सादर अभिवादन।
शुक्रवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है
शीर्षक व काव्यांश आदरणीय दिगम्बर नासवा जी ग़ज़ल 'हिसाब कुछ लम्हों का ...' से-
नहीं सहेजना जख्मी यादेंसांसों की कच्ची-पक्की बुग्नी में काट देना उम्र से वो टुकड़ेजहाँ गढ़ी हो दर्द की नुकीली कीलेंऔर न निकलने वाले काँटों का गहरा एहसास की हो जाते हैं कुछ अच्छे दिन भी बरबादइन सबका हिसाब रखने में
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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भूमिका "डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक की पुस्तक-धरा के रंग" -पूर्णिमा वर्मन
बादल जब जल को बरसाता,
गलियों में पानी भर जाता,
गीला सा हो जाता आँगन।
एक और रचना में वे वर्षा को इस प्रकार याद करते हैं-
बारिश का सन्देशा लाये!!
नभ में काले बादल छाये!
जल से भरा धरा का कोना,
हरी घास का बिछा बिछौना,
खुश होकर मेंढक टर्राए!
नभ में काले बादल छाये!
जल्द ही ओढ़ लेगा सन्यासी चुनरकी रात का गहराता सायामेहमान बन के आता है रौशनी के शहर मत रखना हिसाब मुरझाए लम्हों कास्याह से होते किस्सों काये सिखाया है अपनी अच्छाईयों नें,दर्द बन जाना,किसी को दवा नही होना,
दीवानगी आवारा है सड़को पे सुबह शाम,ख़र्च हो जाना रोज़ ,जमा नही होना,सूरज की किरणों के सँग-सँग तुम रोज सुबह को आती हो। जीवन के इस पतझड़ को तुम,सावन बन कर महकाती हो। प्रेम के विभ्रम रचतेहम इक्कीसवीं सदी के वासीदे रहे हैं एक नयी सभ्यता को जन्मजहाँ आँसू, दुःख, पीड़ा, क्षोभ शब्द किये जा चुके हैं खारिज शब्दकोष सेयही है आज के समय की अवसरवादी तस्वीरतोड़ नीरवता विपिन भीले मलय सौरभ विचरतालालिमा से अर्घ्य ले करफिर हृदय उपवन निखरताहो तरंगित नाचता मन कालिमा को भूलता सा।।वह मौन है, सुस्त है, निराश है कल तक था हरा भरा आज कंगाल है. खिड़की से झांकता हैपतझड़ से त्रस्त वह पेड़ कुछ कहना चाहता है. शायद अपनी हालत देख शब्दों से लाचार है. माँ कपड़े पर पड़ी पुरानी धूल नहीं,जिसे अनदेखा कर दूर झटक देते हो तुम । माँ कि दमें की खांसी कोई छुत कि बिमारी नहीं,जिसके पास जाते ही सहम जाते हो तुम ।*भगवान शंकर से हमें सीखना चाहिए*कि जीवन का सार क्या है ?*भगवान शंकर ही मात्र एक देवता हैं जो परिवार के साथ पूजे जाते हैं**भगवान शंकर के परिवार को देखकर हमे सीखना चाहिए कि घर समाज में विष भी होता है और अमृत भी, क्रोध भी होता है और क्षमा भी , प्रेम भी होता है और स्वाभिमान भी होता है, अनुशासन भी होता है, और परिवार से ही संस्कार मिलता है उन सब के बीच सन्तुलन बनाने से ही परिवार चलता है*भगवान सर्वव्यापी है ! रक्षक है ! तारणहार है ! सबकी सुनता है ! हरेक की सहायता करता है ! पर कभी अहसास नहीं होने देता ! खुद परोक्ष में रह, यश किसी और को दिलवा देता है ! चमत्कार होते हैं, पर इस तरह सरलता के साथ कि इंसान की क्षुद्र बुद्धि समझ ही नहीं पाती ! प्रभु चाहते हैं कि इंसान स्वाबलंबी बने, कर्म करे, उनके सहारे ना बैठा रहे ! इसीलिए वह ख्याल तो रखते हैं ! सहायता भी करते हैं ! पर किसी को एहसास नहीं होने देते ! होता क्या है कि मुसीबत में आदमी हाथ-पैर मारता ही है ! तरह-तरह के उपाय करता है ! इधर दौड़, उधर दौड़, यह आजमा, वह आजमा ! फिर जब ठीक हो जाता है तो अहसान भी उसी माध्यम का मानता है जो अंत में सहायक हुआ था ! तब तक वह भूल जाता है कि उसने परम पिता से भी सहायता मांगी थी और वह तो किसी को भी निराश नहीं करता ! यह भी भूल जाता है कि वह खुद भी उसी ईश्वर की रचना है उसकी बनाई प्रकृति, व्यवस्था का ही एक हिस्सा है, अपनी रचना की वह कभी उपेक्षा नहीं करता ! -- आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
