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सोमवार, जुलाई 05, 2021

'कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये कुछ कुछ नहीं है'(चर्चा अंक- 4116)

 सादर अभिवादन 

सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 


सरकारी सिस्टम में फँसी 

करोना पीड़ित की लाश 

ढाई महीने बाद 

परिजनों को दिखाकर 

जलाई जाती है,

देरी की वजह 

लाश के बदले 

ग़रीब घरवाली से 

पंद्रह हज़ार रुपये 

रिश्वत माँगी जाती है!

#रवीन्द्र_सिंह_यादव 


आइए अब पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ सद्य प्रकाशित रचनाएँ-

कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये

 कुछ कुछ नहीं है तो भी क्या होता है

खड़े खड़े या पड़े पड़े
या फिर सड़े सड़े से
गुजरता खीजता खीसेँ निपोरता
कहीं किसी बियाबान में खो जायेगा

सब लिखने वाले
कुछ लिखते ही हैं
--

प्रेम वही होता है

जो बर्तन की खटपट से

भाँप लेता है

कि रात की दो बज गई है

और अब तक खाना नहीं खाया है


प्रेम वही होता है

जो आवाज़ की रफ़्तार से

मन के भाव समझ लेता है 

--

माँ....

माँ'जिन्दगी का नगमा है जो ग़म में सुकून देता है।
मां का आँचल पेड़ की छांव है जो दर्द की धूप से बचाता है।।

मां की ख़ुशबू से सारा जहां महक उठता है....
मां का प्यार वो मशाल है जो सही रास्ता दिखाता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार ने भारत में किसी भी प्रकार के राजनीतिक आन्दोलनों पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया था.
लेकिन गांधी जी ने अगस्त, 1942 में अंग्रेज़ों को भारत से भगाने के लिए – ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का आह्वान किया जिसमें कि नौजवानों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था.
8 अगस्त, 1942 की रात को कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद यह आन्दोलन थमा नहीं, बल्कि भारत के नौजवानों ने इसे इसके शबाब पर पंहुचा दिया था.
संयुक्त प्रान्त के गवर्नर गार्नियर हैलेट मॉरिस ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को कुचलने में अत्याचार की सभी सीमाएं पार कर दी थीं.
आम भारतवासियों में उसके अत्याचारों का आतंक व्याप्त था लेकिन हमारे नौजवानों में उसके अत्याचारों से ब्रिटिश हुकूमत की खिलाफ़त का जज़्बा ज़रा भी मंद नहीं पड़ा था
आहत हो कर अंतस सोचे,कैसे पीर अपार लिखें।
रंग बदलते मानव के नित,कैसे क्षुद्र विकार लिखें।।

पढ़े चार अक्षर ये ज्ञानी,नित्य बखेड़ा करते जब
अपशब्दों का दौर चला है,कैसा जग व्यवहार लिखें।।
 चार-पाँच औरतें खिलखिलाती हुई होटल में लंच हॉल  में घुसी और कोने में व्यवस्थित सीटिंग व्यवस्था पर जा बैठी । शायद "रिजर्व" की तख्ती पर ध्यान देने की फुर्सत नहीं थी किसी के पास । सभी अपने अपने लुक्स पर फिदा थी और एक -दूसरे से ज्यादा सलीकेदार जताने की कोशिश में लगी थी तभी एक वेटर ने टेबल के पास आ कर अदब से सिर झुकाते हुए विनम्रता से कहा-"यह टेबल रिजर्व है मैम ,मैं आप लोगों के लिए दूसरी तरफ व्यवस्था कर देता हूँ ।"
पुराने अख़बार के
आख़िरी पन्ने के
निपट कोने में
छपे समाचार की भांति
रविवार का एक दिन और 
तहा कर रख दिया जाएगा
सिरे से भुलाकर
इस डिज़िटल युग में
बाला ओ गोपला, प्यारे नंद जी को लाला तुम
काहे मोहें लुक छिप, करो हैरान है ।
बारी बारी लख बारी, करती मुआफ तोहें
सोचे यही मन मेरो, छोरो नादान है ।।
कुछ कंकर 
उस रेत पर। 
सजाता चला गया
रेत पर कंकर 
देखा तो बेटी तैयार हो गई
उसकी छवि 
पूरी होते ही वो मुझसे बतियाने लगी
मुस्कुराई, 
कभी नजरें इधर-उधर घुमाई...। 
अनकहे अल्फाज़ों  को 
हवा में बहने दो।
कुछ अनकही रही थी
 वह सुनने दो।
भीनी हवा का रुख 
यूँ  बहने दो।

11 टिप्‍पणियां:

  1. आभारी हूँ आपका आदरणीय रवींद्र जी...। मेरी रचना को मान दिया...। सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं..

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  2. बेहतरीन संकलन
    मेरी रचना को स्थान देने के लिये हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. अति सुन्दर संकलन
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया रविन्द्र जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. विविधताओं से परिपूर्ण सूत्रों से सजी बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति ।
    मेरे सृजन को चर्चा में सम्मिलित करने हेतु सादर आभार । सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई ।

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  6. सदा की तरह सुंदर व विविधतापूर्ण संकलन

    जवाब देंहटाएं
  7. अदरनीय रवीन्द्रसिंह जी,सुन्दर तथा रोचक रचनाओं का सुंदर संकलन,मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार एवम नमन।

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  8. मेरी कविता को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार रवींद्र सिंह यादव जी 🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
  9. सदा की भांति कुशल संयोजन... साधुवाद रवीन्द्र जी 🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं

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