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गुरुवार, जुलाई 15, 2021

मैं तेरी पीठ थपथपाऊँ, तू मेरी पीठ थपथपा ( चर्चा - 4126 )

आज की चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है 
 पिछले कुछ वर्षों से अच्छे दिनों से डर लगने लगा है, ऊपर से अब ब्लॉगजगत में अच्छे दिन वापिस लाने का प्रयास हो रहा है। वैसे मैं ब्लॉगजगत से उस समय से जुड़ा हुआ हूँ, जब ब्लॉगजगत के अच्छे दिन थे यानी ब्लॉग पर हर पोस्ट पर सैंकड़ों कमेंट आते थे। धीरे-धीरे कमेंट आने बंद होते गए और कमेंट की चाह में लिखने वालों के ब्लॉग भी बंद होते गए। मुझे पहले भी कमेंट नहीं आते थे, इसलिए जैसे पहले कभी-कभार लिखता था, वैसे ही अब भी लिख रहा हूँ। मेरे कई ब्लॉग हैं। ये अच्छे दिनों से प्रभावित होकर नहीं बनाए अपितु मैं एक ही ब्लॉग पर सब कुछ लिखने का इच्छुक नहीं था, इसलिए कई ब्लॉग बनाए। सन 2000 के दिनों में मेरे खेल आलेख प्रमुख समाचार पत्रों में बड़े खिलाड़ियों के लेखों के साथ या वैकल्पिक तौर पर प्रकाशित होते थे। जब समाचार पत्रों ने इस पृष्ठ को बंद किया तो उसके लिए ब्लॉग बनाया लेकिन समयाभाव के कारण मैच देखने बंद हुए और लिखना बंद हुआ। एक ब्लॉग साहित्यिक रचनाओं का था, जिस पर अब भी कभी-कभार लिख रहा हूँ। एक ब्लॉग विचारों के लिए था, जो अब समीक्षा के लिए निर्धारित हो गया। एक अन्यत्र प्रकाशित रचनाओं के लिंक सहेजने और एक पंजाबी रचनाओं के लिए था। यह सब बताने का उद्देश्य ये है कि ब्लॉगजगत के बुरे दिनों और अच्छे दिनों का मेरी ब्लॉगिंग पर कोई फर्क नहीं पड़ा और अब पुनः अच्छे दिन आने से भी शायद ही कोई फर्क पड़े। यहाँ अच्छे दिनों के बारे में स्पष्ट करना चाहूँगा। ब्लॉग में अच्छे दिन का अर्थ ये नहीं कि साहित्य की दिशा में कुछ अच्छा होगा, अपितु ये है कि सभी ब्लॉगर दूसरे ब्लॉग पर टिप्पणी करें यानी एक ब्लॉगर पहले 100 ब्लॉग पर टिप्पणी करके आए और फिर वे 100 ब्लॉगर उसके ब्लॉग पर टिप्पणी करें। फिर कुछ नए ब्लॉगर भी इस चाह से टिप्पणी करेंगे कि हो सकता है, ये भीड़ उनके ब्लॉग पर जमने लगे। कुछ लोग आनन-फानन में ब्लॉग बनाएंगे कि इस काम में तो शोहरत बहुत है ( जैसे आजकल हर कोई यू ट्यूबर बन रहा है) ।
इसे यूँ भी कह सकते हैं -
मैं तुझे प्रसिद्ध बनाऊँ, तू मुझे प्रसिद्ध बना
मैं तेरी पीठ थपथपाऊँ, तू मेरी पीठ थपथपा।
इस पीठ थपथपाने से क्या साहित्य का कुछ भला होगा? निस्संदेह यह सच है कि ब्लॉग और फेसबुक ने बहुत से लोगों को साहित्य से जोड़ा है, लेकिन ज्यादातर पर फेसबुकिया लेखक का ठप्पा लगा हुआ है। इसके पीछे स्थापित लेखकों की संकीर्णता तो है ही, कहीं-न-कहीं हमारी एक दूसरे की पीठ थपथपाने की आदत भी है। यह सच है कि शाबासी हमें प्रोत्साहित करती है, लेकिन शाबासी न मिलने से अगर हम कोई भी काम बंद करते हैं, तो इसका एकमात्र अर्थ है कि उस काम में हम रुचि के कारण नहीं आए थे, शाबासी लेने के लिए आए थे। बड़े-बड़े लेखक अपने दौर में गुमनाम रहे, फिर हमारी तो हस्ती ही क्या? भूमिका लंबी भी हो गई है और उपदेशात्मक भी, इसलिए इसे विराम देना ही उचित होगा। हाँ, चलते-चलते गीता के कर्म करो, फल की इच्छा न करो, के उपदेश को याद दिलवाना चाहूँगा क्योंकि बेचैनी को रोकने में यही सहायक है।
चलते हैं चर्चा की ओर
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क 

