सादर अभिवादन !
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी प्रबुद्धजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
आज की चर्चा का शीर्षक "उजाले के लिए रातों में, नन्हा दीप जलता है।।" आ. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक' जी की रचना से लिया गया है।
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आइए अब बढ़ते हैं आज की चर्चा के सूत्रों की ओर
"समय का चक्र चलता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कहीं चन्दा चमकता है, कहीं सूरज निकलता है,
नहीं रुकता, नहीं थकता, समय का चक्र चलता है।
लड़ा तूफान से जो भी, सिकन्दर बन गया वो ही,
उजाले के लिए रातों में, नन्हा दीप जलता है।।
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नेह-गेह का उमड़ा शीतल झोंका,
किसलय-सी प्रीत पनपाने को,
लोक की मरजाद ठहरा पलकों पर,
थाह शीतलता की जताने को,
सर्द हवाएँ चली मंगलबेला में,
ओस से आँचल सजाने को |
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"मर्जी हमारी..आखिर तन है हमारा...."
आज के इस दौर के "कोरोना काल " में आर्युवेद और योग ने अपना महत्व समझा ही दिया है,इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। "गिलोय" जिसे आर्युवेद की अमृता कहते हैं आज से दस साल पहले एका-दुक्का ही इसका नाम जानते थे आज बच्चा-बच्चा जानता है। यकीनन पचास प्रतिशत घरों में इसका पौधा भी मिल जायेगा।
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एक अजीब सा सन्नाटा है हर तरफ,
नीम से लेकर बरगद वाले चौबारे
तक, कुछ रंगीन छाते उड़ रहे
हैं ऊपर, बहुत ऊपर की
ओर, बाट जोहता
सा है गाँव
मेरा,
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"हाँ मम्मी ! पिज्जा ही चाहिए था भगवान जी के लिए। उन्होंने मेरी इतनी बड़ी विश पूरी की, तो पिज्जा तो बनता है न, उनके लिए"....।
"अरे ! पिज्जा का भोग कौन लगाता है भला " ?...
"वही तो मम्मी ! कोई नहीं लगाता पिज्जा का भोग..... बेचारे भगवान जी भी तो हमेशा से पेड़े और मिठाई खा- खा के बोर हो गये होंगे , हैं न.......।
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. Henry की पुण्यतिथि: पढ़िए उनकी कहानी - #TheLastLeaf
वाशिंगटन चौक के पश्चिम की ओर एक छोटा-सा मुहल्ला है जिसमें टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के जाल में कई बस्तियां बसी हुई हैं। ये बस्तियां बिना किसी तरतीब के बिखरी हुई है। कहीं-कहीं सड़क अपना ही रस्ता दो-तीन बार काट जाती है।
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माना है मुश्किल बहुत रास्ता,
कई तीखे ठोकर भी हैं राह में।
मगर हो इरादे मजबूत तो,
रुकावट न आती कोई चाह में।
हर मुश्किलों से सदा हम लड़ें,
तुफां में भी हो अडिग हम खड़े,
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एक नदी बहती है तुम्हारे अंदर, मेरे अंदर है और हम दोनों के अंदर। नदी यदि बहती है तब हम एक दूसरे के बेहद करीब और प्रवाहित रहेंगे लेकिन यदि नदी कोई भी किसी के भी अंदर सूख गई तब यकीन मानिये कि हम अपने बहुत गहरा रेगिस्तान बना लेंगे
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बच्चे और वृक्ष -बचपन के साथी ( लोकगीत )
सपने में आज सखी तरुवर देखा
तरुवर के नीचे खेलें बालक देखा
तरुवर के नीचे छहाएँ, सखी नन्हें बालक
तरुवर से हँस बतियाएँ, सखी नन्हें बालक
तरुवर की डाल चढ़ जाएँ, सखी नन्हें बालक, अँखियन देखा
सपने में आज.......
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छाया जिनकी शीतल सुखकर
मोहक छांव ललाम
ऐसे देवतरु को प्रणाम
खगकुल सारे नीड़ बनाते
पशु पाते विश्राम
ऐसे देवतरु को प्रणाम.....
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शीर्ष पर गोल कुमकुमी आह्लाद
प्रातः के नाद की
अलागिनी ,
ऊर्जा में निमृत
सुहासिनी ,
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घर पर रहें..सुरक्षित रहें..,
अपना व अपनों का ख्याल रखें…,
फिर मिलेंगे 🙏
"मीना भारद्वाज"
उत्कृष्ट संयोजन!मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद मीना जी!
जवाब देंहटाएंआदरणीय मीना जी, नमस्कार !
जवाब देंहटाएंसुंदर तथा वैविध्यपूर्ण एवम रोचक संस्करण ।
आपके अथक प्रयास को हार्दिक नमन ।
मेरे गीत को स्थान देने के लिए दिल से शुक्रिया ।।
शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
बहुत ही शानदार अंक है, सभी रचनाओं का चयन उम्दा है। आभारी हूं आपका मुझे मेरी रचना को यहां सम्मान देने के लिए।
जवाब देंहटाएंमीना जी आपका आभार इसलिए भी क्योंकि ये शब्द और नदी मैंने बेहद एकाग्र होकर लिखे थे जिससे शब्दों की ये नदी को प्रवाह मिल सके..ये आपके चयन से संभव हो पाया है।
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचनाओं के सूत्र देती सुंदर चर्चा!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंकों से सुसज्जित लाजबाब अंक,मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद मीना जी,सभी को शुभकामनायें एवं नमन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय मीना दी। मेरे सृजन को स्थान देने हेतु दिल से आभार।सभी को हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद पटल पर आया हूँ सुन्दर और सारगर्भित लिंकों का संयोजन , उत्कृष्ट रचनाओं के लिए सभी को साधुवाद
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लिंकों से सजी श्रमसाध्य एवं सराहनीह चर्चा प्रस्तुति... मेरी रचना को चर्चा में सम्मिलित करने हेतु तहेदिल से आभार एवं धन्यवाद मीना जी !
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।
बेहतरीन चर्चा संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
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