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मंगलवार, मार्च 29, 2022

"क्या मिला परदेस जाके ?"' (चर्चा अंक 4384)

 सादर अभिवादन 

आज की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है 

(शीर्षक और भुमिका आदरणीया जिज्ञासा जी की रचना से)

इस चमन में क्या कमी
जो भागते चमनों चमन,
है यही धरती, यही अंबर
यही बहती पवन,
फिर भला क्यों बिहँस पड़ते
डिग्रियाँ उनकी सजा के ॥
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कभी ऐसा दौर था जब कहा करते थे कि-
जिएंगे तो अपने वतन में और मरेंगे भी तो
मातृभूमि के गोद में
कब और कैसे ये सारे सिद्धांत बदल गए
पता ही नहीं चला
और आज मातृभूमि को क्या
माता पिता तक को छोड़ चुके हैं....
बस,चंद सिक्कों की लालसा में...
इस विषय पर चिंतन जरूरी है....
 मां सरस्वती को नमन करते हुए
चलते हैं,आज की कुछ खास रचनाओं की ओर...
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वन्दना "माँ आपसे आराधना"

 (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')



हृदय की सूखी धरा पर,

ज्ञान की गंगा बहाओ,

सुमन से तम को मिटाकर,  

रौशनी का पथ दिखाओ,

लक्ष्य में बाधक बना अज्ञान का जंगल घना।

कर रहा नन्हा सुमन, माँ आपसे आराधना।।


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क्या मिला परदेस जाके ?



डिग्रियां आधी अधूरी
फीस देनी पड़ी पूरी,
कौन कहता उस जहाँ में
है हमें पढ़ना जरूरी,
सोच थी सपने सजाना
लौट आए जी बचा के ॥


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टर्निंग प्वाइंट


जब आँखें नींद से बोझिल होने लगती हैं ठीक उसी वक़्त नींद न जाने कहाँ चली जाती है. फिर उन सपनों को टटोलते हूँ जिन्हें असल में नींद में आना था. उन सपनों में एक सपना ऐसा भी है जिससे बचना चाहती हूँ. लेकिन जिससे बचना चाहते हैं हम वो सबसे ज्यादा सामने आ खड़ा होता है. उस अनचाहे सपने से मुंह चुराने की कोशिश में रात बीतती है और सुबह होते ही कोयल जान खाने लगती है.

 
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अनंत साध - -


ज़िन्दगी अक्सर देती है दस्तक
कुछ लम्हों की सौगात लिए,
दहलीज़ पर हो तुम, या
चल रहा हूँ मैं नींद
में इक ख़्वाब
की दुनिया
अपने
-----------स्वप्न और जागरण

मन केवल नींद में  ही नहीं देखता स्वप्न

दिवा स्वप्न भी होते हैं 

जागती आँखों से देखे गए स्वप्न 

बात यह है कि 

खुद से मिले  बिना नींद खुलती ही नहीं 

या कहें कि खुद से बिछुड़ना 

है एक स्वप्न  


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हम जियेंगे बेसहारे


स्नात नैनों को, दुसह स्मृति में झुकाकर, दीन जैसे
सांध्य-ऊषा में फिरेंगे, रेणु बन सर के किनारे।
अब गगन से रक्त बरसे, या कि गिर जाए गगन ही
प्रेयसी, दुःस्वप्न की पीड़ा कहो कैसे बिसारें?------------
कल और आज


जब भी घर लौटते है 

बचपन आ जाता है 

आज और कल के 

झलक दिख जाते है  

समय ये ऐसा ढीट है 

एक जगह ठहरता नहीं 

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व्रत वाले आलू के लच्छेदार पकोड़े 

दोस्तों, नवरात्र शुरू होने वाले है। व्रत में वो ही साबूदाना खाकर बोर हो गए होगे तो आपकी सहेली आपके लिए लाई है एक ऐसी रेसिपी जो बनाने में तो आसान है खाने में स्वादिष्ट है...व्रत वाले आलू के लच्छेदार पकोड़े। 

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आज का सफर यही तक,अब आज्ञा दे आप का दिन मंगलमय हो कामिनी सिन्हा 

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति|
    आपका आभार कामिनी सिन्हा जी|

    जवाब देंहटाएं
  2. अति श्रम और स्नेह से सजाया है विविधरंगी रचनाओं के सूत्रों से आज का चर्चा मंच, बहुत बहुत आभार कामिनी जी!

    जवाब देंहटाएं
  3. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, कामिनी दी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही उम्दा संकलन ।
    एक से बढ़कर एक चयन, हर रचना पठनीय ।
    मेरी रचना चयनित करने के लिए बहुत आभार आपका ।
    बहुत शुभकामनाएँ सखी 💐💐👏🏻

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी रचना की पंक्तियों से सज्जित भूमिका देख मन की गहराई से खुशी हुई । बहुत शुक्रिया आपका ।

      हटाएं
  5. सभी रचनाएं मंत्रमुग्ध करती हैं, सभी रचनाकारों को शुभकामनाएं, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार नमन सह ।

    जवाब देंहटाएं
  6. आप सभी स्नेहीजनों को हृदयतल से धन्यवाद एवं सादर नमस्कार 🙏

    जवाब देंहटाएं

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