सादर अभिवादन !
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी प्रबुद्धजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
आज की चर्चा का शीर्षक सुश्री डॉ.शरद सिंह जी की कविता "इश्क बिना" से लिया गया है ।【शीर्षक-"पुरानी क़िताब
के पन्नों-सी पीली पड़ी यादें"】
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आइए अब बढ़ते हैं आज की चर्चा के सूत्रों की ओर-
"जग के झंझावातों में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मानव दानव बन बैठा है, जग के झंझावातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
होड़ लगी आगे बढ़ने की, मची हुई आपा-धापी,
मुख में राम बगल में चाकू, मनवा है कितना पापी,
दिवस-रैन उलझा रहता है, घातों में प्रतिघातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।
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इश्क़ बिना | कविता | डॉ शरद सिंह
वक़्त की क़िताब भले पीली हो
पर रहती हैं यादें
हमेशा हरी, ताज़ा
और ओस में नहाई हुई
इश्क़ बिना भी।
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संस्मरण पौड़ी के: शक्तिमान - एक किंवदन्ती
समय का चक्र भी अजीब है। वह अपनी गति से घूमता है। कभी कभी ऐसा लगता है कि हम लोग यहाँ एक किरदार निभाने के लिए आये हैं। उस किरदार को कल कोई और निभा रहा था, आज हम निभा रहे हैं
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हैरान हूँ मैं,
यूँ ही बिना बात के तो
होती नहीं किसी की तारीफ़,
कुछ ऐसा तो नहीं कर दिया मैंने
जिसकी ख़ुद मुझे ख़बर नहीं?
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गंगा सदा पूज्यनीय (गंगा दशहरा विशेष)
तू शिव जटा की धार भी
तू धरणी का श्रृंगार भी
तू मोतियों का हार भी
धरा के मानचित्र पे तू
कण्ठ में सजी लड़ी
तू मोक्ष....
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बूँदों की सरगम और मानसून के साज पर राग पावस
इन दिनों की राह तो जैसे सारी कायनात देख रही होती है ! मौसम का यह खुशनुमा बदलाव समस्त चराचर को अभिभूत कर रख देता है। आकाश में जहां सिर्फ आग उगलते सूर्य का राज होता था वहीं अब जल से भरे कारे-कजरारे मेघों का आधिपत्य हो जाता है।
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भीत टटोले सबके मुखड़े
मौन लगाता है जाले।
कभी सजी थी खुशियाँ जिसमें
सूने दिखते वो आले।
अम्बर देख बहाए आँसू
खिला धरा पे पत्थर वन।
प्रेम नगरिया……
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करो परिश्रम आगे बढो तुम, मंजिल अभी दूर है
इतना लम्बा रास्ता है कि तुम छाया सुरुर है
कहाँ तुम्हारी मंजिल है ये मैने अब पहचाना
सागर से मिलने को चली तुम ये मैंनें है जाना....
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घर किसी के दिया इक, जला कर के देख़
घर किसी के दिया इक, जला कर के देख़,
क्या मिलेगा सकूँ, आज़मा कर के देख़ ।
सरहदों पर हैं बुझते, चिरागों के घर,
जो हक़ीक़त है ख़ुद की बना कर के देख़ ।
देखनी है दिलों में, ख़ुशी अपनों की,
मिट सकें रंजिशें तो, मिटा कर के देख़ ।
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कृष्ण सौंदर्य
पट पीत सजे वनमाल गले,अधरों पर चंचल हास्य सखी।
सिर मोर पखा लड़ियाँ लटके,मुरली कर में अभिराम दिखी।
मन मोह लिया सुध भूल गई,नयना तकते अविराम सखी।
यमुना तट धेनु चरावत वे,छवि नैनन से दिन-रात लखी।
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अनुबंध मन के..तोड़कर जाएंगे कहां
अनुबंध मन के ........तोड़कर जाएंगे कहां ..
लौटेंगे यहीं..मन के आकर्ष झुठलाएंगे कहां..
व्यथित होंगे.............तलाशेंगे तुम्हीं को..
वेदना हृदय की मिटाने को....मधुर मधुर..
कोमल कोमल वचनों के स्पर्श पाएंगे कहां..
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घर पर रहें..सुरक्षित रहें..,
अपना व अपनों का ख्याल रखें…,
फिर मिलेंगे 🙏
"मीना भारद्वाज"
बहुत ही बेहतरीन चर्चा । चुन चुन कर लिंके पेश किए हैं । एक एक कार सभी पर आज वक़्त लगाऊंगा ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना इस मंच ओर रखने के लिए तहे दिल से शुक्रिया ।
सादर ।
बेहतरीन चर्चा। मेरी कविता को स्थान देने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा, मीना दी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर तथा सराहनीय अंक आदरणीय मीना जी, मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार एवम नमन, शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए आभार आपका
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक रचनाओं का चयन,बेहतरीन प्रस्तुति मीना जी,सभी को हार्दिक शुभकामनायें एवं नमन
जवाब देंहटाएंरोचक लिंक्स से सुसज्जित चर्चा। मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंसभी लिंक्स एक से बढ़ कर एक हैं, खासकर पौड़ी के संस्मरण,शरद जी की कविता,प्रीति मिश्रा, जिज्ञासा जी, ज्येति जी की रचनाऐं लाजवाब---बहुत खूब मीना जी। आपका धन्यवाद कि इतनी अच्छी रचनायें एक ही जगह पढ़ने को मिल रही हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिंक्स, बेहतरीन रचनाएं। मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार प्रिय मीना जी।
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