ये सिखाया है अपनी अच्छाईयों नें,
दर्द बन जाना,किसी को दवा नही होना,
दीवानगी आवारा है सड़को पे सुबह शाम,
ख़र्च हो जाना रोज़ ,जमा नही होना,
सूरज की किरणों के सँग-सँग
तुम रोज सुबह को आती हो।
जीवन के इस पतझड़ को तुम,
सावन बन कर महकाती हो।
प्रेम के विभ्रम रचते
हम इक्कीसवीं सदी के वासी
दे रहे हैं एक नयी सभ्यता को जन्म
जहाँ आँसू, दुःख, पीड़ा, क्षोभ शब्द किये जा चुके हैं खारिज शब्दकोष से
यही है आज के समय की अवसरवादी तस्वीर
तोड़ नीरवता विपिन भी
ले मलय सौरभ विचरता
लालिमा से अर्घ्य ले कर
फिर हृदय उपवन निखरता
हो तरंगित नाचता मन
कालिमा को भूलता सा।।
वह मौन है, सुस्त है, निराश है
कल तक था हरा भरा
आज कंगाल है.
खिड़की से झांकता है
पतझड़ से त्रस्त वह पेड़
कुछ कहना चाहता है.
शायद अपनी हालत देख
शब्दों से लाचार है.
माँ कपड़े पर पड़ी पुरानी धूल नहीं,
जिसे अनदेखा कर दूर झटक देते हो तुम ।
माँ कि दमें की खांसी कोई छुत कि बिमारी नहीं,
जिसके पास जाते ही सहम जाते हो तुम ।
*भगवान शंकर से हमें सीखना चाहिए*
कि जीवन का सार क्या है ?
*भगवान शंकर ही मात्र एक देवता हैं जो परिवार के साथ पूजे जाते हैं*
*भगवान शंकर के परिवार को देखकर हमे सीखना चाहिए कि घर समाज में विष भी होता है और अमृत भी, क्रोध भी होता है और क्षमा भी , प्रेम भी होता है और स्वाभिमान भी होता है, अनुशासन भी होता है, और परिवार से ही संस्कार मिलता है उन सब के बीच सन्तुलन बनाने से ही परिवार चलता है*
भगवान सर्वव्यापी है ! रक्षक है ! तारणहार है ! सबकी सुनता है ! हरेक की सहायता करता है ! पर कभी अहसास नहीं होने देता ! खुद परोक्ष में रह, यश किसी और को दिलवा देता है ! चमत्कार होते हैं, पर इस तरह सरलता के साथ कि इंसान की क्षुद्र बुद्धि समझ ही नहीं पाती ! प्रभु चाहते हैं कि इंसान स्वाबलंबी बने, कर्म करे, उनके सहारे ना बैठा रहे ! इसीलिए वह ख्याल तो रखते हैं ! सहायता भी करते हैं ! पर किसी को एहसास नहीं होने देते ! होता क्या है कि मुसीबत में आदमी हाथ-पैर मारता ही है ! तरह-तरह के उपाय करता है ! इधर दौड़, उधर दौड़, यह आजमा, वह आजमा ! फिर जब ठीक हो जाता है तो अहसान भी उसी माध्यम का मानता है जो अंत में सहायक हुआ था ! तब तक वह भूल जाता है कि उसने परम पिता से भी सहायता मांगी थी और वह तो किसी को भी निराश नहीं करता ! यह भी भूल जाता है कि वह खुद भी उसी ईश्वर की रचना है उसकी बनाई प्रकृति, व्यवस्था का ही एक हिस्सा है, अपनी रचना की वह कभी उपेक्षा नहीं करता !
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आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बहुत बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति|
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता सैनी 'दीप्ति' जी!
माँ कपड़े पर पड़ी पुरानी धूल नहीं,
जवाब देंहटाएंजिसे अनदेखा कर दूर झटक देते हो तुम
🙏
अति सुन्दर
खूबसूरत चर्चा
आभार
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, सराहनीय अंक।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा मंच...हमारी रचना शामिल करने के लिए आभार🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी मेहनत भरी चर्चा , सुंदर संकलन , आदरणीया अनीता जी बधाई , आप ने प्रभु शिव की महिमा में मेरे लेख हर हर महादेव को भी स्थान दिया खुशी हुई। राधे राधे
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