13 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    आज का चर्चा मंच दिल को छू गया |अभी तक यह समझ न आया कि लोग ब्लॉग पर टिप्पणी डालना क्यों पसंद नहीं करते |मैंने तो सोच लिया था चूंकि मेरी कवितायेँ उच्च स्तर की नहीं है |इस कारण ही अधिक फालोअर्स नहीं हैं |
    आपका लेख पढ़ कर बहुत संतुष्टि मिली |मेरी रचना की लिंक शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद सर |

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  2. बहुत सुन्दर सारगर्भित और मार्गदर्शन करती भूमिका। सुन्दर लिंक्स से सजी प्रस्तुति ।

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  3. वाह ! जोरदार भूमिका के साथ स्तरीय रचनाओं का चयन, सम्भव है समयाभाव के कारण ही सब ब्लॉग्स को पढ़ना और अपनी राय लिखना सम्भव नहीं पाता हो, किसी तरह तो समय निकाल कर कोई लिखता है फिर उसे प्रकाशित करता है. अधिकतर तो यह स्वांत: सुखाय ही होता है. आभार !

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  4. मेरे लिए तो लेखन स्वयं को अभिव्यक्त कर सुख पाने के साथ-साथ कुछ सीखने -सीखने का जरिया है।प्रशंसा होती है तो स्वाभाविक है प्रसन्ता होती है ना मिले तो भी लिखना जारी है....
    "कर्म करो, फल की इच्छा न करो, के उपदेश को याद दिलवाना चाहूँगा क्योंकि बेचैनी को रोकने में यही सहायक है।"
    बिल्कुल सही कहा आपने सर, ये सत्य तो जीवन के हर पल में याद रखने की जरुरत है।
    मार्गदर्शन करती भूमिका के साथ बेहतरीन लिंकों का चयन,सादर नमन सर

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  5. कुछ लोग तो लेखन साधना की तौर पर लेते है
    कुछ लोग प्रदर्शन के तौर पर लिखते है -
    कुछ लोग टिप्पणियों को सकारात्मक नही लेते अत:

    हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग
    रो रो के बात कहने की आदत नहीं रही

    -दुष्यन्त कुमार -

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  6. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।भूमिका बहुत ही सुंदर है सारगर्भित और अच्छी अच्छी प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली।
    चंद शब्दों से किसी को संबल मिले तब प्रदान करना चाहिए।
    सादर

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  7. मेरे नवगीत 'रुठ्या सावण भादो'को स्थान देने हेतु सादर आभर।

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  8. आज की भूमिका के लिए आपको साधुवाद । यदि गीता के ज्ञान को आत्मसात कर लिया तो फिर किसी तरह से भी डर कैसा ? अच्छे दिनों के नाम से ये कैसी दहशत । खैर ये बात जाने दीजिए , जहाँ तक मुझे लगता है कि ब्लॉग जगत के तो बुरे दिन कभी आये ही नहीं । आप अच्छे दिन लाने के प्रयासों की बात कर क्यों रहे हैं पता नहीं ? आपने तो यूँ अच्छे दिनों का भी स्वाद नहीं चखा , क्यों कि आप को शाबाशी देना नहीं आता ।

