सादर अभिवादन !
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है ।
आज की चर्चा का शीर्षक व काव्यांश आ. अमृता तन्मय जी की रचना 'का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर !..' से है -
जाहिर है कि लेखन भी सिर्फ उन विलुप्त प्रजाति के अदृश्य पाठकों की पसंद-नापसंद का मोहताज हो गया है जो अब सच में आन्हर हो गये हैं। वे भला आन्हर क्यों न हों? आखिर कब तक उन भोले-भाले पाठकों की आँखों में इसतरह के कचरा-लेखन को झोंक-झोंक कर, अपने शौक और सनक से आन्हर हुए, तथाकथित लेखक गण ऐसे वैचारिक शोषण कर सकते हैं? आखिर कब तक सीधे-सादे पाठक, जानबूझकर उनपर थोपे हुए मानसिक विलासितापूर्ण लेखन की गुलामी करते रहेंगे? इसलिए अब वें अपने पढ़ने की तलब को ही अपना त्रिनेत्र खोल कर आग लगा रहें हैं। वें अपना विद्रोही बिगुल भी जोर-जोर से फूँक कर अपने आन्हर और बहिर होने का डंका भी पीट रहें हैं। तब तो वें लेखकों के लाख लुभावने वादे या गरियाने- गिरगिराने के बावजूद भी उन्हें पढ़ने नहीं आ रहें हैं। न चाहते हुए भी अब लेखक गण अपना लेखन-खाल उतार कर संन्यास लेने को मजबूर हैं। आखिर पापी प्रतिष्ठा का भी तो सवाल है। फिर अपने रुदन-सम्मेलन में सामूहिक रूप से विलाप भी कर रहें हैं कि- "का पर करूँ लेखन कि पाठक मोरा आन्हर।"
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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दोहे "चमन हुआ गुलजार"
धूप खिली है गगन में, पछुआ चली बयार
मौसम है मधुमास का, चमन हुआ गुलजार।।
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कितना निर्मल बह रहा, गंगा जी में नीर।
जल में डुबकी लगा कर, पावन करो शरीर।।
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
बाली की चौगान घनेरी
दादा की एक खटोली
श्याम खरल में घोटा चलता
जड़ी बूटियों की थैली
स्मृतियों की गुल्लक से निकली
मुद्रित यादें नाम लिखी।।
झुंझलाते, झल्लाते
वातावरण में
बांटा जा रहा है
डिस्पोजल ग्लास में पानी
पीने वालों को
हर घूंट कड़वा लग रहा है
लेकिन फिर भी पी रहें हैं
घूंट घूंट पानी
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
कहाँ बजे और कौन सुने
यह धुन मैं ही जानूँ
सकल प्रीत की उठती ज्वाला
लपट हृदय बिच भानू
खेल नहीं ये मन ही जाने
क्या पहचानें पोंगी ?
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
पापा के मुँह से "हूँ" सुनकर आगे बोला, "तो फिर कब आऊँ पापा" ?
"जब तुम्हें छुट्टी मिले आ जाना" कहकर पापा ने फोन रख दिया।
अगले ही दिन निधि को साथ लेकर अनुज घर पहुंच गया और दोनों ही बड़े संस्कारी बन माँ -पापा की देखभाल एवं सेवा में लग गये ।मौका देखते ही अनुज बोला "पापा ! घर खरीदने के लिए पार्टी तैयार है कहो तो कल बुला लें मीटिंग के लिए, फिर जैसा आप ठीक समझें"।पापा बोले, "ठहर बेटा ! कल नहीं मेरी मीटिंग तो आज ही है बस वकील साहब आते ही होंगे"।
तो उसके इस बेबाकी को बस पूज्यनीय पाठक गण दिल पर न लें। उन्हें दिमाग पर भी लेने की कतई जरूरत है ही नहीं (वैसे नामचीनों को भी कौन पाठक दिलो-दिमाग पर लेता है, बस वे ही नामचीन होने का वहम दिलो-दिमाग पर लिए फिरते हैं )। ये कुबूलनामा इस दीन-हीन, खिसियानी बिल्ली की तरह, खार खाए हुए लेखक का वो दर्द है, जिसे लिए वह पाठकों का बात-लात खा-पीकर भी हासिए से बाहर होना नहीं चाहता है।
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आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'