों की मार शुरू की. घनघोर युद्ध शुरू हो गया. इसी में रानी के एक तोपची ने कैप्टेन हिनेज को लक्ष्य करके एक गोला चलाया मगर दुर्भाग्य से गोला कैप्टेन के घोड़े को लगा और वह बच गया. हिनेज इस घटना से इतना डर गया कि कमान कैप्टेन पोर को दी. युद्ध होते-होते दोपहर हो गई. कोई भी पक्ष न जीतता और न ही हारता लग रहा था.
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पहाड़ों को ज़मीन अच्छी लग रही थी। ज़मीनों को समंदर। समंदर पठार बनना चाहता था; पठार अपने भीतर के घाव से जूझ रहा था। पठार की कुंठा थी कि हाय! न हम समंदर बने, न समतल रहे, न पहाड़ों में गिनती हुई। जिसका जो यथार्थ था, वही उसे काटने दौड़ रहा था। ईश्वर उलाहने, ताने सुनकर क्षुब्ध था, सबकी अतृप्त अभिलाषाओं का ठीकरा उस पर फूट रहा था। सबकी व्याधियों का नियंता वह तो नहीं, फिर दोषी क्यों?दुःखी ईश्वर के मुंह से अनायास फुट पड़ा, संतुष्टि के आतिथ्य का अधिकारी वही, जो जड़बुद्धि हो
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आज बस इतना ही
कल आ रहीं हैं हमारी नई चर्चाकारा
आदरणीया अनिता सुधीर जी
आप सभी भी आइएगा।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बहुत सुन्दर विविधरगी पुष्पगुच्छ सी चर्चा प्रस्तुति। 'नेह' को प्रस्तुति में सम्मिलित कर चर्चा के शीर्षक के रुप में मान देने के लिए आपका हृदयतल से आभार अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लिंकों से सजा सराहनीय प्रस्तुति प्रिय अनीता,मेरे लेख को भी स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें एवं नमन। आदरणीय अनीता सुधीर जी का चर्चामंच पर हार्दिक स्वागत है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संकलन।
जवाब देंहटाएंआभार ।
शानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏
जवाब देंहटाएंलाजबाव चर्चा संकलन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।💐💐
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