    वैसे आप किन अच्छे दिनों की बात कर रहे ? अगर टिप्पणियों की संख्या से अच्छे बुरे दिन गिन रहे तो ये आपका भ्रम है , असल में तब और इस तरह का मंच नहीं था जहाँ लोग अपने लिखने की पिपासा को शांत कर पाते , और लोगों के लिखे को पढ़ पाते ।

    और रही बात शाबाशी देने लेने की तो उससे आपको कोफ्त क्यों हो रही ? शाबाशी एक ऐसी प्रक्रिया जो और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करती है , और कोई भी कार्य एक तरफा नहीं होता । आप अपने मित्र , या रिश्तेदार के घर भी एक बार जाएंगे , दो बार जाएंगे , और शायद दो या तीन बार चले जायेंगे लेकिन वो आपके घर नहीं आता (बिना किसी विशेष मजबूरी के ) तो आप जाना छोड़ देंगे । यही बात हर जगह लागू होती है । आप नहीं जाते कोई बात नहीं लेकिन आप सबको एक लाठी से हाँकना चाहें ये भी उचित नहीं । आपके यह कहने से कोई विशेष फर्क पड़ने वाला नहीं है ।
    और ये कहना कि शाबाशी की चाह से किसी ने लिखना छोड़ दिया है तो आप गलत हैं .... बस लोगों ने मंच बदल दिया है, अर्थात फेसबुक पर लिखते हैं । फेसबुकिया लेखक की तरह आपके शब्दों में । और लिखने वाले ब्लॉग पर भी अपनी पोस्ट डालते हैं बस उन्होंने और ब्लॉग पर जाना छोड़ दिया है या ये कहें कि बहुत आगे निकल गए हैं साहित्य साधना में । जिसको जहाँ अच्छा लगेगा वहीं रमेगा ।
    अपने कर्म कोई नहीं त्यागता , थोड़ा व्यवधान आ सकता है ।
    वैसे एक प्रश्न ज़रूर मन में आ रहा है कि जब एक दूसरे ब्लॉग पर जाना नहीं तो यहां चर्चा में लिंक लगाने का क्या औचित्य ?
    साहित्य का भला तो कोई सोच कर नहीं लिखता , अपने काल में लिखा हुआ सब बाद में ही साहित्य में शामिल होता है ।
    वैसे आपका हर तंज सिर आँखों पर । आपने भूमिका के माध्यम से अपनी बात रखी और मैंने अपने मन की बात टिप्पणी के माध्यम से । मुझे कोई शाबाशी देने में हिचक नहीं है इसीलिए शाबाशी के रूप में मेरी टिप्पणी प्रेषित है ।
    और मैं इसके बाद कोई प्रयास यहाँ इस विषय पर लिखने का नहीं करूँगी । क्यों कि आपकी शाबाशी तो मिलने से रही ।
    धन्यवाद

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    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया और आपके फ़ैसले का स्वागत है। वैसे मुझे लगता है कि मैंने कई बार आपके ब्लॉग का लिंक दिया है । आप उस पर टिप्पणी देने आई या नहीं , मुझे नहीं पता । हाँ, बहुत से लोग नहीं आते । दस लिंक के बाद दस टिप्पणियाँ नहीं होती । सबकी अपनी मर्ज़ी है । मैंने भी यही कहा कि टिप्पणी मिले तो अच्छा, नहीं मिले तो अपना कर्म करना चाहिए। आपने इसे जिस अर्थों में लिया उसके लिए आप स्वतंत्र हैं।
      इस ब्लॉग पर छह दिन चर्चा दूसरे चर्चाकारों द्वारा लगाई जाती है, इसलिए मेरे प्रति कटु अनुभव को मेरे तक रखते हुए आप उनकी चर्चा पर आते रहें,

      हटाएं
  9. कलम तोड़ प्रस्तुति सर! बेहतरीन, बेमिसाल,खूबसूरत और लाजवाब!

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  10. आज के युग की यथार्थ अभिव्यक्ति।

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